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Written By WD

चंद्रयान की उल्टी गिनती का इंतजार

चंद्रयान की उल्टी गिनती का इंतजार -
चाँद पर जाने वाले देश के पहले मानवरहित स्पेस क्राफ्ट 'चंद्रयान-1' को शुक्रवार को पीएसएलवी रॉकेट से जोड़ दिया गया है। इसे 22 अक्टूबर को सुबह 6:20 पर बंगाल की खाड़ी में स्थित श्रीहरिकोटा स्पेस पोर्ट से लॉन्च किया जाना है।

मिशन मून की उलटी गिनती लॉन्च के 52 घंटे पहले शुरू कर दी जाएगी। सब कुछ सही रहा तो यह 20 अक्टूबर की सुबह चालू हो जाएगी। इसरो के अधिकारियों का कहना है कि फिलहाल फाइनल काउंट डाउन की तैयारियाँ चल रही हैं। सब कुछ संतोषजनक है।

इसरो के प्रवक्ता एस. सतीश ने बताया स्पेस क्राफ्ट के आसपास लगी हीट शील्ड बंद की जा चुकी हैं। पीएसएलवी-सी 11 के सभी टेस्ट हो चुके हैं।

श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन स्पेस सेंटर के एसोसिएट डाइरेक्टर डॉ. एमवाईएस प्रसाद के मुताबिक अगला कदम होगा 1,300 किलो वजनी स्पेस क्राफ्ट को लॉन्च पैड तक ले जाना। यह काम शनिवार सुबह तक किया जाना है। इसके बाद लॉन्च तक कुछ जरूरी टेस्ट किए जाएँगे।

इस अभियान पर बारिश से कोई असर नहीं पड़ेगा। लॉन्च व्हीकल वॉटर प्रूफ है, इसलिए पानी में भीगने के बाद भी उसे समय से लॉन्च किया जा सकेगा, लेकिन अगर तूफान आया तो मुमकिन है कि इसे टालना पड़ जाए। स्पेस सेंटर में सात वैज्ञानिकों की एक टीम अलग-अलग तरीकों से मौसम पर निगाह रखे हुए है। जैसे हालात होंगे उसी हिसाब से फैसला लिया जाएगा।

अंतरिक्ष वैज्ञानिक अगले हफ्ते चंद्रयान-1 के ऐतिहासिक प्रक्षेपण की तैयारी में दिन-रात जुटे हैं और उनका पूरा समुदाय उत्तेजना और आशंका में गोते खा रहा है।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष जी. माधवन नायर ने बताया कि लोग दिन-रात काम कर रहे हैं। लोगों में बहुत उत्तेजना है, लेकिन साथ ही ढेर सारी आशंकाएँ भी हैं। नायर ने बताया कि यह पहला मौका होगा जब कोई भारतीय उपग्रह पृथ्वी की कक्षा से आगे जाएगा और करीब चार लाख किलोमीटर की दूरी तय करेगा।

अंतरिक्ष विभाग की भी जिम्मेदारियाँ निभा रहे नायर ने कहा कि ढेर सारी चुनौतियाँ हैं। किसी जगह हुई एक छोटी-सी गलती भी पूरे अभियान को उलट-पलट सकती है।

उन्होंने कहा कि इसरो इन आशंकाओं को दूर करने की मुहिम में जुटा है। वैज्ञानिकों के दल जाँच कर रहे हैं। इसरो के अधिकारियों के अनुसार श्रीहरिकोटा से देशी तकनीक से निर्मित पीएसएलवी-सी11 के माध्यम से 22 अक्टूबर को प्रक्षेपित किया जाने वाला चंद्र अभियान बहुत जटिल है।

बाईस अक्टूबर को पहला चंद्रयान मिशन - चंद्रयान-1 (सी-वन) सूर्योदय से ठीक दस मिनट पहले लॉन्च कर दिया जाएगा। दूसरे अभियानों की तरह इसे भी स्पेसपोर्ट श्रीहरिकोटा से अंजाम दिया जाएगा।

