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Last Updated : सोमवार, 22 सितम्बर 2014 (18:49 IST)

क्या हो अमेरिका में मोदी का एजेंडा..?

क्या हो अमेरिका में मोदी का एजेंडा..? - Narendra Modi's agenda in America
भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भावी अमेरिका यात्रा के दौरान दोनों पक्षों की ओर से विभिन्न विषयों पर विचार विमर्श और समझौते होना तय है, लेकिन कुछेक क्षेत्र ऐसे हैं जो कि भारतीय प‍क्ष के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसी तरह की आशाएं, संभावनाएं अमेरिकी पक्ष के साथ होना भी स्वाभाविक हैं। मोदी पर दोनों ही पक्षों की उम्मीदों पर खरा उतरने का दायित्व होगा। देखना होगा कि वे अंतरराष्ट्रीय राजनय और अपने देश के हितों की रक्षा में कितने खरे उतरते हैं?

सबसे पहले तो मोदी को यह दिखाना होगा कि अमेरिका द्वारा उन्हें गुजरात के मुख्‍यमंत्री रहने के दौरान वीजा न दिए जाने को वे भूल चुके हैं और अब वे एक सवा सौ करोड़ लोगों की आबादी वाले देश के नेता हैं। इसलिए जब देशहित की बात आती है तो उनके लिए अमेरिकी सरकार का अतीत का आचरण अधिक मायने नहीं रखता है। उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि अमेरिका शिक्षा, विकास, तकनीक और नवाचार के मामले में दुनिया में अव्वल देश है और अगर भारत को इन क्षेत्रों में प्रगति करना है, तो हमें अमेरिकी इस मामले में बहुत कुछ सिखा सकते हैं। उच्च शिक्षा, शोध और नवाचार के मामले मे दोनों देशों को करीबी संबंध रखने होंगे।

दुनिया की एकमात्र महा‍शक्ति की जीडीपी हमारी जीडीपी की तुलना में नौ गुना ज्यादा है और इसी तरह प्रति व्यक्ति आय के मामले में वह हमसे 33 गुना आगे है। यह देश दुनिया में लोगों की प्रगति को बढ़ाने के लिए वांछित उद्ममवृत्ति में भी सबसे आगे है। इस क्षेत्र में भारत इससे बहुत कुछ सीख सकता है। इसके अलावा, अमेरिका दूसरा सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है और सॉफ्टवेयर उद्योग के मामले में यह सबसे बड़ा कस्टमर बेस है। हमारे देश को सॉफ्टवेयर निर्यात से 40-45 बिलियन डॉलर की आय होती है। विदित हो कि जापान हमारे देश में अगले पांच वर्षों में 35 बिलियन डॉलर की राशि का निवेश करेगा लेकिन सॉफ्टवेयर निर्यात में बढ़ोतरी से हमें और भी आय हो सकती है।

विदित हो कि हमारे सॉफ्टवेयर उद्योग ने तीन करोड़ बीस लाख से ज्यादा नौकरियां पैदा की हैं, लेकिन इसके साथ ही, दो तीन गुना नौकरियां इससे जुड़े द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्र में पैदा हुई हैं। भारत सरकार को इन्हें अधिकाधिक बढ़ाने के लिए अमेरिकी नीतियों को इस तरह प्रभावित करना होगा कि आव्रजन और वीजा संबंधी कानून पर्याप्त रूप से भारत हितैषी हों। मोदी को डेमोक्रेट और रिपब्लिकन नेताओं को विश्वास दिलाना होगा कि भारतीय सॉफ्टवेयर उद्योग की बढोत्तरी से भारत ही नहीं वरन अमेरिका भी लाभान्वित होता है। वहां रोजगार के अवसर पैदा होते हैं और अमेरिकी कंपनियों को अपेक्षाकृत कम कीमत पर कुशल कामगार मिलते हैं। इसलिए अमेरिका की सूचना और संचार व्यवस्था को भी भारतीय मेधा की जरूरत है और भारतीय इस क्षेत्र में अपना दमखम दिखा चुके हैं।      

