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Last Updated : शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016 (00:45 IST)

सियाचिन पर कोई भी समझौता आत्मघाती कदम होगा

सियाचिन पर कोई भी समझौता आत्मघाती कदम होगा - Siachen, Siachen glacier, Indian Army
दुनिया के सबसे दुर्गम युद्ध स्थलों में से एक सियाचिन ग्लेशियर या सियाचिन हिमनद को इस कारण से भी जाना जाता है कि इस पर कब्जे को लेकर पिछले 28 वर्षों से दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हैं लेकिन बिना किसी लड़ाई के दोनों ओर से दो हजार से ज्यादा सैनिकों की मौत हो चुकी है। 
यहां पर दोनों ओर की फौजों का सामना आक्रामक मौसम से हैं जो पलभर में सैकड़ों सैनिकों को मौत की नीं‍द सुला देता है, लेकिन भारत के लिए इसका सामरिक महत्व इसी बात से जाहिर है कि इतनी ऊंचाई पर कब्जा करके भारत, पाकिस्तान और चीन दोनों देशों की सैनिक गतिवधियों पर नजर रख सकता है। अगर इस स्थल पर भारतीय सेना का कब्जा नहीं होता तो यह इलाका चीनियों-पाकिस्तानियों की सामूहिक ताकत का प्रदर्शन स्थल बन जाता।   
 
सियाचिन ग्लेशियर (सियाचिन हिमनद) हिमालय के पूर्वी काराकोरम रेंज में भारत-पाक नियंत्रण रेखा के पास लगभग देशान्तर (77.10 पूर्व), अक्षांश (35.42 उत्तर) पर स्थित है। यह काराकोरम के पांच बड़े हिमनदों में सबसे बड़ा और विश्व का दूसरा सबसे बड़ा हिमनद है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई इसके स्रोत्र इंदिरा कोल पर लगभग 5753 मीटर और अंतिम छोर पर 3620 मीटर है। यह लगभग 70 किमी लम्बा है, जो कि पाकिस्तान के ‍नियंत्रण वाले बाल्टिस्तान, हुंजा और गिलगित के पास है। बालिस्तान की बोली बाल्टी में 'सिया' का अर्थ जंगली गुलाब होता है और 'चुन' का अर्थ बहुतायत या अधिकता से है। इसका अर्थ है कि यहां जंगली गुलाबों की अधिकता है, जबकि वास्तविकता है कि इस स्थान पर घास का एक तिनका भी पैदा नहीं होता है।     
 
कहा जाता है कि एक बार संसद में यहां पर सेना की तैनाती को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरूजी का कहना था कि इस क्षेत्र पर कब्जा बनाए रखने के लिए हमें प्रति दिन करोड़ों रुपए खर्च करना होता है। यहां घास का एक तिनका भी पैदा नहीं होता जिस पर एक सांसद की कटु टिप्पणी की थी कि आपकी खोपड़ी पर भी एक बाल नहीं है तो क्या इसे भी आप पाकिस्तान को सौंप देंगे? कहना गलत न होगा कि यह दोनों देशों के बीच एक भावनात्मक मुद्‍दा है जो हमारे देश की सुरक्षा से जुड़ा है।  
 
यहां पर पाकिस्‍तान और चीन दोनों की सीमा भारत के साथ मिलती है और इन दोनों ही देशों की फौजों से हमें आए दिन खतरा बना रहता है। पाक और चीन की सेना लगातार भारत की सीमा में घुसपैठ की कोशिश में लगी रहती है। यहां पर थोड़ी सी चूक देश को बड़े संकट में डाल सकती है। इसलिए यहां सैनिक हमेशा ही चौकन्‍ने रहते हैं। सियाचिन ग्‍लेशियर पर स्थित भारतीय सीमा की रक्षा के लिए 3 हजार सैनिक हमेशा तैनात रहते हैं। पाकिस्‍तान सियाचिन पर हमेशा से अपना दावा करता आया है, हालांकि पाकिस्‍तान को इस पर कब्जा करने का मौका कभी नहीं मिला। सर्दी के दिनों में अपनी चौकियों को लावारिस छोड़ देने की गलती हम कारगिल में देख चुके हैं, जब भारत को अपनी चौकियों पर दोबारा से काबू पाने के लिए पाकिस्‍तानी सेना के साथ एक सीमित स्तर का युद्ध लड़ना पड़ा था।   
 