चंद्रयान भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की सबसे ताजा और महत्वपूर्ण उपलब्धि है। देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम की बुनियाद 1963 में पड़ी थी जब विक्रम साराभाई ने इस दिशा में कदम आगे बढ़ाए थे। आज देशी अंतरिक्ष कार्यक्रम ने अपनी सफलता से न केवल देश में, बल्कि विदेशों में भी झंडे गाड़ दिए हैं। बावजूद इसके भारत के अंतरिक्ष अभियान की कुछ सीमाएँ रही हैं।

इससे पहले तक भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) 40,000 किलोमीटर की दूरी तक ही अपने अभियान को संचालित कर सकता था। चंद्रयान अभियान एक अलग तरह का अभियान है। इस अभियान में 40,000 किलोमीटर से अधिक की दूरी से जटिल उपकरणों को संचालित करना होता है जिनसे सेकंड से भी कम अंतराल के रेडियो सिग्नलों को पकड़ना होता है।

श्रीहरिकोटा एक उच्च तकनीक वाले अंतरिक्ष केंद्र के लिए एकदम उपयुक्त स्थान है। इस केंद्र में कार्यरत तकरीबन एक हजार वैज्ञानिक और तकनीशियन भी मानते हैं कि यह जगह उनके काम के एकदम माकूल है और यहाँ का माहौल उन्हें तनाव से दूर रखता है।

आंध्रप्रदेश के नेल्लोर जिले में स्थित इस छोटे से बैरियर आइलैंड (टापू) को अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़े मुश्किल प्रयोगों को आगे बढ़ाने के लिए ही खासतौर से विकसित किया गया है। यहीं पर सतीश धवन स्पेस सेंटर (एसएचएआर) बनाया गया है, जिसका इस्तेमाल इसरो रॉकेट प्रक्षेपण के लिए करता रहा है। यह देश का एकमात्र सैटेलाइट लॉन्च सेंटर है, लेकिन रॉकेट लॉन्च करने में हमेशा अनिश्चितता बनी रहती है। अगर प्रयोग नाकाम होता है तो रॉकेट समंदर में गिरा दिया जाता है।

मिशन के महाप्रबंधक वी. कृष्णामूर्ति कहते हैं कि जब एक बार काउंट डाउन खत्म हो जाता है तब कुछ भी नहीं किया जा सकता। हम इसको मार्ग में भटकाव या किसी और वजह से नष्ट नहीं करते। हम इसको केवल एक ही स्थिति में नष्ट करते हैं जब हमें लगे कि इसकी वजह से कुछ नुकसान पहुँच सकता है।

हालाँकि लॉन्च के वक्त ही सी-वन के असफल होने की संभावना नहीं है, पर पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट) को अच्छी तरह से जाँचा-परखा जा चुका है। अंतरिक्ष में यह 12 चक्कर लगा चुका है। सी-वन का मकसद ऑरबिट में दो साल तक डेढ़ घनमीटर का क्यूब बनाना है। इस पर कई प्रयोग किए जाएँगे और डाटा भी एकत्र किए जाएँगे। 11 पे-लोड वाले इस मानवरहित अभियान में मून इंपैक्ट प्रोब भी शामिल है जो चंद्रमा की सतह पर भारतीय तिरंगे के रंग छोड़ देगा। देश के लिए यह एक ऐतिहासिक मौका होगा।

इस प्रोजेक्ट के मिशन हेड एम. अन्नादुरई 21 जुलाई से ही इसकी तैयारियों में लगे हैं जब लॉन्च व्हीकल को जोड़ने का काम शुरू हो गया था। सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के निदेशक एमसी दाथान कहते हैं कि अन्नादुरई की टीम पूरी तरह से जी जान से अपने काम में जुटी है।