अमेरिका के बुद्धिजीवियों और सरकार के प्रमुख लोगों का यह मानना है कि भारत में कानून बहु्त जटिल और नौकरशाही बहुत ही ढीली है जो कि समय पर काम नहीं करती है। मोदीजी को अमेरिकियों की इस समझ को दूर करना होगा कि भारत सरकार की नीतियां अमेरिकी निवेश के लिए समुचित या पर्याप्त सुरक्षित नहीं हैं। प्रधानमंत्री को दोनों देशों के बीच सामरिक सहयोग और आतंकवाद रोधी उपायों को लेकर विशेष बातचीत करनी होगी। साथ ही, ऊर्जा, जलवायु परिवर्तन, शिक्षा और विकास, अर्थव्यवस्था, कारोबार और कृषि, विज्ञान और तकनीक और स्वास्थ्य ऐसे मुद्‍दे हैं जिनमें दोनों पक्षों के बीच समझौते स्वागत योग्य होंगे।  

दोनों देशों में प्रतिरक्षा और ऊर्जा सहयोग को लेकर काफी बातचीत होती रही है। पिछले माह ही अमेरिकी रक्षा मंत्री चक हेगल ने भारत का दौरा किया था और उस समय दोनों पक्षों ने एक नए प्रतिरक्षा समझौते को लेकर बातचीत हुई थी। मोदी की यात्रा के दौरान इस तरह का कोई समझौता, रक्षा तकनीक के हस्तांतरण संबंधी प्रयास, कोई साकार रूप ले सकता है। दोनों देशों के बीच साझेदारी को बढ़ाकर भारतीय प्रतिरक्षा उद्योगों के स्वदेशीकरण को गति देने का कार्यक्रम भी बन सकता है। विदित हो कि सरकार ने प्रतिरक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के भाग को 26 फीसद से बढ़ाकर 49 फीसदी कर दिया है। इसके साथ ही, रक्षा तकनीक और कारोबार प्रयासों को भी बढाए जाने के बारे में आगे बातचीत होगी।
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प्रधानमंत्री को भारत-अमेरिकी संबंधों को वहीं से आगे बढ़ाना होगा, जहां पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने इन्हें छोड़ा है। मनमोहन सिंह 22-26 नवंबर 2009 को राष्ट्रपति बराक ओबामा के पहले सरकारी मेहमान बने थे। इसके बाद राष्ट्रपति ओबामा 6-9 नवंबर, 2010 को भारत के सरकारी दौरे पर आए थे। तब उन्होंने दोनों देशों की साझेदारी को इक्कीसवीं सदी की 'वन ऑफ द डिफा‍‍इनिंग पार्टनरशिप्स' करार दिया था और उस समय दोनों देशों के बीच व्यापक आधार पर विविध क्षेत्रों से जुड़ी बातचीत हुई थी। समय दोनों देशों के बीच जिन क्षेत्रों को लेकर बातचीत हुई थी उनमें कारोबार और निवेश, प्रतिरक्षा और सुरक्षा, शिक्षा, विज्ञान और तकनीक, साइबर सिक्योरिटी, उच्च तकनीक, सिविल न्यूक्लीयर एनर्जी, अंतरिक्ष तकनीक और अनुप्रयोगों तथा अन्य बहुत से क्षेत्रों में सहयोग के मामले शामिल थे। इन सभी क्षेत्रों में सहयोग को एक नई दिशा दिए जाने की जरूरत है।    

