गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
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लेखन श्रृंखला 1 : मन का दर्पण...

लेखन श्रृंखला 1 : मन का दर्पण... - Lekhan
जब भी मन करता है लिखने का, हृदय को अथाह खुशी महसूस होती है, असीम तृप्ति का अहसास होता है। हर बार यही सोचती हूं मां सरस्वती का अपार आशीर्वाद है, असीम कृपा है मुझ पर, जो उन्होंने लेखन की कला से मुझे संवारा है। मां सरस्वती का यह वरदान पाकर मन गदगद हो जाता है।
 
कविता लिखने बैठती हूं तो जैसे भीतर में कोई झंकार बजती है। शब्दों की खनक, भावों का संगीत, विचारों का सरगम, फिर दिल का, दिमाग का, अंगुलियों का, सपनों का, कल्पनाओं का गजब का संतुलन। एक बेचैनी मुझे एक अलग दुनिया में ले जाती है, जहां सिर्फ और सिर्फ मैं और सरस्वती मां का वरदान और जन्म होता है- एक नई कविता का, कहानी का, लेख का जो कभी प्रकृति, कभी रिश्तों पर, कभी देश पर, कभी सामाजिक विषयों पर, कई बार देशभक्ति पर, कई बार भारत मां से अपनों से बिछोह और अकेलेपन की कचोट पर आधारित होता है।
 
हृदय के भीतर के तर्क-वितर्क, विचारों के द्वंद्व, भावनाओं का ज्वार-भाटा आंधी की तरह उमड़ता है। शीघ्र ही क्या सही है, क्या गलत है, क्या उचित है, क्या अनुचित है, अच्छा है, उत्तम है- इन्हीं सब बातों पर हृदय और मस्तिष्क में वाद-विवाद शुरू हो जाता है। बात बनती है तो कोई रचना जन्म ले लेती है, फलती-फूलती है, आकार लेती है और मेरी कल्पनाओं, मेरे विचारों, मेरे यथार्थ अनुभव से साकार रूप लेकर मेरे भीतर से इस धरती पर जन्म लेती है।

अपनी लेखनी से हर लेखक को प्यार होता है, मुझे भी बहुत है। जब मेरी कोई कविता, कहानी या लेख छपता नहीं है तो अपनी असफलता पर बहुत क्रोध आता है, परंतु यह मन:स्थिति अस्थायी होती है, शीघ्र ही नदारद हो जाती है। 
 
पुनः कई अवसर आते हैं, जब दोबारा कलम चलने लगती है। शीघ्र ही हृदय अपनी भीतर की दुनिया से बाहरी दुनिया में लौटता है और कई महान भूत और वर्तमान लेखकों की अचंभित, आनंदमयी, प्रेरणादायक कृतियों को पढ़ती हूं। तब अनुभव होता है कि मां सरस्वती की भक्ति में हृदय की तपन अभी अधूरी है, अभी और तपस्या करनी है। यह मंजिल नहीं, सिर्फ रास्ता है। इस कठिन मार्ग पर सफर तय करना अभी बाकी है।
 
आज पुनः हृदय के भीतर झंकार बज उठी है। सरस्वती मां का आदेश है कुछ रचने का। मन में दुविधा है कि क्या रचूं? बसंत ऋतु का आगमन हो चुका है, ठंडी सुबहों और सर्द रातों के मध्य चमकीला-महकता ऊष्मित दिन, वृक्षों पर सजते पुष्प-पुंज, कोमल-नवल पत्तियां, नवीन-हरित दूब, चहचहाते कामातुर पंछी, रंग-बिरंगी तितलियां, मंडराते भौंरे, कूदते-फांकते अल्हड़ बालक, नील आकाश में इक्का-दुक्का घुमड़ते बादल, बहती प्राणदायी बयार, प्रकृति की, सृष्टि की इस खूबसूरती को शब्दों में उतारूं या मातृत्व सुख का बखान करूं, कोई कहानी गढ़ूं या रिश्तों के जाल में उलझूं, भावनाओं के बवंडर, विचारों की आंधी में बहूं या किसी सामाजिक विषय पर लिखूं, अपितु प्रवासी भारतीयों के अकेलेपन के दर्द का प्रतिपादन करूं? या वायुमंडलीय, भूमंडलीय, पर्यावरण की समस्याओं का वर्णन करूं?
 
 

हृदय और मस्तिस्क में उठता-सिमटता ज्वार-भाटा, तर्क-वितर्क, वाद-विवाद, विचारों का द्वंद्व चलना शुरू हो गया। बाहर के खूबसूरत दृश्य पर दृष्टि डालकर पलभर के लिए मैंने आंखें बंद कर लीं। प्रकृति की जिस खूबसूरती पर मैं कविता रचूं, वह वर्तमान खूबसूरती तो अमेरिका की खूबसूरती का बखान है।
 
भारत से दूर बैठकर हम मात्र मौसम का हाल दूरभाष पर ही जान कल्पना करते हैं, अंदाजा लगाने की कोशिश करते हैं कि भारत में मौसम कैसा मससूस हो रहा है? भारत में बसे मेरे शहर की प्राकृतिक छबि के बारे में लिखूं, जो मेरे बचपन के संग कहीं खो गई है और उसकी जगह बड़ी-बड़ी पत्थरों की इमारतों ने ले ली है जिनकी परछाइयां से मेरे बालपन की यादें टकराती हैं। भारत की वर्तमान राजनीति और बदलती संस्कृति, सभ्यता, परिवेश, मूल्यों को अपनी कसौटी पर परखूं?
 