नीचे से लेकर ऊपर तक सभी स्तर के लोग 24 घंटे काम में लगे हैं। इन लोगों को कोई लक्ष्य नहीं दिया गया है बल्कि इन्होंने खुद अपने लिए एक लक्ष्य निर्धारित किया है और उसी को प्राप्त करने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहे हैं।

दरअसल पृथ्वी से 3,84,000 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चंद्रमा अंतरिक्ष जगत में मानव की उत्सुकता का अहम केंद्र रहा है और मानव की अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़ी गतिविधियाँ भी ज्यादातर इसी उपग्रह तक ही सिमटी हुई हैं।

अमेरिका, रूस (तत्कालीन सोवियत संघ), चीन और जापान ने कई बार चंद्रमा पर अपने कई अभियान चलाए हैं। इनमें मानव सहित और मानवरहित अभियान शामिल हैं। अमेरिका और रूस तो रोबोटिक स्पेसक्राफ्ट भी चंद्रमा पर उतार चुके हैं। अमेरिका ने तो अपने कुछ खगोलशास्त्रियों को भी चंद्रमा की जमीन पर उतारा।

यह मई 1999 की बात है जब पीएसएलवी-सी 2 के लॉन्च के मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चंद्रमा पर मानव मिशन के बारे में बात की थी। वाजपेयी ने इसरो को इस मिशन पर आगे बढ़ने के लिए हरी झंडी दिखा दी और इस मिशन को नाम दिया गया 'चंद्रयान'। इसको एक अंक का नाम इसलिए दिया गया क्योंकि यह कई तरह के अभियानों में अपनी तरह का यह पहला अभियान है। इसके अलावा सी 2 योजना पर काम चल रहा है।

सी-वन इसरो के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और यह इसरो के लिए तकनीकी विशेषज्ञता विकसित करने में अहम भूमिका निभा रहा है। साथ ही, वैश्विक वैज्ञानिक सहयोग में भी इसकी खास भूमिका रहेगी। इसमें 11 पेलोड भेजे जाएँगे जिसमें ब्रिटेन, जर्मनी, बुल्गारिया से एक-एक, अमेरिका से दो और भारतीय वैज्ञानिकों के डिजाइन किए हुए 5 पे-लोड होंगे।

अगर यह कामयाब होते हैं तो यह काफी डाटा भेजने में सक्षम होंगे जिससे त्रिआयामी नक्शे, जल की उपलब्धता, खनिजों और दूसरे संसाधनों की उपलब्धता का पता लगाने में मदद मिलेगी। इससे कई अनसुलझे रहस्यों से पर्दा उठने की उम्मीद लगाई जा रही है।

इसरो के अध्यक्ष जी. माधवन नायर कहते हैं कि कई चंद्र अभियानों के बावजूद अभी तक भी बहुत कुछ नहीं पता लगाया जा सका है। तीस अरब साल पहले चंद्रमा की उत्पत्ति की अवधारणा को नकारा जा चुका है। इस मिशन में ल्यूनर सरफेस और दूसरे रसायनों की मदद से इस दिशा में कुछ अहम जानकारियाँ मिल सकती हैं।

इस प्रोजेक्ट पर काम करने वाले वरिष्ठ वैज्ञानिक वीके श्रीवास्तव का कहना है, 'भारत का यह मानवरहित मिशन अनूठा है। इसकी वजह यह है कि अब तक चंद्रमा के एक ही हिस्से की पड़ताल की गई है। इस बार हम उसके ध्रुवीय हिस्सों पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। हम चंद्रमा का एक त्रिआयामी एटलस भी बनाना चाहते हैं जिससे वहाँ की जमीन का नक्शा तैयार करने में मदद मिलेगी।

