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Last Updated :नई दिल्ली , गुरुवार, 11 मई 2017 (13:12 IST)

कश्मीर पर क्या है मोदी सरकार की नीति...

कश्मीर पर क्या है मोदी सरकार की नीति... - Modi government policy on Kashmir
नई दिल्ली। देश में हुए आम चुनावों और उसके बाद राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में प्रचार के दौरान नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर मोदी सरकार ने अपनी पीठ ठोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। सरकार का कहना था कि इस उपाय से घाटी में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद पर लगाम लग जाएगी। लेकिन आतंकी हमले रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद कहा गया था कि आतंकवादियों की कमर टूट जाएगी। कश्मीर में पत्थरबाजों की गतिविधियों पर रोक लग जाएगी और घाटी में सरकार लोगों से बातचीत करने के लिए आगे आएगी। लेकिन मोदी सरकार के तीन साल बीत जाने के बाद स्थितियां बद से बदतर हो गई हैं। उग्रवादियों की बर्बरता दिनोदिन बढ़ती जा रही है और आम आदमी पाकिस्तानपरस्त आतंकवादियों की हिंसक गतिविधियों में पिस रहा है। 
 
अभी तक तो कश्मीर में कथित तौर पर बेरोजगार युवा ही सेना पर पत्थरबाजी करते थे लेकिन पिछले दिनों में घाटी की लड़कियां भी सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी करने और भारत विरोधी नारे लगाने और पाकिस्तान, आईएस का झंडा फहराने में शामिल होने लगी हैं। लेकिन कश्मीर के शोपियां जिले में 9 मई को आतंकवादियों ने सेना के अधिकारी लेफ्टिनेंट डॉ. उमर फयाज का अपहरण कर लिया और फिर उनकी हत्या कर दी। मात्र 22 वर्षीय फयाज 6 माह पहले ही सेना में शामिल हुए थे। नौकरी लगने के बाद उन्होंने पहली बार किसी रिश्तेदार के शादी समारोह में शामिल होने के लिए छुट्‍टी ली थी। पुलिस ने बताया कि लेफ्टिनेंट उमर फयाज का शोपियां में उनके रिश्तेदार के घर से घसीटकर अपहरण कर लिया गया था और 10 मई की सुबह शोपियां जिले के हेरमैन इलाके से उनका गोलियों से छलनी हुआ शव बरामद हुआ।
 
अब सवाल ये है कि आखिर कश्मीर के पत्थरबाज नौजवान या फिर हाथों में हथियार उठाकर आतंक के रास्ते पर चल पड़े लोग किससे और किस बात के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं? क्या अलगाववादियों की कट्टर विचारधारा ने उनके जेहन को इस कदर अपाहिज बना दिया है कि अब उनकी सोचने-समझने की क्षमता खत्म हो चुकी है? सेना के खिलाफ नफरत की आग ने उन्हें इस कदर अंधा बना दिया है कि अब सेना की वर्दी में मुसलमान और कश्मीरी नौजवान होने का भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता?
 
सीमा पर लगातार आतंकी हमलों और जवानों की दुखद शहादत के बीच यह सवाल उठता है कि जिस सर्जिकल स्ट्राइक के बाद प्रधानमंत्री ने दावा किया था कि अब आतंकी हमले नहीं होंगे, उस दावे का क्या हुआ? नोटबंदी से और सर्जिकल स्ट्राइक से पाकिस्तानी समर्थित आतंकवाद की कमर टूट जाएगी लेकिन आतंकवाद की कमर के स्थान पर आम आदमी की कमर टूट गई है और लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं।
 
जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा के पंजगाम सेक्टर में 27 अप्रैल को आर्मी कैंप पर हुए आतंकी हमले में एक कैप्टन समेत तीन जवान शहीद हो गए थे। सेना की जवाबी कार्रवाई में दो आतंकी भी मारे गए थे। इसके पहले 17 अप्रैल को जम्मू एवं कश्मीर के पुंछ जिले में एलओसी हुई गोलीबारी में एक भारतीय जवान शहीद हो गया था। सीमा पर लगातार आतंकी हमलों और जवानों की दुखद शहादत के बीच यह सवाल उठता है कि जिस सर्जिकल स्ट्राइक के बाद प्रधानमंत्री ने दावा किया था कि अब आतंकी हमले नहीं होंगे, उन दावों का क्या हुआ?
 