दोनों देशों की सामरिक वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए भारत और अमेरिका ने एक मंत्रीस्तरीय वार्ता की शुरुआत की थी, जिसकी सह-अध्यक्षता भारत के विदेश मंत्री और अमेरिकी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट करते हैं। जुलाई 2009 की इस शुरुआत में परस्पर महत्व के कई क्षेत्रों-सामरिक सहयोग, ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन, शिक्षा और विकास, अर्थव्यवस्था, कारोबार और कृषि, विज्ञान और तकनीक, स्वास्थ्य और नवाचार पर बातचीत हुई थी। बातचीत का पहला दौर वॉंशिंगटन डीसी में जून 2010 में हुआ था। इसकी चौथी बैठक जून 2013 में नई दिल्ली में हुई थी। भारत को जून 2013 से रुकी बातचीत को नया आधार देना है ताकि दोनों पक्ष किसी सार्थक समझौते पर पहुंच सकें।    

इसी तरह फॉरेन ऑफिस कंसलटेशन्स के जरिए राजनीतिक और आधिकारिक स्तरों पर निरंतर सम्पर्क होता रहा है। इनके जरिए द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्‍दों पर बातचीत होती रही है। यह दोनों देशों की वार्ता के स्वरूप का महत्वपूर्ण हिस्सा है। पिछली बार फॉरेन ऑफिस कंसलटेशन्स का दौर अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी में 20-22 फरवरी 2013 को हुआ था पर इस दौर को आगे बढ़ाना भारत का भी दायित्व है। उल्लेखनीय है कि अगर दोनों देशों के बीच इस क्षेत्र में पर्याप्त सहयोग होता तो देवयानी खोबरागड़े का मामला इतना तूल नहीं पकड़ता और दोनों देशों के बीच तनातनी की हालत नहीं बनती।   

असैन्य परमाणु समझौता एक ऐसा विषय है जो कि पूरी तरह से अंजाम तक नहीं पहुंच सका है इसलिए यह मोदी सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इसे पूरी तरह से सक्रिय अवस्था में पहुंचाए। विदित हो कि द्विपक्षीय असैन्य परमाणु समझौता जुलाई 2007 में पूरा किया गया था और अक्टूबर 2008 में इस पर हस्ताक्षर भी कर दिए गए थे और नवंबर वर्ष 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की सरकारी यात्रा के दौरान दोनों सरकारों ने घोषणा की थी कि समझौते के क्रियान्यवयन के सभी कदम उठाए जा चुके हैं। इसके बाद दो अमेरिकी परमाणु कंपनियों-वेस्टिंगहाउस और जीई हिताची-का एनपीसीआईएल के साथ व्यसायिक सहयोग शुरू करने को लेकर बातचीत भी हुई।         
इस सिलसिले में एनपीसीआईएल और वेस्टिंगहाउस के बीच जून 2012 में एक एमओयू हस्ताक्षरित किया गया था और दोनों की अली वर्क्स एग्रीमेंट को लेकर बातचीत भी हुई थी। लेकिन बाद में भारत-अमेरिकी संबंधों में ठहराव आ जाने और देश की राजनीतिक स्थिति में बदलाव के चलते एक ठहराव आ गया है इसलिए इस मोर्चे पर नए सिरे से पहल करना जरूरी हो गया है। उम्मीद की जाती है कि मोदी की यात्रा के बाद इंडो-यूएस सिविल न्यूक्लीयर वर्किंग ग्रुप में नई जान आ जाएगी। इसकी अंतिम बैठक जुलाई 2013 में हुई थी। प्रतिरक्षा सहयोग के क्षेत्र में भी दोनों पक्षों को नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ने का इंतजार है। इस क्षेत्र में जून 2005 में द्विपक्षीय समझौते के बाद दोनों देशों के बीच सहयोग गहरा होता जा रहा है लेकिन मैरीटाइम सिक्यूरिटी और काउंटर पाइरेसी ऑपरेशन्स मामलों में बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

