शिपयार्ड कंपनियों में निवेश पर मिलेगा बेहतर रिटर्न
देश का जहाज निर्माण उद्योग 2400 करोड़ रुपए से ज्यादा के ऑर्डर जुटाकर बेहतर भविष्य की ओर बढ़ रहा है। इस क्षेत्र की कंपनियों की ऑर्डर बुक का बढ़ता आकार और बड़ी-बड़ी विस्तार योजनाएँ क्षेत्र में मौजूद भारी संभावनाओं को दर्शा रही हैं। बड़े जहाजों से लेकर ऑफशोर क्षेत्रों के जहाजों तक सभी क्षेत्रों में भारतीय कंपनियों की परियोजनाएँ सही रास्ते पर हैं।एबीजी शिपयार्ड और भारती शिपयार्ड के बाद लार्सन एंड टुब्रो, मर्केंटाइल्स और अदानी समूह ने भी इस क्षेत्र में उतरने की तैयारी कर ली है। हालाँकि इस साल की शुरुआत से स्टील के दाम 30 फीसदी बढ़ जाने से कंपनियों के मुनाफे पर दबाव आता दिख रहा है।समुद्री रास्ते से कारोबारी गतिविधियाँ बढ़ने और बड़ी संख्या में पुराने जहाजों के हटने की वजह से दुनिया भर में जहाजों की माँग बढ़ी है। इंटरनेशनल मैरीटाइम ऑर्गेनाइजेशन के मुताबिक वैश्विक व्यापार का 95 फीसदी माल परिवहन समु्द्र के रास्ते होता है। ऐसे में नए जहाजों की माँग बढ़ रही है। आइल एवं गैस एक्सप्लोरेशन में बढ़ोतरी और क्रूड के दामों में तेजी से ऑफशोर श्रेणी में तेल वाहक जहाजों की माँग बढ़ी है। साथ ही वर्ष 2010 तक पुराने जहाजों को बेड़े से हटाने के निर्देश ने भी नए जहाजों की माँग बढ़ा दी है। हालाँकि अपने देश में अभी भी उतने बेहतर और बड़े शिपयार्ड नहीं हैं जितने जापान और कोरिया में हैं। इन देशों की कंपनियों की ऑर्डर बुक पूरी तरह भरी हुई हैं और ये बड़े जहाजों के निर्माण पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं। वजह साफ है कि छोटे जहाजों पर बेहतर मार्जिन नहीं मिलता। ऐसे में लेबर कास्ट कम होने से चीन, भारत, वियतनाम और टर्की जैसे देश तेजी से इस क्षेत्र में उभरे हैं। अपने देश में पहले सरकारी क्षेत्र की कंपनियों के ही शिपयार्ड थे जो निजी, व्यापारिक और सेना के लिए जहाज बनाती थीं, लेकिन नब्बे के दशक में लाइसेंस नीति के नाबूद होने से भारती शिपयार्ड जैसी निजी क्षेत्र की कंपनियाँ भी इस क्षेत्र में उतरीं। हालाँकि शुरुआत में इन कंपनियों का अनुभव अच्छा नहीं रहा क्योंकि उन दिनों एशिया में आर्थिक मंदी थी और जहाजों की माँग बेहद कम थी। निजी शिपयार्ड कंपनियों को सही मायने में वर्ष 2003 के बाद आगे बढ़ने का मौका मिला। दरअसल अन्य क्षेत्र में जहाँ ऑटोमेशन तेजी से हुआ वहीं जहाज निर्माण उद्योग मानव श्रम प्रधान उद्योग हैं और अपने देश में सस्ते और कुशल मजदूर उपलब्ध होने से भारत बड़ी संभावना वाले देश के रूप में उभरा। देश में इस समय 27 शिपयार्ड हैं जिनमें से केवल आठ ही सरकारी क्षेत्र में हैं। सरकारी क्षेत्र में दो बड़ी कंपनियाँ हैं। एक, कोचिन शिपयार्ड और हिंदुस्तान शिपयार्ड। सरकारी कंपनियों के पास घरेलू और विदेशी ऑर्डर समान हैं, जबकि निजी क्षेत्र की कंपनियों के पास 85 फीसदी ऑर्डर निर्यात के हैं। दुनिया भर से मिलने वाले ऑर्डर में डेड वेट टनेज श्रेणी के भारतीय कंपनियों के पास केवल 0.5 फीसदी ही ऑर्डर आते हैं, जिसका बड़ा कारण यह हैं कि भारतीय कंपनियाँ छोटे जहाजों पर ध्यान दे रही हैं, जबकि विदेशी कंपनियों का रुख बड़े जहाजों की ओर रहता है। निजी क्षेत्र की सभी कंपनियाँ अपनी क्षमता के अनुरूप वर्ष 2011 तक पूरी तरह व्यस्त हैं। एबीजी शिपयार्ड और भारती शिपयार्ड के पास अपनी वर्ष 2006-07 की तुलना में 11 से 12 गुना ऑर्डर हैं। ऐसे में हर कंपनी भरपूर संभावनाओं का दोहन करना चाहती हैं। मसलन एबीजी शिपयार्ड ने विपुल शिपयार्ड का अधिग्रहण किया और एक योजना के तहत इसे वेस्टर्न इंडिया शिपयार्ड भी मिल गया। दूसरी ओर, कंपनी अपनी सूरत इकाई का विस्तार कर रही हैं और दहेज में भी एक नई इकाई लगा रही है। भारती शिपयार्ड एल्कोक एशडाउन का अधिग्रहण कर रही है और दाभोल में विस्तार एवं उड़ी में नई इकाई पर काम कर रही है।इस समय एबीजी शिपयार्ड के पास 8277 करोड़ रुपए, पीपावाव शिपयार्ड के पास 4400 करोड़ रुपए, भारती शिपयार्ड के पास 4080 करोड़ रुपए, कोच्चि शिपयार्ड के पास 2000 करोड़ रुपए, हिंदुस्तान शिपयार्ड के पास 2000 करोड़ रुपए, एल्कोक एशडाउन के पास 1200 करोड़ रुपए, टेबमा शिपयार्ड के पास 1182 करोड़ रुपए और एल एंड टी हजीरा के पास 820 करोड रुपए के ऑर्डर हैं। जबकि, रुइया समूह ने 3000 करोड़ रुपए, शीपिंग कार्पोरेशन ने 3000 करोड़ रुपए, मर्केटर मेक मरीन ने 2000 करोड़ रुपए, गुडअर्थ मैरीटाइम ने 1975 करोड़ रुपए और अदानी समूह ने 1000 करोड़ रुपए इस क्षेत्र में निवेश करने की घोषणाएँ की हैं। निवेशक शिपयार्ड उद्योग की कंपनियों में निवेश कर आने वाले दो साल में बड़ा मुनाफा बटोर सकते हैं।*यह लेखक की निजी राय है। किसी भी प्रकार की जोखिम की जवाबदारी वेबदुनिया की नहीं होगी।