इसी तरह आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक यानी नोटबंदी से नक्सलवाद और आतंकवाद का ख़ात्मा होने की घोषणा प्रधानमंत्री ने की थी, लेकिन हाल ही में नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 25 जवान शहीद हो गए। हैरानी की बात है कि जिस सर्जिकल स्ट्राइक पर प्रधानमंत्री ने जनता का समर्थन मांगा और उसी सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सीमा पर झड़पों, घुसपैठों, आतंकी हमलों, बैंक और सुरक्षाकर्मियों के हथियार लूटने और गोलीबारी की घटनाएं उल्लेखनीय स्तर तक बढ़ गई हैं।
 
एक अन्य आरटीआई के जवाब में गृह मंत्रालय ने बताया है कि जम्मू कश्मीर में अलगाववादी और आतंकवादी हिंसा के चलते पिछले तीन दशक में 40 हजार से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। 1990 से लेकर 9 अप्रैल 2017 तक यानी पिछले 27 सालों में अब तक आतंकवादी हमलों और अभियानों में 40961 लोग मारे गए हैं। इनमें स्थानीय नागरिक, सुरक्षा बल के जवान और आतंकवादी शामिल हैं। आंकड़ों के मुताबिक 1990 से 31 मार्च 2017 तक की अवधि में घायल हुए जवानों की संख्या 13502 हो गई है। मौतों की इस आंकड़ेबाजी में बढ़ोतरी के सिवा नरेंद्र मोदी सरकार की क्या उपलब्धि है?
 
कश्मीर में सुरक्षाबलों पर पत्थर बरसाने वाले और इस्लाम और कश्मीर की आजादी के नाम पर हाथों में हथियार उठा लेने वाले नौजवान अक्सर यह कहते नजर आते हैं कि उनकी लड़ाई कश्मीर की आजादी के लिए है, कश्मीर के लोगों के लिए है। लेकिन ताजा मामले की हैवानियत और हैवानों के हौसले ने साफ कर दिया है कि कश्मीर के लोगों के नाम पर लड़ाई लड़ने वाले ये राक्षस कश्मीर के लिए नहीं वरन कथित अलगावादियों और पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं को खुश करने के लिए ऐसा करते हैं।
 
अब सवाल ये है कि आखिर कश्मीर के पत्थरबाज नौजवान या फिर हाथों में हथियार उठाकर आतंक के रास्ते पर चल पड़े लोग किससे और किस बात के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं? क्या अलगाववादियों की कट्टर विचारधारा ने उनके दिमाग को इस कदर अपाहिज बना दिया है कि अब उनकी सोचने-समझने की क्षमता खत्म हो चुकी है। आर्मी के खिलाफ नफरत की आग ने उन्हें इस कदर अंधा बना दिया है कि अब आर्मी की वर्दी में मुसलमान और कश्मीरी नौजवान होने का भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता? 
 
अलगाववादी सोच वाले कथित बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने कश्मीर में तैनात सुरक्षाकर्मियों के बारे में नकारात्मक छवि बनाने की मुहिम छेड़ रखी है। जब भी पैलेट गन या जवाबी कार्रवाई में कश्मीरी नागरिकों की मौत होती है, तब यही माहौल बनाया जाता है कि भारतीय सुरक्षा बल वहां दमन कर रहे हैं जबकि हकीकत यह है कि घाटी में कानून-व्यवस्था की पहली ज‍िम्मेदारी जम्मू-कश्मीर पुलिस की है, जिसमें बहुसंख्य जवान राज्य के ही निवासी हैं।
 
जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन (कश्मीर) की पैलेट गन पर प्रतिबंध की मांग हाईकोर्ट में ख़ारिज होने के बाद इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ताओं से पूछा कि हमलावर भीड़ से निपटने के लिए क्या उपाय किए जाएं, वे ही सुझाव दें। कोर्ट यह ने सवाल भी उठाया कि 7  से 12 साल के बच्चे उग्र भीड़ में क्यों आते हैं? बच्चे भीड़ के आगे ही क्यों खड़े किए जाते हैं? कोर्ट ने आश्चर्य जताया कि सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में घायल होने वाले ज्यादातर युवा 13 से 20 और 20 से 24 साल के ही क्यों होते हैं?
 
