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Written By विष्णुदत्त नागर
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:24 IST)

न सत्यम्‌, न शिवम्‌, न सुंदरम्‌

न सत्यम्‌, न शिवम्‌, न सुंदरम्‌ -
शुक्रवार को वित्तमंत्री पी. चिदंबरम के बजट भाषण प्रस्तावों और वित्तीय मदों के प्रावधानों से यह आभास हुआ कि आशाएँ धोखेबाज होती हैं, लेकिन आशंकाएँ मिथ्या नहीं होतीं।

जब वित्तमंत्री ने चालू वर्ष की समीक्षा में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश और कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों को निजीकरण के हवाले करने को रेखांकित किया (और कृषि मंत्री शरद पवार ने समय-समय पर ठेके की खेती का पक्ष लिया) और बजट में जिस तरह से वायदा बाजार में करेंसी को प्रवेश कराया, उसके कारण पुनः तार्किक निष्कर्ष की ओर मुड़ते हुए यह आशंका होती है कि प्रकारांतर से क्रिकेट की तरह महत्वपूर्ण क्षेत्रों की नीलामी की तैयारी हो रही है, लेकिन बजट एक दिन का खेल नहीं, बल्कि कुछ लम्हों की गलतियों को कई पीढ़ियों तक झेलना पड़ता है।

आम लोगों के लिए बजट में जो भी सामाजिक योजनाएँ और देश के आर्थिक विकास के लिए अधोसंरचनात्मक मूल आवश्यकताओं के लिए प्रावधान किए गए हैं अथवा विभिन्न मदों को आँकड़ों के माध्यम से श्रृंगार किया गया है, उनमें सत्य और कल्याण गौण हो गया है।

न सत्यम्‌ : वित्तमंत्री चिदंबरम ने नए वर्ष के पौने छः लाख करोड़ रुपए के गैर योजना खर्च 1 लाख 33 हजार करोड़ रुपए का राजकोषीय घाटा और 55 हजार करोड़ रुपए का राजस्व घाटा दर्शाया है, उसमें बिना असत्य बोले सत्य छिपा लिया गया है।

वास्तविकता यह है कि 27 लाख करोड़ रुपए के ब्याज भुगतानों में वह राशि नहीं दिखाई गई, जो बॉण्ड और प्रतिभूतियों के रूप में सरकार की देयता बढ़ाते जा रहे हैं। अकेली ऑइल कंपनियों के सरकार ने 71 हजार करोड़ रुपए के बॉण्ड इश्यू किए हैं।

इतना ही नहीं, वित्त मंत्री ने पुनः वित्तीय चतुराई दिखाते हुए चालू वर्ष के संशोधित अनुमानों के आँकड़ों के प्रावधानों के कम खर्च को आधार बनाकर दावा किया है कि उन्होंने 2008-2009 के बजट में विकास, बुनियादी ढाँचा और जनकल्याण के कार्यक्रमों की योजनाओं की मदों में वृद्धि कर दी। सचाई यह है कि चालू वित्त वर्ष में अनेक मदों पर अनुमानों से कम खर्च हुआ।

वास्तव में तुलना चालू वर्ष के प्रावधानों से की जाना चाहिए, न कि चालू वर्ष के संशोधित अनुमानों से। नतीजा यह होगा कि बजट प्रावधानों में न तो सही वृद्धि परिलक्षित होती और न ही वे कारण सामने आते हैं, जिनके कारण चालू वर्ष की इन मदों पर खर्च कम होगा। किसानों को 60 हजार करोड़ रुपए की कर्ज माफी की राशि का प्रावधान कहाँ से होगा, यह स्पष्ट नहीं है।

न शिवम् : वित्त मंत्री ने बजट भाषण में यह नहीं बताया कि चालू वर्ष में अनेक मंत्रालयों ने 2007-2008 बजट में प्रदत्त राशि को समय से खर्च नहीं किया है। वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार कुछ मंत्रालय ऐसे भी हैं, जिन्होंने नई योजनाओं पर एक धेला भी खर्च नहीं किया है। खास बात यह है कि देश की जनता से वसूले जा रहे उपकर से भरे प्रारंभिक शिक्षा कोष, केन्द्रीय सड़क कोष और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कोष से इस बार एक भी रुपया खर्च नहीं हुआ है।

