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Written By WD
Last Modified: सोमवार, 21 अप्रैल 2014 (10:34 IST)

यूपी में कांग्रेस का 'धर्मनिरपेक्ष' प्रचार फेल

यूपी में कांग्रेस का ''धर्मनिरपेक्ष'' प्रचार फेल -
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लखनऊ। उत्तरप्रदेश में अन्य पार्टियों की ध्रुवीकरण कराने की रणनीति ने कांग्रेस को विचित्र स्थिति में डाल दिया है। पार्टी अपने आपको धर्मनिरपेक्ष बताती है इसलिए खुले तौर पर सांप्रदायिक आधार पर वोट भी नहीं मांग सकती है लेकिन अगर यह ऐसा नहीं करती है तो इसका एक बड़ा वोट बैंक के वोट दूसरे दलों को चले जाएंगे।

पार्टी भले ही कहती रहे कि यह धार्मिक आधार पर वोटों के बंटवारे के खिलाफ है लेकिन सच्चाई तो यही है कि धार्मिक आधार पर वोटों के बंटवारे के चलते ही यह चुनाव जीतती रही है।

उत्तरप्रदेश की 80 संसदीय सीटों में से कम से कम तीन दर्जन सीटें ऐसी हैं, जहां पर अल्पसंख्यक मत चुनाव परिणाम को बदलने की क्षमता रखते हैं और पार्टी को अब यह महसूस हो रहा है कि पश्चिम यूपी की जिन सीटों पर मतदान हो चुका है, उनमें पार्टी के अल्पसंख्‍यक वोट दूसरे दलों के खाते में चले गए हैं।

पिछले गुरुवार को बरेली, संभल, बदायूं, पीलीभीत, आंवला, अमरोहा, मुरादाबाद, नगीना, शाहजहांपुर और लखीमपुर खीरी सीटों के लिए मतदान हुआ था और इन सीटों पर संकेत मिलता है कि यहां पर मुस्लिमों के सबसे ज्यादा वोट बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को मिले हैं।

कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि बाकी बची सीटों में मुस्लिम मतों को वह कैसे अधिकाधिक संख्‍या में हासिल करे?

पिछले वर्ष सितंबर में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद सभी राजनीतिक दलों को राज्य में अपनी रणनीति बदलना पड़ी। इन दंगों में 43 लोगों की जान गई और हजारों अभी ऐसी स्थिति में हैं कि वे अपने गांवों में अपने घरों को लौटने से डरते हैं।

इस स्थिति का बसपा ने सबसे पहले लाभ उठाया और इसने अपने बहुत सारे प्रत्याशियों को बदल दिया और ज्यादा से ज्यादा मुस्लिमों को टिकट दिए। जब तक कांग्रेस की समझ में आता तब तक बसपा अपना काम कर चुकी थी। दंगों के बाद सपा की छवि पहले से खराब हो चुकी थी और कांग्रेस इस अवसर का लाभ उठाने से चूक गई।

बसपा ने सबसे पहले अपने प्रत्याशियों को बदलकर मुस्लिमों को जता दिया कि वह उनकी स्थिति को बेहतर तरीके से समझती है। उसने मुस्लिमों को यह तर्क भी दिया कि उसने अपने शासनकाल में मुस्लिमों के लिए बहुत सारे काम किए।

मध्य यूपी और अवध में कांग्रेस और अन्य दलों के बीच का अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अन्य सभी दल अपने एजेंडा को लेकर स्पष्ट थे और वे इसे जोर-शोर से लागू कर रहे थे।

वरुण गांधी चाहते तो पीलीभीत से सुल्तानपुर जा सकते थे लेकिन उन्होंने 2009 में जो दो समुदायों के बीच घृणा पैदा करने वाले भाषण दिए थे वे उनके चुनाव प्रचार और समर्थकों के लिए साथ बना रहा और उन्होंने तय कर लिया कि उनकी राजनीति किस ओर जाने वाली है?