तभी विचार आया, कल अमेरिका में एक उच्च विद्यालय में घटी घटना का ‍जिसमें 16 वर्ष की आयु के छात्र ने 2 चाकुओं से 19 लोगों पर स्कूल में हमला कर उन्हें घायल कर दिया। मैंने अपनी अमेरिकन सहेलियों से इस घटना का जिक्र कर कारण जानना चाहा कि इस तरह की घटनाएं क्यों बहुतायत अमेरिका में घटती हैं? उनका जवाब था कि बदकिस्मती।
 
सोचा इस विषय पर शोध कर एक आलेख ही लिख लूं। निर्णय ले भी नहीं पाई थी, विचारों में खोई मैंने आंखें खोलीं तभी बाहर एक गोरा जवान हवा में सिगरेट के छल्ले उड़ाता स्केट बोर्ड पर भागता अपनी धुन में नजर आया। क्या राय बनती है मन में ऐसों को देखकर? अच्छी या बुरी?
 
सिगरेट-शराब इन विलासिताओं से हम कोसों दूर हैं, शुक्र है। पर प्रातः सवेरे उस अजनबी को यह भाता होगा। मेरी अंगुलियां स्वतः ही यांत्रिकी चलती मेरे विचारों का बिम्ब कम्प्यूटर की स्क्रीन पर उकेर रही थीं। एक रचना जन्म ले रही है, आकार भर रही है, परंतु मैं स्वयं निश्चिंत नहीं हूं, क्या मैं सचमुच यही लिखना चाहती हूं? 
 
भारत मां का कोई गीत आज नहीं सूझ रहा है, क्यों? क्या वहां की वर्तमान परिस्थिति मुझे सता रही है? किसी महापुरुष की, संत की वाणी, कोई आध्यात्मिक विचार, बॉलीवुड की कोई खबर, कोई भी आधार नहीं है आज मेरी लेखनी में। मैं स्वयं से भी सहमत नहीं हूं। 
 
इसी क्षण दूरभाष की घंटी घनघना उठी। एक अनजान नंबर कॉलर आईडी पर उभरा। अनजान नंबरों को मैं ज्यादातर नजरअंदाज कर देती हूं, पर मेरी अनिश्चित मनोदशा से स्वयं का ध्यान बंटाने के लिए मैंने फोन का रिसीवर उठाया। 
 
मेरी शुभचिंतक का कॉल था। जो केवल मेरी ही नहीं, यहां कहना गलत न होगा बल्कि वे समाज की, देश की, विदेश की, मानवता की शुभचिंतक हैं जिनकी जीवनशैली, विचार, सादगी शुद्ध बहते पानी की तरह है और व्यवहार सेवाधारी संत की तरह। 
 
उनका पहला सवाल कि 'गुड टाइम, बेड टाइम टू कॉल यू?'
 
'जब भी आप कॉल करती हैं, हमेशा सही पकड़ती है। वह वक्त, वो क्षण हमेशा सही होता है', मैंने जवाब दिया। 
 
संक्षिप्त बातचीत का सिलसिला हर बार की तरह। मेरे प्रश्न, उनके उत्तर। विचारों का आदान-प्रदान। हमारे वार्तालाप के दौरान उनके अंतिम शब्द- 'जो तुम्हारे लिए सही है, किसी और के लिए गलत हो सकता है और जो तुम्हारे लिए गलत है किसी और के लिए सही हो सकता है। महत्वपूर्ण यह है कि आप दिन में कम से कम केवल एक बार कुछ अच्छा, किसी का भला, मानव-सेवा का काम करो, बिना किसी को भी बताए। बहुत तृप्ति मिलती है। यह भी एक प्रकार का ध्यान है, मेडिटेशन है। अपार शांति का आभास होगा।' 
 
उन्होंने फोन रखा और मेरे मन का बवंडर भी शांत हो गया। वाद-विवाद, उचित-अनुचित सारे तर्क धरे के धरे रह गए। सभी द्वंद्व समाप्त। मुझे आभास होने लगा कि यह एक बहुत ही सुन्दर रचना है, जो सरस्वती मां ने रची है। मैं मात्र एक माध्यम हूं। मेरा मैं, मेरे स्वयं के विचार, मेरी भावनाएं, मेरे अस्तित्व का बिम्ब मेरे मन के दर्पण में उभरा कि यह एक आशीर्वाद है, वरदान है, कृपा है, जो लेखन की कला से मुझमें संवरा है। तो क्या हुआ, जो मेरी रचनाएं कभी-कभी छपती नहीं हैं।
 
मन को मात्र जिंदा ही नहीं, जाग्रत रखना भी जरूरी है। हर बार सभी मुझसे सहमत हो जाएं, यह भी जरूरी नहीं है। जीवन और उसे जीने की कला अधिक महत्वपूर्ण है। खूबसूरती या परेशानी अमेरिका की हो या भारत की, जीवन और समय अपनी रफ्तार से चलते ही रहेंगे। मेरी लेखनी का मकसद सही हो, दिशा सही हो, यही पर्याप्त है। मन का दर्पण एक प्रकाश पुंज के पड़ने से दमकने लगा।