नागरिक उड्डयन जैसे मंत्रालय भी हैं, जिन्होंने मात्र 5 प्रतिशत खर्च किया है। नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने मात्र 5 प्रतिशत, डाक विभाग ने 10 प्रतिशत, संचार विभाग ने 12 प्रतिशत धन खर्च किया। उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने 14 प्रतिशत, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने 29 प्रतिशत, विदेश मंत्रालय ने 20 प्रतिशत, खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय ने 37 प्रतिशत, भारी उद्योग मंत्रालय ने 13 प्रतिशत, गृह मंत्रालय ने 30 प्रतिशत, पुलिस विभाग ने 43 प्रतिशत और गृह मंत्रालय के अन्य खर्चे के लिए 52 करोड़ रुपए में से एक भी रुपया खर्च नहीं किया।

शिक्षा पर अधिक धन खर्च करने का ढोल पीट रही सरकार स्कूली शिक्षा पर 45 प्रतिशत और उच्च शिक्षा पर 36 प्रतिशत ही खर्च कर पाई है।
खास बात यह है कि शिक्षाकोष से इस बार एक भी रुपया खर्च नहीं हुआ।

यह सही है कि वित्त मंत्री ने कर छूट की सीमा बढ़ाकर 1.5 लाख रुपए, महिलाओं की 1.80 लाख रुपए और वरिष्ठ नागरिकों की 2.25 लाख रुपए कर दी है। साथ ही कर ढाँचे में परिवर्तन करते हुए चार स्लैब बना दिए हैं, लेकिन पिछले छः महीने से मंदी की छाया झेल रहे कार्पोरेट जगत की कर की दर के साथ सरचार्ज को यथावत रखने की घोषणा से निराशा हुई।

सेवा कर का दायरा बढ़ाते हुए कर योग्य सीमा को 8 लाख से बढ़ाकर 10 लाख रुपए कर दिया, लेकिन साथ में उन्होंने चार नई सेवाओं को सेवा कर के दायरे में ला दिया। निसंदेह, वित्त मंत्री ने कोशिश की कि बजट को ऐसा समावेशी रूप दिया जाए, जिसमें सभी वर्गों का भला हो, लेकिन बजट भाषण के दौरान 'शहर का बहुत बड़ा हिस्सा परकोटे के बाहर' रह गया।

सीमेंट और स्टील की कीमतों पर तो चिंता व्यक्त की, लेकिन इन उद्योगों में पनप रही एकाधिकारी प्रवृत्ति का संकेत देने के अलावा उन्होंने किसी प्रकार के अंकुश को रेखांकित नहीं किया।

वित्त मंत्री ने बजट में नारियल पानी, चाय-कॉफी मिक्सर, छोटी कार, जवाहरात, उर्वरक, दवाइयाँ, दुपहिया वाहन, पेपर, प्रिंटिंग और आईटी उपकरणों इत्यादि को अप्रत्यक्ष करों में राहत देने की घोषणा की, लेकिन स्थिति यह है कि बाजार में आम आदमी द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं पर वित्त मंत्री द्वारा किए गए कर की कमी का लाभ नहीं मिल पाता।

सरकार के पास कोई भी तंत्र नहीं है, जो यह सुनिश्चित कर सके कि सरकार की कल्याण भावना बाजार में परिलक्षित हो। औषधि उद्योगों के साथ अन्य उत्पादों के उत्पाद शुल्क की दर 16 प्रतिशत से घटाकर 8 प्रतिशत कर दी गई है, लेकिन आम आदमी को भरोसा नहीं होता कि उसे दवाइयाँ सस्ती मिलेंगी।

अब तक यह परम्परा रही थी कि वित्त मंत्री बजट प्रस्तुत करते समय ही लघु उद्योगों की आरक्षित सूची से कुछ वस्तुएँ बाहर करने की घोषणा करते थे, लेकिन इस बार बीस दिन पहले ही केन्द्र सरकार ने बाल पेन, दंत मंजन, कागज, लिफाफे, बेग, पेस्ट्री, लेमन जूस, लासंजेस, इलेक्ट्रिक प्रेस, घरेलू काम में आने वाली पीवीसी के तार इत्यादि लघु उद्योगों की आरक्षित श्रेणी से छीन लिए।

