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Written By WD

कारगिल विशेष : बेटे की शहादत पर गर्व लेकिन...

कारगिल विशेष : बेटे की शहादत पर गर्व लेकिन... -
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भोपाल। कारगिल युद्ध के दौरान अदम्य साहस का परिचय देकर देश के लिए शहीद हुए महान सपूत लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे के पिता आज भी अपने पुत्र का जिक्र आने पर शहादत का गर्व प्रदर्शित करते हैं लेकिन वे अपने पुत्र को खोने की पीड़ा भी नहीं छुपा पाते हैं। लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे को मरणोपरांत परम वीर चक्र से नवाजा गया था।

'ऑपरेशन विजय' के दौरान 11 गोरखा रायफल्स रेजीमेंट की पहली वाहिनी के अधिकारी लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे खालूबार को फतह करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे।

कारगिल युद्ध की 15वीं बरसी के मौके पर शहीद सैन्य अधिकारी मनोज कुमार पांडे के पिता गोपीचंद पांडे ने भावुक शब्दों में दूरभाष पर लखनऊ से वार्ता को साक्षात्कार दिया।

वार्ता की ओर से सवाल किए जाने पर उनकी वाणी में एक पिता का स्नेह एक भारतीय नागरिक की प्रशंसा और अपने युवा पुत्र को खोने की पीड़ा साफतौर पर झलकती हुई महसूस हुई।

शहीद अधिकारी के पिता ने जैसे ही अपने पुत्र की बहादुरी और उसके जीवन के बारे में बताया तो मानो सुनने वाले के मन और मस्तिष्क में शहीद की अनेक छवियां दिखाई दीं। पांडे ने बताया कि उनका पुत्र सेना में जाने के पहले ही सदैव दूसरे की कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करता था।

अगले पन्ने पर... ऐसा था ओजस्वी मनोज का व्यक्तित्व...


पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में कड़े प्रशिक्षण अफसर की वर्दी धारण करने मोर्चे पर जाने और खुले और ऊंचे पर्वत पर युद्ध संबंधी बातों के बारे में भी उन्होंने बताया।

पांडे बताते हैं कि मनोज अलग सोच और ओजस्वी व्यक्तित्व का धनी था। वे अपने आप को भाग्यशाली मानते हैं कि उन्हें उसका पिता बनने का मौका मिला।

अपने पुत्र की विशेषताएं बताते हुए वे कहते हैं कि मनोज समझता था कि दौलत और अन्य सारी चीजें चली जाती हैं लेकिन सिर्फ नाम रह जाता है।

पांडे बताते हैं कि उनके पुत्र मनोज के लिए कोई भी व्यक्ति छोटा नहीं था। अकादमी में एक आदमी 'कैडेट्स' के जूते पालिश किया करता था।

एक बार जब वह खड़कवासला भ्रमण पर गए थे, तब उनके बेटे ने उस आदमी से उनका परिचय करवाया। उस व्यक्ति ने पांडे को बताया कि वह जूते चमकाते हुए बूढ़ा हो गया लेकिन मनोज पहले ऐसे कैडेट थे जिन्होंने उसको 'दादा' कहकर संबोधित किया।

आजकल के युवाओं के बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने की ललक और दौलत के पीछे भागने की होड़ के बारे में पूछने पर उन्होंने जवाब दिया कि पैसा महत्वपूर्ण है, लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा करना भी अनिवार्य है।

उनका मानना है कि राजनीतिज्ञों को आगे आना चाहिए और सरकार को इस दिशा में कुछ ध्यान देना चाहिए। ऐसे राजनेताओं की जरूरत है, जो युवाओं का मार्गर्दशन कर सकें।

पांडे की 4 संतानों में मनोज सबसे बड़े थे। पांडे दंपति के 1 पुत्री और 3 पुत्र हैं। भारत का सर्वश्रेष्ठ वीरता पदक राष्ट्रपति ने पांडे को उनके जांबाज पुत्र के पराक्रम के लिए प्रदान किया था।

ऐसी है मनोज की वीरगाथा... अगले पन्ने पर...


पदक के साथ दिया गया प्रशस्ति पत्र एक वीरगाथा से कम नहीं है। प्रशस्ति पत्र के अनुसार बटालिक क्षेत्र में 'जौबार टॉप' पर फतह और अन्य आक्रमणों की श्रृंखला में लेफ्टिनेंट पांडे ने हिस्सा लिया और कई घुसपैठियों को मारकर औरों को पीछे खदेड़ा।

2 और 3 जुलाई 1999 की दरमियानी रात को उनकी पलटन खालूबार की ओर कूच करते हुए अपने अंतिम लक्ष्य की तरफ बढ़ रही थी, तब आसपास की पहाड़ियों से दुश्मनों ने गोलियों की बौछार कर दी। लेफ्टिनेंट पांडे को आदेश दिया गया कि शत्रु के ठिकाने नेतस्ताबूत कर दिए जाएं ताकि वाहिनी सूर्योदय से पहले सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाए।

दुश्मन की भारी गोलीबारी के बावजूद युवा अधिकारी ने तेजी से अपनी पलटन को एक बेहतर जगह ले जाते हुए एक दल को दाहिने तरफ के ठोर तबाह करने को भेज दिया और स्वयं बाईं तरफ के ठोर की तरफ बढ़ गए।

पहले ठोर पर हमला करते हुए उन्होंने शत्रु के दो सिपाहियों को मार गिराया और दूसरे ठोर पर भी इतने ही सिपाही मारे। तीसरे ठोर पर आक्रमण करते हुए उनके कंधे और पांवों में गंभीर चोटें आईं।

अपने घावों की परवाह किए बिना वे हमले का नेतृत्व करते रहे और अपने जवानों की हौसला-अफजाई करते हुए एक हथगोले से चौथे ठोर की धज्जियां उड़ा दीं।

इसी दौरान उनके सिर पर एक से अधिक गोलियां लगीं और वे वीरगति को प्राप्त हुए। लेफ्टिनेंट पांडे के इस अदम्य साहस और नेतृत्व के कारण भारतीय सैनिकों को खालूबार पर विजय हासिल करने में मदद मिली। (वार्ता)