दरअसल इस मून इंपैक्ट प्रोब के जरिए इसरो को उन तकनीकों से लैस करना है जिससे चंद्रमा पर मानव अभियान भी संभव हो सके। इस मिशन का दूसरा लक्ष्य चंद्रमा पर हीलियम 3 का पता भी लगाना है जो फ्यूजन ऊर्जा के बारे में चल रहे प्रयोगों के लिए बेहद जरूरी होता है।

हीलियम 3 धरती पर बहुत कम पाया जाता है और ऐसा माना जाता है कि यह चंद्रमा बहुत ज्यादा मात्रा में मौजूद है। हालाँकि यह कोई जरूरी नहीं है कि इस ऊर्जा की लागत भी कम पड़े लेकिन अगर हीलियम 3 की मौजूदगी का पता चले तो इससे चंद्रमा पर मौजूद संसाधनों के लिए काफी दिलचस्पी बढ़ जाएगी।

'इसरो' के पूर्व निदेशक यूआर. राव कहते हैं कि चंद्रमा पर हीलियम 20 से 30 लाख टन मौजूद है। अगर चंद्रमा पर हीलियम 3 का पता चल जाए तो धरती पर लगभग 8,000 सालों तक ऊर्जा उत्पादन में इससे मदद मिलेगी।

'इसरो' बड़े स्तर पर संचार उपग्रहों और दूर संवेदी उपग्रहों के लिए महत्वाकांक्षी कार्यक्रम तो चलाता ही रहता है। 'इसरो' के लिए चंद्रयान-1 बेहद खास और मुश्किल भरा मिशन भी है। इस प्रोजेक्ट पर सरकार से इजाजत लेने के लिए काफी पहले से कोशिशें जारी थीं।

वर्ष 1999 में ही 'इसरो' के चेयरमैन के. कस्तूरीरंगन इस प्रोजेक्ट के लिए प्रयास कर रहे थे। नवंबर 2003 में जब जी. माधवन नायर ने इसरो की कमान थामी, तब इस प्रोजेक्ट को सहमति मिली। इस प्रोजेक्ट पर लगभग चार साल पहले काम शुरू हो गया था।

जब बेंगलुरु में इसरो उपग्रह केंद्र में स्वदेशी तकनीक के साथ चंद्रयान-1 अंतरिक्षयान पर काम शुरू किया गया तब विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर (वीएसएससी), लिक्विड प्रॉपल्शन सिस्टम सेंटर और तिरुवनंतपुरम के इसरो इनर्शियल सिस्टम यूनिट की भी मदद ली गई।

इसके अलावा स्पेस एप्लीकेशन सेंटर, अहमदाबाद के फिजिकल रिसर्च लैबोरेटरी और बेंगलुरु की इलेक्ट्रो-ऑप्टिक सिस्टम लैबोरेटरी जैसे संस्थानों की भी भरपूर मदद ली गई। जैसा कि पहले जिक्र किया जा चुका है कि 1380 किलोग्राम भार वाला अंतरिक्षयान, पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) के जरिए प्रक्षेपित किया जाएगा। इस चंद्रयान के जरिए 11 वैज्ञानिक प्रयोग किए जाएंगे।

जब 8 नवंबर को यह उपग्रह चंद्रमा की सतह से 100 किलोमीटर ऊँचे पोलर ऑर्बिट में होगा, तब मून इंपैक्ट प्रोब को चंद्रमा की सतह पर उतारा जाएगा। यह मून इंपैक्ट प्रोब चंद्रमा की सतह की बहुत नजदीक से तस्वीर लेगा और यह इन तस्वीरों और डाटा को धरती पर भेजेगा।

दूसरे पेलोड्स वहाँ अपने काम को दो साल तक जारी रखेंगे और उन्हें ऊर्जा मिलेगी सूर्य की रोशनी से। इस तरह की तस्वीरों और डाटा रिले का प्रबंधन, बेंगलुरु के बयालालु स्थित डीप स्पेस नेटवर्क सिस्टम के जरिए किया जाएगा।