प्रतिरक्षा व्यापार के क्षेत्र में दोनों देशों के बीच महत्वपूर्ण बढ़ोत्तरी हुई है और कुछ समय पहले तक भारत ने अमेरिका से 9 बिलियन डॉलर से अधिक का प्रतिरक्षा साजोसामान खरीदा है। लेकिन दोनों ही देशों के बीच में तकनीक हस्तांतरण नीतियों में परिवर्तन की जरूरत है और संभवत: मोदी जोर देंगे कि दोनों ही देशों के बीच में डिफेंस सिस्टम्स का को-डेवलपमेंट और को-प्रोडक्शन हो ताकि भारत को तकनीक का भी लाभ मिले और वह प्रतिरक्षा उत्पादन के क्षेत्र में अधिकाधिक तौर पर आत्मनिर्भर बन सके। भारत के पड़ोसी देशों की नीतियों और आतंकवाद की बढ़ती घटनाओं के चलते आतंकवाद रोधी सहयोग और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। तकनीक ट्रांसफर्स और कैपासिटी बिल्डिंग पर बातचीत करने के लिए मई 2011 में अमेरिका की सेक्रेटरी ऑफ होमलैंड सिक्यूरिटी जैनेट नैपॉलिटानो ने पहले दौर की बातचीत भी की थी। इसके बाद इससे जुड़े बहुत सारे मुद्‍दों पर सहयोग का सिलसिला शुरू हुआ है लेकिन जरूरत इस बात की है कि इसमें कोई व्यवधान या कमी न आने पाए और सहयोग का नया दौर शुरू हो।

पूर्वी एशिया, मध्य एशिया और पश्चिम एशिया को लेकर हाल के वर्षों में भारत और अमेरिका के बीच बहुत अधिक विचार विमर्श हुआ है क्योंकि इन क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तनों के चलते भारत-अमेरिका के हित बहुत प्रभावित होते हैं। अब दोनों पक्षों ने लैटिन अमेरिका और अफ्रीका को लेकर भी सामरिक विचार विमर्श को आगे बढ़ाने का फैसला किया है।

गौरतलब है कि भारत और अमेरिका के साथ जापान की त्रिपक्षीय चौथी बैठक एक मई 2013 को वाशिंगटन में हुई थी। इसी तरह भारत-अमेरिका और अफगानिस्तान की दूसरी त्रिपक्षीय बैठक नई दिल्ली में फरबरी 2013 में हुई थी। चीन और पाकिस्तान के साथ संबंधों को देखते हुए अमेरिका के साथ भारत की इन बैठकों का खासा महत्व है। सामरिक सुरक्षा से संबंधित मामलों में दोनों देशों के बीच हाई टेक्नोलॉजी ट्रेड में काफी बढ़त हुई है और वर्ष 2012 के दौरान यह 62.8 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया था। तब पिछले वर्ष की तुलना में दोनों देशों के कारोबार में करीब 9 फीसदी की वृद्ध‍ि हुई थी और अब इसे और अधिक तेजी से बढ़ाने की जरूरत है।

आर्थिक और कारोबार के मुद्‍दों पर भी बातचीत को और सार्थक बनाने की जरूरत है। वित्तीय और आर्थिक साझेदारी के क्षेत्र में भी आगे जाने की जरूरत है। दोनों पक्षों के बीच में अगर मनी लाउंडरिंग और कम्बैंटिंग फाइनेंसिंग ऑफ टेरर और टैक्सेशन को लेकर कोई ठोस रास्ता निकालने की कोशिश की जाती रही है और यही समय है कि  दोनों को ही बाइलेटरल इनवेस्टमेंट ट्रीटी को ठोस आकार दे देना चाहिए ताकि दोनों देशों के बीच सार्थक लाभ की शुरुआत हो सके। एक अन्य क्षेत्र कृषि सहयोग और फूड सिक्योरिटी का है जिसकी शुरुआत 2009 में की गई थी और जिसके स्थान पर इंडिया-अमेरिका एग्रीकल्चर नॉलेज इनीशिएटिव लाया गया है जिसके जरिए खाद्य सुरक्षा, फूड प्रोसेसिंग, फार्म-मार्केट लिंकेजेस और एग्रीकल्चर विस्तार को बढ़ाया जा सकता है।  

