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Written By भाषा

आम आदमी चटनी-रोटी से तो न जाए

आम आदमी चटनी-रोटी से तो न जाए -
आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार सरकार को अगला बजट पेश करते समय अगले साल होने वाले आम चुनाव के मद्देनजर आम आदमी और किसानों को लाभ पहुँचाने के साथ ही अर्थव्यवस्था के विकास की गाड़ी को पटरी पर बनाए रखने की चुनौती का सामना करना होगा।

दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स (डीएसई) के प्रोफेसर डॉ. आदित्य भट्टाचार्य ने कहा आम लोग जो महज 5 से 6 हजार रुपए कमाते हैं, उनके लिए मुख्य मुद्दा रोटी, दाल, चावल, सब्जी आदि की आपूर्ति का है। इस आम आदमी को आयकर, शेयर बाजार, कंपनियों के गठजोड़, नैनो कार आदि से कोई खास मतलब नहीं होता है।

उन्होंने कहा कि आटा अगर 16 से 20 रुपए किलो है और लहसुन 150 रुपए किलो है तो आम आदमी तो चटनी-रोटी से भी गया। पिछले काफी समय से मुद्रास्फीति की दर चार से पाँच प्रतिशत के बीच बनी हुई है तो आम आदमी के लिए महँगाई मुख्य मुद्दा है।

दूसरी ओर राष्ट्रीय लोक वित्त नीति संस्थान के निदेशक एम. गोविंद राव ने कहा कि हर बजट का कोई मकसद होता है। केंद्र सरकार बजट बनाती है, बजटीय राशि का आवंटन करती है, लेकिन उस स्थान पर जाकर उसे लागू नहीं कर सकती है। आम आदमी तक बजट का फायदा सरकारी योजनाओं के जरिये ही पहुँचता है।

आर्थिक विश्लेषकों के अनुसार लोगों की रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुएँ मूल रूप से कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई होती हैं तो अगर किसानों और कृषि क्षेत्र की स्थिति अच्छी होगी तो स्वत: ही आम लोगों की स्थति सुधरेगी। बजट में इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है।

भट्टाचार्य के अनुसार कृषि क्षेत्र से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर लगभग 70 प्रतिशत लोग जुड़े हुए हैं। इनमें 84 प्रतिशत सीमांत किसान हैं, जिनकी खेती मुनाफे की नहीं होती है। एक तरफ महँगाई की मार तो दूसरी तरफ कर्ज का बोझ किसानों पर भारी पड़ रहा है।

विश्लेषकों का कहना है कि आम जनता को लगता है कि बजट केवल कॉरपोरेट कंपनियों और बड़े लोगों के लिए बनता है और आम लोगों की इसमें नुमाइंदगी कम ही होती है। आम लोगों के लिए बजट में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इसमें सामाजिक योजनाओं पर कितना खर्च किया जाता है।

भट्टाचार्य ने कहा कि कृषि क्षेत्र के 3.8 प्रतिशत की गति से बढ़ने की उम्मीद व्यक्त की गई है। हालाँकि इस बीच किसानों की स्थिति में सुधार देखने को नहीं मिल रहा है।

एम. गोविंद राव ने कहा कि किसान गाँव के साहूकारों से ऊँचे ब्याज पर कर्ज लेते हैं। सरकार ने किसानों को साहूकारों के चंगुल से निकालने के लिए फॉर्म क्रेडिट (कृषि ऋण) योजना बनाई है।

विश्लेषकों के अनुसार किसानों की दशा में सुधार और उन्हें आत्महत्या के जाल से निकालने के लिए बजटीय कृषि ऋण की व्यवस्था को आम किसानों की पहुँच के दायरे में लाने की जरूरत है।

गोविंद राव ने कहा कि कृषि ऋण को और व्यापक आधार प्रदान करने के लिए सी. रंगराजन के नेतृत्व में गठित कमेटी 'ऑन फाइनेंशियल इंक्लूजन' ने हाल में अपनी रिपोर्ट सरकार को पेश की है। इसमें कृषि क्षेत्र में संगठित ऋण व्यवस्था बनाने और ऋण पर ब्याज दर को व्यवहार्य बनाने के संबंध में सिफारिशें की गई हैं।

विश्लेषकों का मत है कि बजट में कृषि बीमा नीति को समग्र रूप से आगे बढ़ाने की जरूरत है। इससे फसलों को नुकसान के दौरान किसानों को सामाजिक सुरक्षा प्राप्त हो सकेगी और आत्महत्या की घटनाओं में भी कमी आएगी।

आर्थिक विशेषज्ञों और समाजशास्त्रियों का मत है कि खेती को व्यवसाय के रूप में समग्र रूप से बीमा से जोड़ने के अलावा कर्ज नहीं चुकाने की स्थिति में जमीन छीनने के प्रावधान को भी हटाने की जरूरत है।

भट्टाचार्य का कहना है कि शहरों में लोगों को क्रेडिट कार्ड के लिए लगातार फोन आते रहते हैं लेकिन किसानों और गाँवों के लोगों को तो कभी ऐसी कॉल नहीं आती। हालाँकि सरकार का किसानों को क्रेडिट कार्ड देना एक अच्छी पहल है।