इस सैटेलाइट का द्रव्यमान है 550 किलोग्राम। गौरतलब है कि चंद्रमा पर कम गुरूत्वाकर्षण के कारण भार कम हो जाता है लेकिन द्रव्यमान उतना ही रहता है। जब यह चंद्रयान चंद्रमा के कक्ष में होगा तब इसमें 11 पेलोड्स होने के बावजूद भी इसका वजन 550 किलोग्राम का हो जाएगा और यह बात बहुत अच्छी है। चंद्रयान-1 पीएसएलवी के एक नए मॉडल के जरिए लॉन्च किया जाएगा। चार स्तरों पर काम करने वाले इस नए पीएसएलवी सी 11 के साथ छह रॉकेट भी होंगे।

वैसे अगर लागत की बात करें तो यह 400 करोड़ से भी कम है। नासा के जरिए अंतरिक्ष में भेजे जाना वाला कोई भी अंतरिक्ष यान जो केवल 40,000 किलोमीटर की दूरी तय करके वापस भी आ जाता है, उसकी लागत भी इससे पाँच गुनी ज्यादा होती है। इस 386 करोड़ रुपए की लागत वाले प्रोजेक्ट में लॉन्च व्हीकल ही 100 करोड़ रुपए का है।

पूरे मिशन का नियंत्रण करने वाले डीप स्पेस नेटवर्क के लिए 100 करोड़ रुपए लगेंगे और उपग्रह के साथ इसके परिचालन का खर्च तकरीबन 185 करोड़ रुपए का होगा। इसरो के एक प्रवक्ता का कहना है कि आपको यह जानकर बेहद हैरानी भी हो सकती है कि इस चंद्रयान मिशन की 400 करोड़ रुपए की लागत तो इसरो के सालाना बजट का महज 10 फीसदी हिस्सा ही है।

हमने घरेलू उपग्रह नेटवर्क के लिए जो निवेश किया है उससे हमें भविष्य में भी अंतरिक्ष मिशन के लिए भी मदद मिलेगी और इसमें चंद्रयान 2 का मिशन भी शामिल है।

दूसरे सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों की तरह इसरो को भी बहुत कड़े नियंत्रण के साथ ही काम करना पड़ता है। इसरो से जुड़े लोगों का कहना है कि वास्तव में किसी अंतरिक्ष अनुसंधान से जुड़ी एजेंसियों के लिए किसी प्रोजेक्ट का काम निर्धारित बजट में पूरा करना बेहद मुश्किल हो जाता है।

इसरो छोटे-मोटे कामों के लिए निजी क्षेत्र की मदद भी लेती है ताकि वह अपने काम की रफ्तार को और बढ़ा सके। सबसे बड़ी बाधा तो दूसरे पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद लगाए गए प्रतिबंध से पैदा हुई क्योंकि इसकी वजह से तकनीकों के हस्तांतरण पर रोक लगा दी गई।

इसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय पे-लोड्स स्वदेशी तकनीकों के जरिए बनाए जाने लगे। वर्ष 2006 में इन्सैट 4 सी की असफलता ने रफ्तार को थोड़ा धीमा कर दिया। शुक्र की बात है कि मुश्किलों के दौर बीत चुके हैं। इसरो और भारतीय तकनीकी संस्थानों को भी सी-1 से बेहद उम्मीदें हैं।

निश्चित तौर पर यह भारत को अंतरिक्ष अनुसंधान के प्रयोगों से जुड़ा बेहद गंभीर खिलाड़ी माना जाएगा। इससे बेहतर वैज्ञानिकों और इंजीनियरों का आकर्षण भी बढ़ेगा। इससे दूसरे ग्रहों मसलन मंगल पर भी अपने अंतरिक्ष मिशन को जारी रखने की राह बनेगी। भारत तो अब इस खेल का एक खास दावेदार होगा। बहुत जल्द बुधवार से ही काउंटडाउन शुरू होने वाला है और सबको इस दिन का बहुत इंतजार है।