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Last Updated : शुक्रवार, 30 सितम्बर 2016 (13:55 IST)

जानिए, कैसे बनते हैं 'खतरनाक' पैरा स्पेशल फोर्स

जानिए, कैसे बनते हैं 'खतरनाक' पैरा स्पेशल फोर्स - Para para special forces Commando
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में घुसकर आतंकवादी शिविरों को तबाह करने वाले भारत के पैरा कमांडो फिलहाल सबसे ज्यादा सुर्खियों में हैं। लेकिन, यह शायद बहुत ही कम लोग जानते हैं कि उन्हें बहुत ही कठिन प्रशिक्षण के दौर से गुजरना पड़ता है। अपने ध्येय वाक्य 'बलिदान' को अपने कंधे पर सजाकर चलने वाले ये कमांडो विषम से विषम परिस्थितियों में भी अपने मिशन को अंजाम देते हैं। अर्थात असंभव को संभव बनाना इनकी आदत में शुमार है। 
इस तरह होता है चयन : पैरा स्पेशल फोर्स (एसएफ) बनने के लिए चयन सेना की विभिन्न रेजिमेंट्स में से ही होता है। इसमें अधिकारी, जवान, जेसीओ सहित विभिन्न रैंकों से सैनिक चुने जाते हैं। इनका अनुपात 10 हजार में से एक का होता है अर्थात पैरा एसएफ बनने के लिए 10 हजार में से एक सैनिक का चयन होता है। पैरा स्पेशल फोर्स बनने के लिए आवेदन ऐच्छिक होता है या कमान अधिकारी इसकी अनुशंसा करता है।
 
...और फिर शुरू होता है कठिनतम प्रशिक्षण : इनकी पहचान इनके सिर पर लगी महरून बैरेट (गोल टोपी) और ध्येय वाक्य 'बलिदान' से होती है। इसे हासिल करने के लिए बेहद मुश्किल प्रशिक्षण को पूरा करना होता है। इस कोर्स को पूरा करने वालों की औसत आयु 22 वर्ष है।  
 
90 दिनों के इस प्रशिक्षण को दुनिया के सबसे मुश्किल प्रशिक्षणों में से माना जाता है और इसमें भाग लेने वाले कुछ ही सैनिक इसे सफलतापूर्वक पूरा कर पाते हैं। इस प्रशिक्षण में मानसिक, शारीरिक क्षमता और इच्छाशक्ति का जबरदस्त इम्तिहान लिया जाता है। इस प्रशिक्षण के दौरान दिनभर में पीठ पर 30 किलो सामान जिसमें हथियार व अन्य जरूरी साजो-सामान लाद कर 30 से 40 किमी की दौड़, तरह-तरह के हथियारों को चलाना और बमों-बारूदी सुरंगों का प्रयोग आदि सिखाया जाता है। 
 
इस प्रशिक्षण में सबसे मुश्किल होते हैं 36 घंटे जिसमें बिना सोए, खाए-पीए एक मिशन को अंजाम देना होता है। इस मिशन में सैनिक की हर तरह से परीक्षा ली जाती है। असली गोलियों और बमों के धमाकों के बीच उन्हें दिए गए मिशन को अंजाम देना होता है। यदि कोई सैनिक सोता या खाता-पीता पकड़ा जाता है तो उसे या तो तत्काल निकाल दिया जाता है या पूरा कोर्स फिर से करवाया जाता है। इन 36 घंटों के दौरान उन्हें दुश्मन पर हमला करना, दुश्मन के हमले का सामना करना और किसी बंधक को छुड़वाने जैसे खतरनाक कामों को अंजाम देना पड़ता है। 
 