भीड़ सरकारी और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है, सुरक्षा बलों पर हमला करती है, तो क्या जवान शांति से जान देते रहें? भीड़ का फायदा उठाकर आतंकी सुरक्षा बलों पर हथगोले फेंकते हैं, तो क्या पत्थर फेंकते युवाओं की भीड़ की वजह से जवान जान देते रहें? भीड़ शांति से खड़े युवाओं की नहीं, पत्थरबाज़ों की होती है। पिछले साल आठ जुलाई को आतंकी कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से 11 अगस्त के बीच सुरक्षा बलों पर 1522 हमले हुए। हमलों में 3777 सुरक्षाकर्मी घायल और दो जवान शहीद हो गए। 
 
पिछले साल 25 जुलाई तक पथराव की 1029 वारदातें हुईं। इनमें सुरक्षा बलों के 3550 जवान घायल हुए थे। जबकि इस दौरान घायल होने वाले उपद्रवियों की संख्या 2309 रही। यह भी सच है कि 48 नागरिकों की मौत हो गई, जबकि दो जवान शहीद हुए। घायल होने वालों में 1300 से ज्यादा सीआरपीएफ़ के जवान थे, जबकि 2230 से ज़्यादा जम्मू-कश्मीर पुलिस के। 30 जुलाई 2016 तक 317 उपद्रवी पैलेट गन से घायल हुए, जिनमें क़रीब आधे लोगों को आंखों पर चोट लगी। वर्ष 2015 में घाटी में 730 हिंसक प्रदर्शन हुए। जवाबी कार्रवाई में पांच नागरिकों की मौत हुई और 240 घायल हुए जबकि पथराव में 886 जवान घायल हुए। 
 
पिछले साल जुलाई तक घाटी में 152 आतंकी वारदात हुईं, जिनमें सुरक्षा बलों के 30 जवान शहीद हुए। जाहिर है कि पिछले साल 8 जुलाई के बाद से आतंकी वारदात और हिंसक प्रदर्शनों की संख्या में बेहद बढ़ोतरी हुई है। बहुत से कश्मीरी युवाओं ने बंदूकें थामी हैं तो सुरक्षा बलों के जवानों के शहीद होने का सिलसिला भी काफ‍ी बढ़ा है। इसकी बड़ी वजह पथराव करने वाली युवाओं की गुमराह भीड़ ही है। सच्चाई यह भी है कि अलगाववादियों ने हमेशा घाटी में चुनाव बहिष्कार की अपीलें की हैं, लेकिन पहले कभी इतना असर नहीं देखा गया। 
 
असल सवाल यह है कि क्या श्रीनगर उपचुनाव में केवल सात फीसदी वोटिंग चुनाव बहिष्कार की अपील का ही नतीजा है? हरग़िज नहीं। बड़े पैमाने पर हिंसा की सुनियोजित साजिश नहीं होती, तो इतनी कम वोटिंग नहीं होती। कोई भी आम आदमी जान हथेली पर लेकर वोट डालने नहीं निकलेगा। इसे अलगाववादियों और आतंकियों के हिंसक गठजोड़ के सुबूत के तौर पर महसूस किया जाना चाहिए। 
 
राज्य की कथित मुख्यधारा की सियासी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस भी चुनाव में हिंसक वारदात के लिए कम ज‍िम्मेदार नहीं है। श्रीनगर सीट पर मतदान के तुरंत बाद पार्टी नेता उमर अब्दुल्ला ने हिंसा के लिए मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती को ज‍िम्मेदार ठहरा दिया। अचरज है कि ऐसा करते वक़्त उन्हें अपने पिता और श्रीनगर सीट से पार्टी फारूक अब्दुल्ला के बयान याद नहीं आए। गत 25 फ़रवरी को श्रीनगर में फारूक ने कहा था कि कश्मीर के लड़कों ने आतंकवाद का रास्ता अपनाया है। उनका कहना था कि लड़कों ने खुदा से वादा किया है कि वे जान देकर भी मुल्क (कश्मीर) के लिए आजादी हासिल करेंगे। 
 