चूंकि यह हिमालय श्रृंखला के 35.421226°N और 77.109540°E पर स्थि‍त है, इसलिए यहां वर्षभर पारा -50 डिग्री तक नीचे पहुंच जाता है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई लगभग 5753 मीटर है। सियाचिन ऐसा स्थान है, जहां भारत, पाकिस्‍तान और चीन तीनों देशों की सीमाएं मिलती हैं। पाकिस्‍तान वर्षों से यहां अपना आधिपत्‍य स्‍थापित करने के लिए तैयार रहता है, लेकिन उसे इस काम में कभी सफलता नहीं मिली है। इसका कारण यह है कि भारत के जवानों ने पाकिस्‍तान को जैसे को तैसा जवाब दिया है।  
 
जब कभी सियाचिन पर चर्चा का अवसर सामने आता है तो भारतीय मीडिया में इस विषय पर लेख छपने शुरू हो जाते हैं, जो यह तर्क देते हैं कि दोनों देशों के बीच परस्पर विश्वास पैदा करने के लिए इस इलाके से सैनिकों को वापस बुलाने की जरूरत है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस्लामाबाद से परस्पर शांति की उम्मीद में भारतीय सैनिकों को अपनी पोजीशनों को खाली छोड़ देना चाहिए। सियाचिन में पाकिस्तान की स्थिति ठीक नहीं है और यही वजह है कि वह चाहता है कि वहां से जल्द से जल्द सेना को वापस बुला लिया जाए। 
 
वहीं हमारी सेना के विशेषज्ञों के एक वर्ग का मानना है कि अगर सियाचिन से हमारी सेना नीचे आती है तो कारगिल की तरह ही हस्ताक्षरित समझौते के बावजूद पाकिस्तान कभी भी हम पर हमला बोल सकता है। कुछ समय पहले सियाचिन में भूस्खलन में 127 पाकिस्तानी सैनिकों के मारे जाने के बाद पाकिस्तानी सेना इस पर एक बार फिर से चर्चा के लिए जोर लगाती रही है। द हिन्‍दू अखबार में एक बड़ी खबर छपी, जिसमें सियाचिन में पाकिस्‍तान को रियायत देने की वकालत की गई थी।  
 
इस खबर के अनुसार, वर्ष 1992 में सियाचिन पर समझौता लगभग हो ही गया था। इस लेख में सर्वविदित और तथ्यों को विस्तार से पेश किया गया था। नवंबर 1992 में सियाचिन पर छठे दौर की वार्ता में एक पारस्परिक समझौता लगभग पूरा होने की कगार पर था, तभी अचानक भारतीय नेताओं ने इस समझौते के प्रति ठंडा रवैया अपना लिया और इस तरह वार्ताकारों को समझौते से पीछे हटना पड़ा था।
 
उस समय भारतीय प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख और रक्षा सचिव रहे एनएन वोहरा का एक बयान सामने आया था, जिसमें कहा गया था कि भारत ने समझौते पर हस्ताक्षर करने के कार्यक्रम को रातोरात रद्द कर दिया है। भारत सरकार ने यह फैसला लिया कि इस मसले पर समझौता जनवरी 1993 में अगले दौर की बातचीत में लिया जाएगा। तब अपनी किताब 'सियाचिन : कनफ्लिक्ट विदाउट एंड' में सैन्य गतिविधियों के तत्कालीन महानिदेशक और भारतीय प्रतिनिधिमंडल के एक प्रमुख सदस्य लेफ्टिनेंट जनरल वीआर राघवन ने बताया है कि आखिर क्यों भारतीय नेताओं का मन बदल गया। 
 
उस दौर में बाबरी मस्जिद विवाद की वजह से कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच मतभेद बढ़ गए थे और ऐसे में कोई राजनीतिक एक राय बनाना एक मुश्किल काम लग रहा था। साथ ही पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में जिस तरह से हिंसा फैला रहा था उसे देखते हुए राजनीतिक नेता इस समझौते पर दोबारा विचार करना चाहते थे। मगर 'हिन्‍दू' के लेख में कुछ ऐसी बातचीत की गई है, मानो नई दिल्ली ने समझौते पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर पाकिस्तान की पीठ में छुरा घोंप दिया हो। 
 