इस निर्णय के बाद अब केवल ऐसी 35 चीजें ही रह गई हैं, जिनका उत्पादन केवल लघु क्षेत्र की इकाइयॉं कर सकती हैं। ज्ञातव्य है कि वर्ष 1990 के दशक में शुरू आर्थिक उदारीकरण की नीति के बाद से लघु उद्योगों की आरक्षित सूची छोटी करने की प्रक्रिया वस्तुओं को बाहर करने के साथ तेज हुई। 2006 और 2007 में इसमें से क्रमशः 180 और 212 उत्पादों को और निकाल दिया गया, जिससे इसमें 114 उत्पाद बचे थे।

न सुन्दरम् : सरकार ने चालू वित्त वर्ष में किसानों के लिए खेती के लिए मिलने वाले ऋणों को दोगुना कर पिछले वर्ष के मुकाबले 2 लाख 25 हजार करोड़ रुपए की राशि निर्धारित की थी। वित्त मंत्री की घोषणा के अनुसार नए बजट से एक हैक्टेयर तक के सीमांत किसानों और एक से दो हैक्टेयर तक के छोटे किसानों को दिसंबर 2007 तक के ऋणों पर पूर्ण मुक्ति मिलेगी और शेष किसानों के लिए एक समय निपटान के साथ रिबेट का भी लाभ दिया जाएगा।

ज्ञातव्य है कि प्रधानमंत्री ने विदर्भ के किसानों के लिए 3750 करोड़ रुपए का भी राहत पैकेज जारी किया था। नऐ बजट में किसानों के लिए 60 हजार करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान किया गया है, लेकिन हकीकत यह है कि विदर्भ में आत्महत्याओं की संख्या घटने की बजाय बढ़कर दोगुना हो चुकी है। पहले हर आठ घंटे में एक किसान आत्महत्या करता था, लेकिन अब हर चार घंटे में एक किसान के खुदकुशी की खबरें आने लगी हैं।

ऐसे में यह अपेक्षा की जा रही थी कि सरकार मरते हुए खेतों और रोते हुए किसानों की जान बचाने का कोई नुस्खा जरूर खोज निकालेगी। हकीकत यह है कि कर्ज चुका पाने में अक्षम होना ही उनके लिए जानलेवा साबित हो रहा है। कर्ज समस्या का समाधान नहीं खुद एक समस्या है। इसलिए सरकार को कर्ज चुकाने के पैकेज के अलावा किसानों को उनकी उपज के लाभकारी मूल्य मिलने, सिंचाई, उर्वरक, बीज सस्ती कर लागत में कमी करने जैसे नीतिगत निर्णय भी लेने होंगे। वित्त मंत्री कृषि से जुड़े प्रसंस्करण उद्योगों को भी भूल गए।

वित्त मंत्री ने नए बजट में कृषि क्षेत्र के लिए अनेक घोषणाएँ कीं, लेकिन अब तक का अनुभव यह रहा है कि सरकार ने पिछले सालों में खेती और किसानों के लिए काफी योजनाओं का जो प्लान तैयार किया, उसमें कई योजनाएँ ऐसी रहीं, जो समय रहते कार्यान्वित नहीं हो पाई। कृषि मंत्रालय के अधिकारियों ने प्लान तो तैयार किए, लेकिन वित्त मंत्रालय योजना आयोग से लेकर पीएमओ के बीच चर्चा में वर्षों लग गए।

यहाँ तक कि कैबिनेट में योजना की मंजूरी के बाद पैसा मिलने तक में दो-दो साल लगे। 15 योजनाएँ, जिनका काम किसानों को तत्काल लाभ देना था, लेकिन उनकी सुस्त चाल देखकर नहीं लगता कि सरकार किसानों के दर्द को लेकर कहीं गंभीर थी। 2001 में जिन योजना को तैयार करके 10वीं योजना में लाया गया, उनमें 2004 तक सिर्फ तीन योजनाएँ मंजूर हो पाईं। 2005 तक 4 योजनाएँ मंजूर हुईं। 7 योजनाएँ 2006 तक मंजूर हुईं।