कश्मीरियों की नई पीढ़ी को बंदूकों का भी ख़ौफ़ नहीं। ये लोग मुल्क की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसी महीने 5 अप्रैल को फारूक बोले कि जो युवा पत्थरबाजी कर रहे हैं, उनका पर्यटन से कोई लेना-देना नहीं है। वे यह सब देश (कश्मीर) के लिए कर रहे हैं। वे जीवन कुर्बान कर रहे हैं ताकि समस्या का समाधान निकल सके। असल में हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने कश्मीरी युवाओं से अपील की थी कि या तो वे पर्यटन चुनें या आतंकवाद। 
 
कश्मीर के भारत में मिले रहने की समर्थक रही नेशनल कॉन्फ्रेंस का यह बदला रुख़ हिंसावादी सोच को बढ़ावा देना नहीं, तो और क्या है?  फारूक अब कश्मीर को अलग देश की तरह देख रहे हैं, तो यह महज चुनाव जीतने का हथकंडा मात्र नहीं, कुछ और है जिसे समझे जाने की ज़रूरत है। ये वही फारूक हैं, जिन्होंने बिजली चोरी के मामले में 3 मार्च 2014 को कहा था कि कश्मीरी चोर नहीं, महाचोर हैं।
 
बहुत से बुद्धिजीवी दलील देते हैं कि पत्थरों का जवाब गोली नहीं हो सकती और ‘भटकी हुई गोली’ हमेशा कश्मीरियों को ही क्यों लगती हैं? सच है कि पत्थरों का जवाब गोली नहीं हो सकती, लेकिन जवान जब गोलियों का मुक़ाबला गोलियों से कर रहे हों, तब अंधाधुंध बरसाए जाने वाले पत्थर क्या महज़ पत्थर होते हैं? जवान नागरिकों पर फायरिंग करने लगें, तो क्या इतनी कम मौतें होंगी? घाटी में रोज हजारों शव नज़र आएंगे। यह भी अंतिम रूप से सच है कि किसी समस्या का समाधान गोलियों से नहीं हो सकता। लेकिन क्या सेना एकतरफ़ा हिंसा होने दे? 
 
घाटी को अशांत बनाए रखने की पाकिस्तान की साज़िश पर आंखें बंद रखे? क्या शांति एकतरफ़ा प्रक्रिया है? कश्मीर के तमाम अखबार, बुद्धिजीवी, लेखक सुरक्षा बलों पर तोहमत लगाते रहते हैं, लेकिन कोई वहां के युवाओं को पत्थरबाजी छोड़ने की नसीहत नहीं देता। उन्हें गुमराह नहीं होने की सलाह नहीं देता। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का यह सवाल बहुत मायने रखता है कि किसी के लकड़ी के घर पर अगर कोई पेट्रोल बम फेंकेगा, तो घर के लोगों को क्या करना चाहिए?
 
इसलिए सबसे बड़ा सवाल है कि क्या हिंसा और बातचीत साथ-साथ चल सकती है? कश्मीर में पत्थरबाज़ उपद्रवियों पर पैलेट गन का इस्तेमाल प्रतिबंधित नहीं करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल का जवाब दे दिया है कि हिंसा और वार्ता एकसाथ नहीं हो सकते। जम्मू कश्मीर बार एसोसिएशन की पैलेट गन के ख़िलाफ़ अपील पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि घाटी के लोग पत्थरबाज़ी बंद कर दें, तो सरकार को पैलेट गन का इस्तेमाल नहीं करने का आदेश दिया जा सकता है। 
 
इससे पहले जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट भी पैलेट गन पर पाबंदी लगाने से इनकार कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के फैसले को ही चुनौती दी गई थी। विदित हो कि कि जम्मू कश्मीर बार एसोसिएशन ने घाटी के युवाओं से कभी ऐसी अपील नहीं की, कि वे पत्थरबाजी नहीं करें। एक और दिलचस्प बात यह है कि अलगाववादियों के समर्थक ज्यादातर कश्मीरी मीडिया में जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट को अक्सर कश्मीर हाईकोर्ट ही लिखा जाता है। कश्मीर को छोड़कर बाक़ी जम्मू कश्मीर राज्य की वकील बिरादरी के मुताबिक़ जम्मू कश्मीर बार एसोसिएशन को अलगाववादियों की कानूनी आवाज के तौर पर ही लेती है। 
 
