गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
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इन कड़वे-सच सवालों के जवाब हमें तलाशने ही होंगे

इन कड़वे-सच सवालों के जवाब हमें तलाशने ही होंगे - india
- डॉ. आदित्य नारायण शुक्ला 'विनय' 
 
अमेरिका (USA) में 35 वर्षों के प्रवास में 35 से अधिक ही अमेरिकनों (अमेरिकी मित्रों, पड़ोसियों, सहकर्मियों आदि) ने मुझसे ये प्रश्न पूछे होंगे-

1. आपके देश के (यानी भारत के) कितने नाम हैं?
 
2. जब आपके यहां (यानी भारत में) देश के वास्तविक शासक प्रधानमंत्री होते हैं तो वहां पर राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति की क्या आवश्यकता है? ठीक इसी तरह से जब वहां पर राज्यों के वास्तविक शासक मुख्यमंत्री होते हैं तो वहां पर राज्यपाल क्यों बनाए जाते हैं? दूसरे शब्दों में अमेरिकी हमसे ये पूछते हैं कि इन अनावश्यक पदों (भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व 29-30 राज्यपालों, इनके 'राजमहलों' की सुरक्षा, स्टाफ व विदेश यात्रा आदि) पर जनता के अरबों-खरबों रुपए क्यों व्यर्थ खर्च किए जाते हैं? इन्हीं पैसों से आप लोग बेरोजगारों के लिए फैक्टरी-कारखाने क्यों नहीं खोल देते? 
 
वैसे यह कड़वा सच कौन नहीं जानता कि भारत के राष्ट्रपति यहां के प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट के हाथों की कठपुतली होते हैं। ठीक यही स्थिति राज्यों में मुख्यमंत्री व उनके कैबिनेट के हाथों राज्यपालों की होती है। जो कठपुतली नहीं रहना चाहते- आमतौर पर वे जो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की पार्टी के नहीं हैं- उन्हें उनके पद से भगा दिया जाता है। फिलहाल राष्ट्रपति के लिए अभी तक ऐसी नौबत नहीं आई है किंतु कांग्रेस के कई राज्यपाल केंद्र में बीजेपी की सत्ता में आने के बाद से 'भगाए' जा चुके हैं। उन्हें भगाता कौन है- प्रधानमंत्री के इशारे पर ही राष्ट्रपति ही, क्योंकि वही उनके 'ऑफिशियल बॉस' होते हैं।
 
एक अमेरिकी ने मुझसे विनोद में पूछा था- 'आपके (भारत के) राष्ट्रपति-राज्यपाल प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्रियों को हर 5 साल में शपथ दिलवाने के अलावा और क्या करते हैं? और वे शपथ दिलवाते समय भी 'आई' या 'मैं' कहकर चुप हो जाते हैं। शपथ के शेष वाक्य लेने वाले ही पढ़ लेते हैं। हर 5 सालों में तो यह काम ('आई' या 'मैं' बोलवाने का) प्रधानमंत्री के लिए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और मुख्यमंत्रियों के लिए हाईकोर्टों के चीफ जस्टिस भी कर सकते हैं। भले ही यह विनोद में पूछा गया था किंतु गहराई से सोचें तो इसमें गंभीरता भी छिपी हुई है और कड़वा सच भी।
 
3. भारत के महत्वपूर्ण सर्वोच्च पदों (जैसे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री आदि) के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति की तरह 'एक व्यक्ति, दो कार्यकाल' यानी अधिकतम 10 वर्षों से ज्यादा अपने पद पर नहीं रह सकते। यह प्रथा या नियम आप लोग क्यों नहीं बनाते? इस प्रथा से अनेकानेक अनुभवी और योग्य नेताओं को देश-राज्य के इन सर्वोच्च पदों पर पहूंचने का मौका मिलता है और तानाशाही या परिवारवाद नहीं पनपने पाता। भारत में 'एक राष्ट्रपति-एक कार्यकाल' (यानी 5 वर्ष) का नियम तो आप लोगों ने बना ही लिया है। वैसे अमेरिका में राष्ट्रपति-राज्यपालों का एक कार्यकाल 4 वर्षों का होता है।
 
4. अमेरिकी राष्ट्रपति की तर्ज पर भारत के वास्तविक शासक यानी प्रधानमंत्री को सारा देश मिलकर अपने बहुमत से क्यों नहीं चुनता? 125 करोड़ देशवासियों का वास्तविक शासक (प्रधानमंत्री) चुना जाता है 300 से भी कम लोगों (सांसदों) के बहुमत द्वारा! क्या यह प्रथा दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के लिए उचित है? 
 