इन सबके साथ ही उन्हें इन कामों के दौरान हुई मामूली घटनाओं का भी बारीकी से ध्यान रखना पड़ता है। जैसे- फलां बंधक ने किस रंग के कपड़े पहने थे या जिस रास्ते से वे आए हैं, वहां कितने दरवाजे-खिड़की थे। इसका सबसे खतरनाक इम्तिहान होता है जब सैनिकों को डुबोया जाता है। दरअसल, यह उनके दिमाग से मौत का डर निकालने के लिए किया जाता है। जब सैनिक थककर चूर हो जाते हैं तो उन्हें एक कुंड में ले जाकर सांस टूटने तक बार-बार पानी में डुबोकर यह देखा जाता है कौन कितना सहन कर सकता है। जो भी इस परीक्षा में खरा नहीं उतर पाता, उसे प्रशिक्षण से निकाल दिया जाता है। कई बार तो उन्हें हाथ-पैर बांधकर पानी में फेंक दिया जाता है। अधिकतर सैनिक इन 36 घंटों के दौरान इस प्रशिक्षण से बाहर हो जाते हैं। 
 
इसके बाद आता है एक ऐसा इम्तिहान जो किसी पेशेवर मैराथन धावक के लिए भी बेहद मुश्किल है। इन्हें 100 किमी की 'इंड्युरेन्स रन' में भाग लेकर उसे पूरा करना होता है। 30 किमी के 2 और 10 किमी के चरणों में 16-17 घंटे में पूरी करनी होती है। इससे उनकी दृढ़ता और सहनशक्ति की परीक्षा ली जाती है। इस दौड़ को पूरा करने के बाद भी सैनिकों को कई तरह के प्रशिक्षणों से गुजरना पड़ता है। 
 
90 दिन के बाद प्रशिक्षण में भाग लेने वाले सदस्यों में से कुछ बिरले ही पैरा स्पेशल फोर्स की मेहरून बैरेट पहनने का हकदार होता है, इनका पूरा जीवन अपनी रेजिमेंट के ध्येय वाक्य 'बलिदान' पर आधारित होता है। हालांकि इस कठोर प्रशिक्षण की कसौटी पर 25 फीसदी सैनिक ही खरे उतर पाते हैं।
    
1971 में बदला लड़ाई का रुख : भारतीय सेना के इन्हीं 700 पैरा कमांडोज ने 1971 के भारत-पाक युद्ध में लड़ाई का रुख ही बदल दिया था। इनका सबसे अहम हथियार पैराशूट होता है। इनके पास दो पैराशूट होते हैं। पहला पैराशूट जिसका वजन 15 किलोग्राम होता है जबकि दूसरा रिजर्व पैराशूट जिसका वजन 5 किलोग्राम होता है। पैराशूट की कीमत 1 लाख से लेकर 2 लाख तक होती है। अगर किसी ऊँची बिल्डिंग के अन्दर आतंकी छुपे हों तो कैसे उन्हें खत्म करना है, पैरा कमांडो ये बात भली-भांति जानते है। 
 
सिर्फ डीजीएमओ से निर्देश : पैरा एसएफ अपने अभियान के दौरान सैन्य मुख्‍यालय (डीजीएमओ) से ही निर्देश प्राप्त करते हैं। इन्हें विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से भी ट्रेनिंग दी जाती है। घाटी और पहाड़ों में अलग ट्रेनिंग दी जाती है, जबकि रेगिस्तानी इलाकों में मिशन को अंजाम देने के लिए अलग प्रशिक्षण दिया जाता है।

कब हुई स्थापना... पढ़ें अगले पेज पर...