जम्मू और लेह-लद्दाख में रहने वाले वकीलों की अपनी अलग बार एसोसिएशन है जिसका कश्मीर की बार एसोसिएशनों से कोई लेना-देना नहीं है। भारत के अटॉर्नी जनरल बार एसोसिएशन के रुख़ को अलगाववादियों के पक्ष में होने की बात सुप्रीम कोर्ट में कही भी है। उनके मुताबिक़ बार एसोसिएशन के हलफनामे में जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को ‘विवादास्पद’ कहा गया है। बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन से कहा है कि वह सभी स्टेकहोल्डरों से बातचीत कर घाटी में हिंसा रोकने का रोडमैप बताए।
 
आम भारतीय को लगता है कि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का घाटी पर काफ़ी असर है, लेकिन हकीक़त में ऐसा है नहीं। आम भारतीय के सामने जब कश्मीर समस्या की बात आती है, तो उसके ज़ेहन में घाटी में सियासी दल, अलगाववादी, आतंकवादी और सुरक्षा बलों की ही तस्वीर उभरती है। लेकिन जब हम सभी स्टेकहोल्डरों की बात करते हैं, तब पता चलता है कि केवल इतने पक्ष नहीं, बल्कि बहुत से पक्ष हैं, जिनकी बात मुख्यधारा के मीडिया में नहीं की जाती। ये पक्ष वे हैं, जो कश्मीर घाटी की जिंदगी को धड़काते हैं। मसलन वहां के स्कूलों की एसोसिएशन, व्यापार मंडल, पर्यटन व्यवसाय से जुड़े होटल, ट्रांसपोर्ट कारोबारियों के समूह, वहां काम कर रहे एनजीओ, साहित्यकार, संगीतकार, कलाकार और बुद्धिजीवी, शिक्षकों के संगठन, मोहल्ला कमेटियां, किसान-मंडियों के संगठन, खिलाड़ी वगैरह-वगैरह। इनमें से कोई नहीं चाहता कि घाटी में अशांति हो, क्योंकि इससे उनके कारोबार पर बहुत बुरा असर पड़ता है। इन सभी वर्गों के प्रतिनिधियों से अगर हिंसा रोकने पर गंभीरता से चर्चा की जाए, तो कई ठोस उपाय सामने आ सकते हैं।
 
लेकिन अलगाववादियों के सुरों में सुर मिलाने वाला कोई निकाय अगर ऐसी कोशिश करेगा, तो वह कितना गंभीर होगा? यह बड़ा सवाल है। यह बिल्कुल वैसा ही होगा, जैसे किसी कौव्वे को दूध की रखवाली का ज‍िम्मा सौंपना। लेकिन ऐसी ईमानदार कोशिशें कश्मीर की फिजा बदल सकती हैं, यह ज़रूर कहा जा सकता है। ऐसी ही एक कोशिश केंद्र सरकार के युवा मामलों के मंत्रालय और नेहरू युवा केंद्र संगठन यानी एनवाईकेएस ने दिल्ली में की, जिसका सकारात्मक असर देखने को मिला। 
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सलाह थी कि कश्मीर से बाहर रह रहे कश्मीरी युवाओं से बातचीत की जाए। इसके तहत दिल्ली और आसपास के इलाकों में रह रहे कश्मीरी युवाओं से संवाद स्थापित किया गया। मुझे यह देख-सुन कर अच्छा लगा कि समारोह में आए बहुत से कश्मीरी युवाओं ने खुलकर कहा कि वे सरकार से बात करने को तैयार हैं। सरकार को उनसे बात करनी चाहिए, क्योंकि मोदीजी को यह याद रखना चाहिए कि वर्ष 2019 में फिर एक बार आम चुनाव होने हैं और प्रधानमंत्री नहीं चाहेंगे कि उनकी पार्टी चुनाव हार जाए।