निश्चित तौर पर कोई यह तर्क नहीं दे सकता कि जब तक कोई देश किसी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं कर देता तब तक वह उस पर दोबारा विचार नहीं कर सकता है। लेख के मुताबिक, पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल ने एक प्रस्ताव रखा था जो भारत की उस मांग को पूरा कर रहा था जिसमें भारत का कहना था कि प्रस्तावित क्षेत्र से सेना को वापस बुलाने से पहले मौजूदा ग्राउंड पोजिशन को दर्ज कर लिया जाए, जो कि गलत है। भारत ने हमेशा से यह मांग की है कि एक्चुअल ग्राउंड पोजिशन लाइन (एजीपीएल), जो दोनों सेनाओं के बीच विभाजन रेखा का काम करती है, उसका समझौते में स्पष्ट उल्लेख किया जाए। 
 
लेकिन इस बारे में पाकिस्तान का प्रस्ताव था कि एजीपीएल को एक अनुलग्नक (एनेक्सर) के तौर पर परिशिष्ट (सप्लीमेंट) में जोड़ दिया जाए। साल 1992 में भारत की मांग को पूरा नहीं किया गया था, फिर भी वह पाकिस्तान के आवेदन पर विचार कर रहा था। एक पुनर्नियोजन अनुलग्नक को परिशिष्ट में जोड़ देना उचित नहीं होगा क्योंकि इस तरह हमारे पास कोई अधिकृत नक्शा नहीं बचेगा जिस पर स्पष्ट रूप से एजीपीएल का उल्लेख किया गया हो। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय, खासतौर पर अमेरिका कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान के खिलाफ इसलिए हो गया था, क्योंकि तब भारत के पास एक हस्ताक्षरित नक्शा था, जिसमें दोनों ही देशों ने 1972 में नियंत्रण रेखा (एलओसी) को स्वीकार किया था।
 
साथ ही जब जम्मू में अखनूर से लेकर एनजे 9842 तक जहां सियाचिन की शुरुआत होती है, उस 700 किमी लंबी नियंत्रण रेखा की पहचान कर उसका चित्रण किया जा चुका है तो फिर 109 किमी लंबी एजीपीएल को दूसरे तरीके से चिह्नित करने की क्या जरूरत है? पाकिस्तान का तर्क है कि एजीपीएल का गठन शिमला समझौते के उल्लंघन के तौर पर किया गया था। मगर भारत भी अपनी ओर से यह तर्क दे सकता है कि नियंत्रण रेखा का गठन जम्मू-कश्मीर के इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन टू इंडिया के उल्लंघन के तौर पर किया गया है।
 
नई दिल्ली को चाहिए कि वह हमेशा के लिए इस बात को साफ करे कि सियाचिन कभी भी पाकिस्तान को तोहफे में नहीं दिया जाएगा और न ही इसका इस्तेमाल रिश्तों को सुधारने के लिए किया जाएगा ताकि भारत-पाकिस्तान वार्ता आगे बढ़ सके। सियाचिन, कश्मीर विवाद का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है और यही वजह है कि इसका इस्तेमाल महज विश्वास पैदा करने वाले हथियार की तरह नहीं किया जा सकता है।
 
साथ ही भारतीय सेना को अगर सियाचिन से हटाया जाता है तो कारगिल से सेना वापसी की शर्तों को ध्यान में रखकर ऐसा किया जाना चाहिए जहां पाकिस्तानी विश्वासघात की वजह से 1999 में भारतीय सेना को तकरीबन 20,000 सैनिक वहां तैनात करने पड़े थे। शर्त इसलिए होनी चाहिए ताकि पाकिस्तानी सेना एक बार फिर से नियंत्रण रेखा का उल्लंघन न कर सके। भारतीय सेना सियाचिन के हालात की आदी हो चुकी है, मगर पाकिस्तान के साथ ऐसा नहीं है। वहीं कारगिल में तो हालात हमारे लिए पाकिस्तान से अधिक विकट थे।
 
भारत में हर तरह के विचारों के लिए जगह है और ऐसे बुद्ध‍िजीवियों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि इस तरह के आदर्शवादी विचारों से हमें कोई खतरा नहीं है। पर जब एक वर्ग यह कहने लगे कि पाकिस्तान के साथ विश्वास पैदा करने के लिए कड़े मुकाबले में जीते गए हिस्से को पड़ोसी देश को सौंप दिया जाए, तो इसका प्रबल विरोध किया जाना चाहिए।