पैरा स्पेशल फोर्सेस : भारतीय सेना की इस इकाई की स्थापना 1966 में की गई थी। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान एक छोटे और तदर्थ बल को उत्तर भारत की इंफैंट्री इकाइयों से सैनिकों का चयन कर बनाया गया था। उस समय असकी कमान ब्रिगेड ऑफ गार्ड्‍स मेजर मेघसिंह के हाथों में थी। यह दुश्मन बलों के पीछे और साथ-साथ चला करती थी। इस बल के प्रदर्शन ने सत्ता में बैठे लोगों का ध्यान खींचा और एक गैर-परम्परागत बलों के गठन की जरूरत महसूस की गई। चूंकि कमांडो युद्धकौशल का पैराशूटिंग एक अभिन्न हिस्सा होता है इसलिए इसे पैराशूट रेंजीमेंट को स्थानांतरित कर दिया गया था। जुलाई, 1966 में नौवीं बटालियन, द पैराशूट रेजीमेंट (कमांडो) सेना की पहली विशेष ऑपरेशन्स इकाई थी।  
1 जुलाई, 1067 को 10 पैरा कमांडो का गठन किया गया। सबसे पहले 1971 के भारत-पाक युद्ध में इन्हें लगाया गया था। इस युद्ध में 9 पैरा कमांडो ने जम्मू-कश्मीर के मेंढर, पुंछ में हैवी गन बैटरी पर कब्जा कर लिया था। इसने 1984 के ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार में भी भाग लिया था। 80 के दशक में इसे श्रीलंका के गृहयु्द्ध में भी तैनात किया गया था और इसकी कार्रवाई को ऑपरेशन पवन कोडनेम दिया गया था। वर्ष 1988 के 'ऑपरेशन कैक्टस' में मालदीव्स और 1999 के कारगिल युद्ध में भी इसने हिस्सा लिया था।
 
भारतीय जलसेना : भारतीय नेवी ने एचएएल ध्रुव हैलीकॉप्टर से मैरीन कमांडोज (मारकोस) बनाए गए
मारकोस को इंद्र 2014 के युद्धाभ्यास के दौरान आईएनएस रणविजय की रेसक्यू बोट पर तैनात किए गए।
 
मारकोस : इस इकाई को 1987 भारतीय जलसेना ने बनाया था। 1988 के ऑपरेशन के दौरान इसने कार्रवाई में हिस्सा लिया। ऑपरेशन कैक्टस में सक्रिय रहे। इन्हें बुलर लेक पर तैनात किया गया जो कि आतंकवादियों की घुसपैठ का प्रमुख स्थान था।
 
वर्ष 2008 के मुंबई हमलों के दौरान मारकोस ने नेशनल सिक्यूरिटी गार्ड्‍स के साथ भाग लिया था। मारकोस का बेस अलीबाग में था और तब इसे जल्दी बुलाया जा सकता था लेकिन नौकरशाही की गलतियों के कारण इसकी तैनाती में देरी हुई थी।
 
मारकोस को सभी तरह के स्थलों में कार्रवाई करने की क्षमता थी, लेकिन इसे समुद्री अभियानों में विशेष दक्षता हासिल है। बल ने भारतीय वायु सेना के साथ संयुक्त अभ्यासों में हिस्सा लिया।
 
भारतीय वायु सेना :- 
गरुड़ कमांडो फोर्स : यह भारतीय वायुसेना की इकाई है जिसका फरवरी 2004 में अनावरण किया गया है। इसका प्रमुख कार्य वायुसेना के ठिकानों को आतंकवादी हमलों से बचाना है। गरुड़ के प्रशिक्षुओं को 72 हफ्तों का प्रशिक्षण दिया जाता है जो कि विशेष बलों में सबसे ज्यादा अवधि का है। पूरी तरह से गरुड़ का प्रशिक्षण काल लगभग तीन वर्ष होता है। पठानकोट एयरबेस पर आतंकवादी हमले के दौरान भी गरुड़ कमांडो ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
 
इसके विभिन्न दायित्व होते हैं। बेस प्रोटेक्शन फोर्स के तौर पर यह एयरफील्ड्‍स की सुरक्षा करती है और विपरीत परिस्थितियों में प्रमुख सम्पत्तियों को संभालती है। कुछ आधुनिक गरुड़ इकाइयों को आर्मी पैरा कमांडोज और नेवल मारकोस की तरह प्रशिक्षित किया जाता है ताकि वे दुश्मन क्षेत्रों में गहरे जाकर मिशनों को अंजाम दे सकें।
 