आपसी निवेश दोनों देशों के बीच तीसरा ऐसा सबसे बड़ा जरिया है, जिससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आता है। इस क्षेत्र में बहुत अधिक विस्तार की गुंजाइश है और हाल के वर्षों में भारत का अमेरिका में निवेश भी बढ़ रहा है। स्वतंत्र अध्ययनों के अनुसार वर्ष 2004 से 09 के बीच यह राशि 26.5 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई थी। अमेरिका से क्लीन इनर्जी के तौर पर भारत एलएनजी का आयात करता है। इस संबंध में दोनों देशों के बीच ऊर्जा क्षेत्र में कारोबार और निवेश को बढ़ाने की संभावनाएं खोजी जा सकती हैं। पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर्स के बीच सहयोग बढ़ाने के लिए दोनों देशों ने पांच वर्किंग ग्रुप्स बनाए थे जोकि तेल और गैस, कोयला, ऊर्जा सक्षमता, नई तकनीकों और अक्षय ऊर्जा को लेकर हैं। इन ग्रुपों की अंतिम बैठक सितम्बर, 2012 में हुई और इनमें और अधिक जान फूंकने की जरूरत है।       

इन सबके साथ ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग को सिंह-ओबामा नॉलेज इनीशिएटिव, 2009 को अक्टूबर 2011 में आयोजित इंडिया-यूएस हायर एजुकेशन समिट और जून, 2012 तथा जून 2013 के हायर एजुकेशन डॉयलॉग्स से आगे ले की भी जरूरत है। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें भारत के प्रभावी प्रदर्शन की पर्याप्त संभावनाएं हैं। दोनों देशों के संयुक्त प्रोजेक्ट्‍स लाभदायी ही होंगे और इनसे भारतीय प्रतिभाओं को अपनी योग्यता प्रदर्शित करने का भी अवसर मिलेगा। इसी तरह से अंतरिक्ष एक ऐसा क्षेत्र है, जिससे दोनों ही देश लाभान्वित हो सकते हैं। अंतरिक्ष में लम्बी छलांग लगाने के लिए दोनों देशों का संयुक्त वर्किंग ग्रुप काम करता रहा है। अंतरिक्ष में संयुक्त कार्य करने के लिए वॉशिंगटन डीसी में 21-22 मार्च, 2013 को बैठक हुई थीं।  

इन बैठकों में तय किया गया था कि दोनों देश वैज्ञानिकों का आदान-प्रदान करेंगे। इसी के परिणाम स्वरूप दोनों देशों के बीच इनसैट3 डी और मार्स मिशन के बीच सहयोग किया गया। नैनो सैटेलाइट्‍स, कार्बन इकोसिस्टम मॉनिटरिंग और मॉडलिंग, रेडियो अकल्टेशन, अर्थ साइंसेज सहयोग, इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन, ग्लोबल नेवीगेशन सैटेलाइट्‍स सिस्टम्स और बहुत सारे अन्य क्षेत्रों में भारत को काम करने का मौका मिला। मार्स ऑर्बिटर मिशन के लिए नासा और इसरो के बीच समझौता हुआ है, जिसे और भी अधिक व्यापक बनाए जाने की जरूरतें हैं। ऐसे मामलों में ज्यादा जानकारी तो विशेषज्ञों की होती है लेकिन उनके ज्ञान और विशिष्टता को सही दिशा देने में देश का राजनीतिक नेतृत्व भी निर्णायक योगदान कर सकता है। खुद से जुड़ी तमाम आशंकाओं को निराधार साबित करने वाले मोदी के सामने भारत-अमेरिकी संबंधों को नई उंचाइयों तक ले जाने का मौका है और उम्मीद की जा सकती है कि वे इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देंगे।