यह बात तभी स्पष्ट हो गई थी जबकि उन्हें अपने भाषणों के कारण कुछ समय एटा की जेल में गुजारना पड़ा था। उनके लिए स्पष्ट था कि पीलीभीत या सुल्तानपुर उन्हें मुस्लिमों के वोट नहीं चाहिए क्योंकि वे हिंदुओं के वोट खोने का जोखिम मोल नहीं ले सकते।

ध्रुवीकरण के इस दौर में कांग्रेस क्या कर सकती है? उसके प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह दावा कर रहे हैं कि यह लड़ाई विचारधाराओं के बीच है। भाजपा तो विभाजन की राजनीति में विश्वास करती है और कुछ लोगों का ही विकास चाहती है जबकि कांग्रेस समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने में विश्वास करती है।

कांग्रेस की चिंता को इसी बात से समझा जा सकता है कि प्रियंका गांधी को अपना अधिकाधिक समय केवल अपने भाई और मां के प्रचार में ही देना पड़ रहा है। वे केवल अमेठी और रायबरेली तक ही सीमित होकर रह गई हैं।

इसी का नतीजा है कि कांग्रेस को अपना प्रचार भी शांत रहकर करना पड़ रहा है और उसका ज्यादा जोर घर-घर जाकर प्रचार करने पर है जबकि अन्य दल शोर-शराबे (हाई पिच्ड) कैम्पेन में जुटे हैं तो ऐसे हाई वोल्टेज इलेक्शन में इस तरह के चुनाव प्रचार का कितना लाभ मिल सकता है?

हालांकि समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के खिलाफ अमेठी और रायबरेली में अपने प्रत्याशी खड़े नहीं किए हैं लेकिन कांग्रेस के बाकी उम्मीदवारों को तो कई कोणीय संघर्ष से गुजरना पड़ रहा है।

सहारनपुर से कांग्रेस प्रत्याशी, इमरान मसूद, ही ऐसे प्रत्याशी रहे हैं तो मुकाबले में आगे दिखे हैं। लेकिन यह सब तक हुआ जब नरेन्द्र मोदी को लेकर उनका बयान सार्वजनिक हो चुका था।

मसूद का चुनाव वोटों के ध्रुवीकरण में बदल गया लेकिन कांग्रेस के अन्य प्रत्याशियों के साथ ऐसा नहीं हो सका है और उन्होंने परंपरागत तरीके से ही प्रचार भी किया।

ध्रुवीकरण के कारकों को अपनाने या दूर रहने को लेकर भी कांग्रेस में भ्रम की स्थिति बनी रही, क्योंकि चुनाव आयोग ने अमित शाह और आजम खान पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इस दौरान भाजपा की रणनीति यह रही कि यह विकास की आड़ में हिन्दुत्व का जमकर प्रचार करे वहीं समाजवादी पार्टी के प्रमुख बलात्कारियों को बचाने वाले अपने बयान से कुख्‍याति बटोरते रहे।

चुनाव आयोग ने दोनों पर रोक लगा दी थी लेकिन तब तक दोनों ही दल अपने अपने चुनाव क्षेत्रों को लाभ दिलाने में सफल हो गए इसलिए कांग्रेस को कहना पड़ा कि भाजपा और सपा की मिलीभगत है और ये दोनों ही दल लोगों में डर फैलाकर अपना काम चलाते हैं। यह कहना है कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का।

लेकिन अगर चुनाव जीतना ही एक मात्र पैमाना हो तो कांग्रेस को जीतने के लिए पता नहीं कितने पापड़े बेलने पड़ेंगे और जरूरी नहीं है कि तब भी यह जीत भी जाए।

दूसरे दलों को जहां खुले तौर पर जाति और धर्म के आधार पर वोट मांगने से परहेज नहीं है वहीं कांग्रेस एक तरह कुआं और दूसरी तरह खाई की स्थिति में फंस गई है। एक ओर यह देश की अंतरात्मा को बनाए रखने वाला दल बना रहना चाहता है तो दूसरी ओर ऐसी पार्टी भी बनना चाहती है, जो कि बदले परिस्थितियों और परिप्रेक्ष्य में जीत हासिल करने वाली पार्टी भी बनी रहे।

कांग्रेस प्रमुख अपने भाषणों में गंगा-जमुनी तहजीब के गीत गा रही हैं लेकिन राज्य में चुनाव जहां भावनाएं भड़काकर जीतने की कसौटी बन गए हों वहां कांग्रेस की इस तरह की रणनीति कहां तक सफल हो सकेगी?