गरुड़ का काम खोज और बचाव भी है और यह दुश्मन के पीछे जाकर गिरे हुए एयरमैन और अन्य बलों का बचाव करते हैं। यह दुश्मन के एयर डिफेंस को भेदने, राडार को नष्ट करने, लड़ाई के दौरान नियंत्रण बनाए रखने, मिसाइलों और गोला बारूद के गाइडेंस में सहायता करती है। हवाई अभियानों में इनकी प्रमुख भूमिका होती है। यह भी सुझाव दिया गया है कि युद्ध के समय यह आक्रामक भूमिकाओं को भी निभाए। यह एयरबेसेज की तोड़फोड़, कमांडो हमलों से सुरक्षा करती है।
इनके अलावा कुछ अन्य बल :-
*स्पेशल फ्रंटियर फोर्स  
*कमांडो बटालियन फॉर रिजोल्यूट एक्शन (कोबरा)
*आईटीबीपी, विदेशों में भारतीय मिशनों की सुरक्षा करती है।
*एनएसजी, आतंकवाद रोधी इकाई
* स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप  
*ब्लैक केट कमांडो 
 
जानिए, कैसे बनते हैं 'खतरनाक' पैरा स्पेशल फोर्स 
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में घुसकर आतंकवादी शिविरों को तबाह करने वाले भारत के पैरा कमांडो फिलहाल सबसे ज्यादा सुर्खियों में हैं। लेकिन, यह शायद बहुत ही कम लोग जानते हैं कि उन्हें बहुत ही कठिन प्रशिक्षण के दौर से गुजरना पड़ता है। अपने ध्येय वाक्य 'बलिदान' को अपने कंधे पर सजाकर चलने वाले ये कमांडो विषम से विषम परिस्थितियों में भी अपने मिशन को अंजाम देते हैं। अर्थात असंभव को संभव बनाना इनकी आदत में शुमार है। 
 
इस तरह होता है चयन : पैरा स्पेशल फोर्स (एसएफ) बनने के लिए चयन सेना की विभिन्न रेजिमेंट्स में से ही होता है। इसमें अधिकारी, जवान, जेसीओ सहित विभिन्न रैंकों से सैनिक चुने जाते हैं। इनका अनुपात 10 हजार में से एक का होता है अर्थात पैरा एसएफ बनने के लिए 10 हजार में से एक सैनिक का चयन होता है। पैरा स्पेशल फोर्स बनने के लिए आवेदन ऐच्छिक होता है या कमान अधिकारी इसकी अनुशंसा करता है।
 
...और फिर शुरू होता है कठिनतम प्रशिक्षण : इनकी पहचान इनके सिर पर लगी महरून बैरेट (गोल टोपी) और ध्येय वाक्य 'बलिदान' से होती है। इसे हासिल करने के लिए बेहद मुश्किल प्रशिक्षण को पूरा करना होता है। इस कोर्स को पूरा करने वालों की औसत आयु 22 वर्ष है।  
 
90 दिनों के इस प्रशिक्षण को दुनिया के सबसे मुश्किल प्रशिक्षणों में से माना जाता है और इसमें भाग लेने वाले कुछ ही सैनिक इसे सफलतापूर्वक पूरा कर पाते हैं। इस प्रशिक्षण में मानसिक, शारीरिक क्षमता और इच्छाशक्ति का जबरदस्त इम्तिहान लिया जाता है। इस प्रशिक्षण के दौरान दिनभर में पीठ पर 30 किलो सामान जिसमें हथियार व अन्य जरूरी साजो-सामान लाद कर 30 से 40 किमी की दौड़, तरह-तरह के हथियारों को चलाना और बमों-बारूदी सुरंगों का प्रयोग आदि सिखाया जाता है। 
 