5. क्या आप मानते हैं कि यदि भारत में केंद्र में बीजेपी सत्ता में नहीं आई होती तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को देश का सर्वोच्च सम्मान 'भारतरत्न' नहीं मिला होता? दूसरे शब्दों में केंद्र की सरकार केवल अपने पसंदीदा व्यक्तियों को ही भारतरत्न और पद्म पुरस्कार देती है।
 
वैसे अमेरिका में भी राष्ट्रीय सम्मान, जिसका एकमात्र नाम 'प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम' (Presidential Medal of Freedom) है, दिए जाते हैं लेकिन इनके निर्णय, किन्हें दिए जाने चाहिए, वहां सरकार की नहीं जनता के बहुमत से लिए जाते हैं। आज इस इंटरनेट के युग में तो अमेरिकी जनता अपनी राय सरकार को कम्प्यूटर से ही भेज देती है। अमेरिका का राष्ट्रीय सम्मान पाने वालों में कुछ विदेशी नागरिक भी होते हैं। 
 
 
 

कहीं पढ़ा था कि गत वर्ष अमिताभ बच्चन किसी अमेरिकी कलाकार से (लोकप्रियता में) मात्र 1 मत पीछे रह जाने से व्हाइट हाउस में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के हाथों सम्मान पाने से वंचित रह गए थे। हम भारतीयों के लिए यह गर्व का विषय है कि कोई भारतीय कलाकार अमेरिका जैसे देश में भी किसी अमेरिकी कलाकार से लोकप्रियता में मात्र 1 कदम पीछे है। अमेरिका में आज भी अमिताभ के शो के टिकट मिलने क्रिकेट मैच के टिकटों की तरह मुश्किल हो जाते हैं। अमेरिका में उनकी लोकप्रियता का एक बहुत बड़ा कारण है- हिन्दी-इंग्लिश दोनों ही भाषाओं पर उनका समान अधिकार, खैर...!
 
तो पहले प्रश्न पर आते हैं कि आपके देश के कितने नाम हैं? 
 
चूंकि जवाब अमेरिका में देना था अतः मेरे मुंह से निकल-निकल गए : 'बस, इंडिया'। तब अधिकांश अमेरिकी प्रश्नकर्ताओं ने मुझसे कहा था- अरे भई आदित, 5-6 नाम तो मैं जानता हूं और आप इंडियन होकर भी 'बस, इंडिया' कह रहे हैं। और उन्होंने हमारे देश के ढेर सारे नाम गिनाने शुरू कर दिए थे- इंडिया, भारत, भारतवर्ष, हिन्द, हिन्दुस्तान, आर्यावर्त वगैरह। वैसे 'आर्यावर्त' यानी हमारे देश का छठा नाम कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी (जहां से मैं बरसों काम करके रिटायर हुआ) में इतिहास के एक प्रोफेसर मित्र ने बताया था। प्रोफेसर साहब ने इस शब्द की व्याख्या भी कर दी थी- आपके ऋग्वेद में आपके देश का यही प्राचीन नाम बताया गया है- आर्यावर्त अर्थात आर्यों (जो कालांतर में हिन्दू कहलाए) का निवास स्थान।
 
'लेकिन अब हमारे देश का ऑफिशियल नाम 'इंडिया' ही है', मैं कहता हूं।
 
इसे सुन अमेरिकन कहते हैं- जी नहीं, आपके देश के ऑफिशियल नाम भी दो हैं- इंडिया और भारत। ये दोनों नाम आप अपने देश के डाक टिकटों और करेंसी नोटों पर भी पढ़ सकते हैं। इसके बावजूद आपके नेतागण, यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी अपने भाषणों में 'हिन्दुस्तान' शब्द का प्रयोग ज्यादा करते हैं।
 
'वैसे इंग्लैंड, अमेरिका के भी तो कई नाम हैं, जैसे इंग्लैंड, ब्रिटेन...' शायद मैं अपनी झेंप मिटाने के लिए कहने लगता हूं।
 
