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Written By भाषा
Last Modified: नई दिल्ली , शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009 (22:11 IST)

लालकृष्ण आडवाणी का सफरनामा

LK Advani | लालकृष्ण आडवाणी का सफरनामा
नई दिल्ली। लोकसभा में विपक्ष के नेता पद से लालकृष्ण आडवाणी के मुक्त होने के साथ ही भाजपा में एक युग का अंत हो गया। हालाँकि आडवाणी ने दावा किया कि उनके युग का अभी अंत नहीं हुआ है।

आडवाणी को भाजपा संसदीय दल का नेता बनाए जाने से अब पार्टी में पीढ़ीगत बदलाव का रास्ता साफ हो गया है। भाजपा का ‘हिन्दुत्व’ चेहरा 83 वर्षीय आडवाणी का कट्टर नेता के रूप में पार्टी के सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं में सम्मान है। 1984 में केवल दो सीटों वाली पार्टी को 1999 में 182 सीटों तक पहुँचाने का श्रेय आडवाणी को ही दिया जाता है।

पार्टी में ‘लौह पुरुष' के नाम से मशहूर आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की तमन्ना हालाँकि अधूरी ही रही। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया था, लेकिन पार्टी के खराब प्रदर्शन के कारण उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया।

आडवाणी अपने हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा के दम पर भाजपा को नब्बे के दशक में राष्ट्रीय स्तर पर ले आए और अयोध्या आंदोलन के नायक बने। पार्टी में आधे दशक तक आडवाणी पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के बाद दूसरे नंबर पर बने रहे और वह राजग सरकार में उपप्रधानमंत्री भी थे।

भाजपा के कद्दावर नेता आडवाणी हालाँकि हमेशा से ही विवादों में घिरे रहे। संघ परिवार में उनकी किरकिरी उसी समय से शुरू हो गई थी, जब राजग 2004 के चुनाव हार गई थी और उसके बाद 2005 में पाकिस्तान यात्रा के दौरान पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताए जाने पर संघ के दबाव में आडवाणी को भाजपा अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। पाँच बार के लोकसभा सांसद रहे आडवाणी ने 1995 में ही वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था। हालाँकि उस समय पार्टी संगठन पर उनका ही पूर्ण नियंत्रण था ।

उस समय उन्होंने वाजपेयी से कहा था कि केवल वे ही पार्टी के हित को आगे बढाने में सहायक हो सकते हैं। एक साल बाद ही भाजपा पहली बार सत्ता में आई, लेकिन सरकार केवल 13 दिन चली।

वाजपेयी ने 2005 में आडवाणी के आभार को चुकाने के रूप में उन्हें ‘राम’ बताया। यह इस संकेत के रूप में लिया गया कि आडवाणी ही वाजपेयी के उत्तराधिकारी होंगे।

नब्बे के दशक में आडवाणी ने देश भर में कई रथयात्राएँ कीं। पहली यात्रा सोमनाथ-अयोध्या रथयात्रा थी, जिसने देश में राजनीति की हवा बदल दी क्योंकि इस यात्रा ने हिन्दू राष्ट्रवादी भावना को भड़काया और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिर गई।

आडवाणी ने ऐसी आधा दर्जन यात्राएँ कीं। एक अच्छे आयोजक माने जाने वाले आडवाणी अपने समर्थकों से कहते आए कि उनमें ‘मारक क्षमता’ होनी चाहिए ताकि वे स्थिति का मुकाबला कर सकें। आडवाणी को ही श्रेय जाता है कि इसी मारक क्षमता के बूते उन्होंने वाजपेयी के साथ मिलकर कांग्रेस के राजनीतिक एकाधिकार को तोड़ा। (भाषा)