इस प्रशिक्षण में सबसे मुश्किल होते हैं 36 घंटे जिसमें बिना सोए, खाए-पीए एक मिशन को अंजाम देना होता है। इस मिशन में सैनिक की हर तरह से परीक्षा ली जाती है। असली गोलियों और बमों के धमाकों के बीच उन्हें दिए गए मिशन को अंजाम देना होता है। यदि कोई सैनिक सोता या खाता-पीता पकड़ा जाता है तो उसे या तो तत्काल निकाल दिया जाता है या पूरा कोर्स फिर से करवाया जाता है। इन 36 घंटों के दौरान उन्हें दुश्मन पर हमला करना, दुश्मन के हमले का सामना करना और किसी बंधक को छुड़वाने जैसे खतरनाक कामों को अंजाम देना पड़ता है। 
 
इन सबके साथ ही उन्हें इन कामों के दौरान हुई मामूली घटनाओं का भी बारीकी से ध्यान रखना पड़ता है। जैसे- फलां बंधक ने किस रंग के कपड़े पहने थे या जिस रास्ते से वे आए हैं, वहां कितने दरवाजे-खिड़की थे। इसका सबसे खतरनाक इम्तिहान होता है जब सैनिकों को डुबोया जाता है। दरअसल, यह उनके दिमाग से मौत का डर निकालने के लिए किया जाता है। जब सैनिक थककर चूर हो जाते हैं तो उन्हें एक कुंड में ले जाकर सांस टूटने तक बार-बार पानी में डुबोकर यह देखा जाता है कौन कितना सहन कर सकता है। जो भी इस परीक्षा में खरा नहीं उतर पाता, उसे प्रशिक्षण से निकाल दिया जाता है। कई बार तो उन्हें हाथ-पैर बांधकर पानी में फेंक दिया जाता है। अधिकतर सैनिक इन 36 घंटों के दौरान इस प्रशिक्षण से बाहर हो जाते हैं। 
 
इसके बाद आता है एक ऐसा इम्तिहान जो किसी पेशेवर मैराथन धावक के लिए भी बेहद मुश्किल है। इन्हें 100 किमी की 'इंड्युरेन्स रन' में भाग लेकर उसे पूरा करना होता है। 30 किमी के 2 और 10 किमी के चरणों में 16-17 घंटे में पूरी करनी होती है। इससे उनकी दृढ़ता और सहनशक्ति की परीक्षा ली जाती है। इस दौड़ को पूरा करने के बाद भी सैनिकों को कई तरह के प्रशिक्षणों से गुजरना पड़ता है। 
 
90 दिन के बाद प्रशिक्षण में भाग लेने वाले सदस्यों में से कुछ बिरले ही पैरा स्पेशल फोर्स की मेहरून बैरेट पहनने का हकदार होता है, इनका पूरा जीवन अपनी रेजिमेंट के ध्येय वाक्य 'बलिदान' पर आधारित होता है। हालांकि इस कठोर प्रशिक्षण की कसौटी पर 25 फीसदी सैनिक ही खरे उतर पाते हैं।
1971 में बदला लड़ाई का रुख : भारतीय सेना के इन्हीं 700 पैरा कमांडोज ने 1971 के भारत-पाक युद्ध में लड़ाई का रुख ही बदल दिया था। इनका सबसे अहम हथियार पैराशूट होता है। इनके पास दो पैराशूट होते हैं। पहला पैराशूट जिसका वजन 15 किलोग्राम होता है जबकि दूसरा रिजर्व पैराशूट जिसका वजन 5 किलोग्राम होता है। पैराशूट की कीमत 1 लाख से लेकर 2 लाख तक होती है। अगर किसी ऊँची बिल्डिंग के अन्दर आतंकी छुपे हों तो कैसे उन्हें खत्म करना है, पैरा कमांडो ये बात भली-भांति जानते हैं। 
 
सिर्फ डीजीएमओ से निर्देश : पैरा एसएफ अपने अभियान के दौरान सैन्य मुख्‍यालय (डीजीएमओ) से ही निर्देश प्राप्त करते हैं। इन्हें विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से भी ट्रेनिंग दी जाती है। घाटी और पहाड़ों में अलग ट्रेनिंग दी जाती है, जबकि रेगिस्तानी इलाकों में मिशन को अंजाम देने के लिए अलग प्रशिक्षण दिया जाता है।