लेकिन इंग्लैंड-अमेरिका के भी ऑफिशियल नाम सिर्फ 1-1 हैं। इंग्लैंड का 'यूनाइटेड किंगडम' और अमेरिका का 'यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका', अमेरिकी कह उठते हैं।
 
और तब सचमुच मुझे लगने लगता है कि हमारे देश का भी सिर्फ एक नाम ही होना चाहिए। श्रीलंका ने भी अपने 'सीलोन' का लैबल निकालकर फेंक दिया है, जो कि उसे विदेशियों ने दिया था।
 
खेद की बात तो यह है कि हमारे देश का नाम 'भारत' (जो कौरव-पांडवों के पूर्वज महान पराक्रमी और न्यायप्रिय राजा भरत के नाम पर पड़ा था) को छोड़कर शेष सारे नाम विदेशियों ने हमें दिए हैं। 'भरत' देश ही हजारों साल बाद इंग्लिश में लिखने पर 'भारत' (Bharat) हो गया। एक हिन्दी साहित्यकार ने शायद व्यंग्य में ही कहा है- 'जिसे हम 'हिन्दी' कहते हैं, वास्तव में उसे 'भारती' कहना चाहिए। हमारे देश का 'हिन्द' नाम तो विदेशियों बल्कि हम पर आक्रमणकारियों ने हमें दिया है।'
 
भारत में हम अपने शहरों और राज्यों के नाम आए दिन बदलते रहते हैं। क्या भारतीय संसद एक प्रस्ताव पास करके हमारे देश का कोई भी सिर्फ एक नाम नहीं रख सकती? इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी देश के 'एकमात्र ऑफिशियल नाम' का अपना एक अलग महत्व और अंतरराष्ट्रीय मूल्य होता है। अमेरिकियों के शेष प्रश्नों को मैं यह कहकर टालने का असफल प्रयास करता हूं कि 'हम अपने संविधान से बंधे हैं'
 
'लेकिन भारत के संविधान में संशोधन भी तो किए जा सकते हैं?', किसी प्रतिवादी से यह सुनने को मिल ही जाता है।
 
इस बात से कौन इंकार करेगा कि संविधान का उद्देश्य अंततोगत्वा 'राष्ट्रकल्याण' ही होता है इसलिए हर देश को अपने संविधान में वर्तमान आवश्यकता के अनुरूप संशोधन भी करते रहने चाहिए। 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान तत्कालीन देश की आवश्यकता के अनुरूप रहा होगा, लेकिन आज देश में आमूलचूल परिवर्तन हो चुके हैं। तब कलेक्टर-कमिश्नर के घरों में भी बड़ी मुश्किल से लैंडलाइन फोन लगते थे, आज भारत में प्राय: हर किसी के पास मोबाइल फोन हैं। 
 
15 अगस्त 1947 को शायद भारत की आधी आबादी 'प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री' क्या बला है, नहीं जानती थी, क्योंकि तब देश की अधिकांश जनता अनपढ़ थी। आज भारत का प्रत्येक मतदाता देश-राज्य के इन सर्वोच्च पदों से भली-भांति परिचित है। तो जाहिर सी बात है- देश का प्रत्येक मतदाता इन सर्वोच्च पदों, अपने देश और राज्य के वास्तविक शासकों- प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री अपने हाथों से चुनने के लिए उन्हें अपना मत देने के लिए बेहद आतुर भी होगा।
 
 

'हम अपने संविधान से बंधे हैं', यह कहने का समय हमारी आजादी के 68 वर्षों बाद तो कम से कम अब नहीं रह गया अत: भारत के संविधान में कम से कम निम्नलिखित संशोधन तो होने ही चाहिए- 
 
1. भारत का प्रधानमंत्री यानी देश का वास्तविक शासक संपूर्ण देश की आम जनता के बहुमत से चुना जाए।
 
 2. भारत के राज्यों के मुख्यमंत्री यानी राज्य के वास्तविक शासक उस राज्य की आम जनता के बहुमत से चुने जाएं। (कहना न होगा इनके गलत चयन-पद्धति की वजह से ही हमारे देश और राज्य की सरकारें बारंबार गिरती रहती हैं और मध्यावधि चुनावों में हम देश का अपार धन भस्म करते रहते हैं।)
 
