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Written By ND

गाँधीगिरी बौद्धिक लुच्चापन-केडिया

Gandhism | गाँधीगिरी बौद्धिक लुच्चापन-केडिया
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के शरीर में लगी गोलियाँ गोडसे के रिवॉल्वर की नहीं थीं। अदालत के फैसले में इस बात का उल्लेख उनकी हत्या पर कई सवाल खड़े करता है। गाँधीगिरी शब्द बौद्धिक लुच्चापन है। फिल्म में इसका प्रयोग कोई खास बात नहीं है। कुछ इस तरह के सवाल उठाए हैं गाँधीवादी चिंतक प्रो. कुसुमलता केडिया ने।

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सुश्री केडिया गाँधी विद्या संस्थान वाराणसी की निदेशक हैं। समाज विज्ञान व अर्थशास्त्र की जानकार सुश्री केडिया मंगलवार को संस्था प्रज्ञा प्रवाह द्वारा गाँधीजी की पुस्तक "हिन्द स्वराज्य" के शताब्दी वर्ष पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने शहर में आई हैं। इस मौके पर उनसे चर्चा की गई। प्रस्तुत है चर्चा के कुछ अंश-

आप जिस कार्यक्रम में आई हैं, वह संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की है। गाँधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को संघ की विचारधारा से प्रेरित माना जाता है। क्या गाँधीवादी लोगों ने संघ को स्वीकारना प्रारंभ कर दिया है?
एक अखबार में दी गई जानकारी के अनुसार गाँधी हत्याकांड के फैसले में उल्लेख है कि गाँधीजी को जो गोलियाँ लगी थीं, वे गोडसे के रिवॉल्वर की नहीं थीं। गोडसे की स्वीकारोक्ति भी कानूनी रूप से वैध नहीं है। इस हत्याकांड में चश्मदीद गवाह के परीक्षण में मनु व आभा की गवाही भी नहीं हुई थी। गोली रिवॉल्वर की नहीं बंदूक की थी। ऐसी परिस्थितियों के बाद गाँधीजी की हत्या के इस फैसले पर देश में व्यापक चर्चा नहीं होना दुर्भाग्य की बात है।

न गाँधीवादी और न ही कोई अन्य संगठन सच को सामने लाने का प्रयास कर रहा है। दूसरा पहलू यह है कि हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध तो लगा दिया गया था, पर एफआईआर दर्ज नहीं की गई थी। बाद में इसे बिना शर्त के समाप्त कर दिया गया था। संघ कहाँ दोषी था इस बात की जानकारी नहीं है।

आपने इसके लिए क्या प्रयास किए?
कई बार गाँधीवादी लोगों को फैसले की प्रति के लिए पत्र लिखे।

गाँधीगिरी के नाम पर राजनीति चल रही है। क्या युवाओं के बीच गाँधी को लाने का यह सही तरीका है?
गाँधीगिरी शब्द बौद्धिक लुच्चापन है। फिल्म में इसका उपयोग खास बात नहीं है, लेकिन शासक वर्ग द्वारा इसे सिर चढ़ाना बौद्धिक दिवालियापन है। इसकी बजाय युवाओं को राष्ट्रपिता की देशभक्ति व स्वाभिमान से परिचित कराया जाए तो उन्हें सही मार्गदर्शन मिलेगा।

गाँधीजी के प्रखर हिन्दुत्व के चेहरे को क्यों नहीं उजागर किया गया?
भारत के विभाजन के बाद देश में प्रचंड हिन्दू आक्रोश जागा था। जनमत भी शरणार्थियों की विपदा देख कर शासन के विरुद्ध हो गया था। शासन में बने रहने के लिए ऐसे तत्वों के समर्थन की जरूरत थी, जिनकी हिन्दू संवेदना क्षीण हो, किंतु देश को भी स्वीकार हो। इसलिए प्रयोजनपूर्वक गाँधीजी के प्रखर हिन्दुत्व के चेहरे को ढँका गया। मशीन विरोध, वकील विरोध को उभारा गया, ताकि गाँधी अप्रासंगिक हो जाएँ।

देश में नेता पवित्र खादी को पहन कर काले कारनामे कर रहे हैं, जबकि आम आदमी इससे दूर है?
नेताओं ने खादी छो़ड़ दी है। बहुत सारे नेता अब इसका उपयोग डिजाइनर ड्रेस के रूप में कर रहे हैं। पहले खादी राजनीतिक पहचान होती थी। आजकल फैशन का पर्याय बनती जा रही है।

देश के सरकारी ऑफिसों में गाँधीजी की तस्वीर के नीचे खुलेआम रिश्वत ली जा रही है। गाँधीवादी इसे हटाने की माँग क्यों नहीं करते हैं?
रिश्वत, व्यवस्था के नंगेपन को उजागर कर रही है। सरकारी कार्यालयों में गाँधीजी की तस्वीर लगी होने के कारण ही देश ठाठ से चल रहा है। यहाँ पर गाँधीजी के साथ स्वामी विवेकानंद व सुभाषचंद बोस की तस्वीर भी लगा देना चाहिए, जिससे नंगापन दिखाने वालों को कुछ शर्म आए।

गरीबी दूर करने व गाँवों के विकास में गाँधी दर्शन कितना प्रासंगिक है?
देश में पिछले 60 सालों में आर्थिक समृद्धि बढ़ी है। गरीबी के हल के लिए गाँधी के सिद्धांतों की जरूरत नहीं है। शासक वर्ग को संयमित व संतुलित कर दिया जाए तो देश संपन्न हो जाएगा।

कांग्रेस ने पिछले 20 सालों में गाँधी के ग्राम स्वावलंबन के सिद्धांत को लागू नहीं किया है। उन्होंने पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। यह ग्राम स्वराज्य से भिन्न है। इससे गाँवों का विकास नहीं विनाश हुआ है।

गाँधीवादी सिद्धांतों के बारे में आप क्या सोचती हैं?
देश का शासक वर्ग गाँवों को मजबूत करने की बजाए शहरों को मजबूत करने में लगा है। गाँधीजी के विचारों के विपरीत माहौल है, जबकि प्राणवान (देश व समाज को चलाने वाला) वर्ग गाँधी परंपरा के अनुरूप कार्य कर रहा है। (नईदुनिया)