आम लोग जो महज 5 से 6 हजार रुपए कमाते हैं, उनके लिए मुख्य मुद्दा रोटी, दाल, चावल, सब्जी आदि की आपूर्ति का है। इस आम आदमी को आयकर, शेयर बाजार, कंपनियों के गठजोड़, नैनो कार आदि से कोई खास मतलब नहीं होता है। आटा अगर 16 से 20 रुपए किलो है और लहसुन 150 रुपए किलो है तो आम आदमी तो चटनी-रोटी से भी गया।

कृषि क्षेत्र से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर लगभग 70 प्रतिशत लोग जुड़े हुए हैं। इनमें 84 प्रतिशत सीमांत किसान हैं, जिनकी खेती मुनाफे की नहीं होती है। एक तरफ महँगाई की मार तो दूसरी तरफ कर्ज का बोझ किसानों पर भारी पड़ रहा है। आम जनता को लगता है कि बजट केवल कार्पोरेट कंपनियों और बड़े लोगों के लिए बनता है और आम लोगों की गंभीर चिंता इसमें कम ही होती है।


किसानों के कर्ज माफ, आयकर सीमा बढ़ी
वाहन बाजार बल्ले-बल्ले
वित्तमंत्री का मायाजाल
कीमतों में कमी होगी, उपलब्धता बढ़ेगी
नहीं दिखाया साहस
युवा वर्ग को बजट की देन
धरती के लाल हुए निहाल
अन्नदाता नहीं मतदाता
शिक्षा के लिए खोला खजाना
बुनियादी ढाँचे में मप्र की उपेक्षा
बिना 'पैन' नहीं लेन-देन

अर्थव्यवस्था की कुरूपता पिछले चार वर्षों में बाजार पर हावी हुई महँगाई में दिखाई देती है। देश में बहुसंख्यक, मध्यम और निम्न आय वर्ग के साथ-साथ किसान, मजदूर, सर्वाधिक पीड़ित और ग्रसित हैं। वित्त मंत्री ने भाषण की शुरुआत में महँगाई को कम करने का उद्देश्य निरूपित किया, लेकिन भाषण समाप्त होते-होते वे मुद्रास्फीति या महँगाई को भूल गए।

वास्तविकता यह है कि सरकार द्वारा महँगाई वृद्धि का जो सूचकांक जारी किया जाता है, उसमें सम्मिलित की गई वस्तुओं में खान-पान की चीजों का हिस्सा सिर्फ 20 प्रतिशत ही रहता है, जबकि 80 प्रतिशत उपभोक्ता के मासिक बजट में 77 से 80 फीसदी हिस्सा खान-पान की वस्तुओं का निर्धारित रहता है तथा वह इनकी निरंतर बढ़ रही कीमतों में पिसता रहता है।

न मालूम क्यों वित्त मंत्री मुद्रास्फीति के साथ विदेशी मुद्राकोष के बेहतर उपयोग के लिए सॉवरेन वेल्थ फण्ड के गठन की बात भूल गए। भारत में 285 अरब डॉलर के देश के विदेशी मुद्रा भण्डार का उपयोग केवल सरकारी बॉण्डों और सिक्युरिटी सेटिंग में हो रहा है, जिस पर देश को 5 प्रतिशत ब्याज ही मिलता है, जबकि चीन, सऊदी अरब, सिंगापुर समेत 20 देशों में स्थापित सॉवरेन वेल्थ फण्ड का उपयोग पुनः विदेशों में निवेश कर 20 प्रतिशत कमाया जा रहा है।

उम्मीद की जा रही थी कि वित्त मंत्री ग्यारहवीं योजना के दूसरे वर्ष में बचत और निवेश को प्रोत्साहित कर कृषि क्षेत्र के साथ-साथ औद्योगिक और सेवा क्षेत्र को सतत विकास की दिशा में मोड़ते हुए ऐसे अग्रगामी प्रभाव उकेरने में सहायक होंगे, लेकिन समावेशी बजट के चित्र में न तो वे सत्यं, न शिवं और न सुदरं को ही चरितार्थ कर पाए। (नईदुनिया)