3. भारत के वर्तमान राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व 29-30 राज्यपाल-उपराज्यपाल अपना वर्तमान कार्यकाल पूरा होने तक अपने पदों पर बने रहेंगे, किंतु इनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद इन पदों का उन्मूलन कर दिया जाएगा। राष्ट्रपति के अतिआवश्यक कार्यभार (जैसे प्रधानमंत्री को शपथ दिलवाना), सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और राज्यपालों के अतिआवश्यक कार्यभार (जैसे मुख्यमंत्रियों को शपथ दिलवाना) आदि कार्य हाईकोर्टों के चीफ जस्टिसों को हस्तांतरित हो जाएंगे। इस अतिरिक्त कार्यभार के फलस्वरूप चीफ जस्टिसों के वेतनों में कुछ वृद्धि कर दी जाएगी।
 
4. भारत में 'राष्ट्रपति' पद के उन्मूलन के बाद 'राष्ट्रपति भवन' को 'प्रधानमंत्री भवन' बना दिया जाएगा।
 
यदि हम उपरोक्त इन 'कड़वे-सच सवालों के जवाब' तलाशने से कतराते रहे तो गत 68 वर्षों की तरह अधिकांश प्रधानमंत्रियों की सरकारें भी (तथाकथित अशुभ आंकड़े) 13 दिनों से लेकर 13 महीनों में ही गिरती रहेंगी। क्या यह बताने की आवश्यकता है कि आधे दर्जन प्रधानमंत्रियों (नेहरू, इंदिरा, राजीव, राव, वाजपेयी और डॉ. सिंह) को छोड़कर शेष 10 प्रधानमंत्री अपना एक कार्यकाल (5 वर्ष) भी पूरा नहीं कर सके थे और इनमें से अधिकांश तो 11 महीनों के आसपास ही चलते बने थे। 
 
झारखंड में 10 साल में 10 बार सरकारें गिरीं। वहां 10 से ज्यादा बार मुख्यमंत्री अदलते-बदलते रहे, जो कि सचमुच भारत के लिए एक बेहद दुखद और शर्मनाक विश्व रिकॉर्ड है। शायद नहीं, निश्चित ही 'आर्यावर्त' से लेकर 'इंडिया' के हजारों सालों के इतिहास में जो नहीं हुआ, वह गत 68 वर्षों में हमारे देश में हुआ है और हो रहा है।
 
और यदि हम इन सवालों के सही जवाब नहीं तलाशें तो शायद नहीं, निश्चित रूप से आगे भी ऐसा होता रहेगा। तो अब यह कहने या बहाना बनाने का समय गया कि 'हम अपने संविधान से बंधे हैं'। आज अब का जो समय है वह है हमारे देश की वर्तमान आवश्यकता के अनुरूप हमारे संविधान में उचित और आवश्यक संशोधन करने का। 
 
जब हमारा पड़ोसी देश नेपाल अपने यहां एक आमूलचूल परिवर्तित नया संविधान लागू कर सकता है तो हम भारत के संविधान में मात्र कुछ संशोधन क्यों नहीं कर सकते? सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश काटजू के इस कथन से कि- '80 प्रतिशत भारतीय मूर्ख होते हैं' करोड़ों भारतीय नाराज होंगे, लेकिन 100 प्रतिशत भारतीयों में से 1 प्रतिशत ने भी हमारी कमजोर सरकारों के 'कारण और निवारण' तथा देश के बेशुमार खर्चों वाले अनावश्यक पदों के उन्मूलन पर आज तक विचार नहीं किया।
 
कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच की दीवार ढहा दी जाएगी और दोनों देश फिर से एक हो जाएंगे। कभी रहे दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश पूर्व सोवियत संघ के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। 
 
तो दुनिया में असंभव तो कुछ भी नहीं है। फिर हमारे देश के संविधान में वर्तमान आवश्यकता के अनुरूप संशोधन संभव क्यों नहीं है? यह संभव केवल इसलिए नहीं है, क्योंकि हम में से अधिकांश की 'मंथरा मनोवृत्ति' होती है- 
 
'कोउ नृप होहिं हमहि का हानि' 
 
फलस्वरूप हम अपने देश में 'रामराज्य' आने को कई-कई 14 वर्ष पीछे धकेल रहे हैं।