मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. खबर-संसार
  2. समाचार
  3. राष्ट्रीय
  4. Chhattisgarh Kashmir Terrorist
Written By
Last Modified: गुरुवार, 27 अप्रैल 2017 (18:23 IST)

छत्तीसगढ़ से लेकर कश्मीर तक एक ही आतंकी, इसलिए डरते हैं विकास से

छत्तीसगढ़ से लेकर कश्मीर तक एक ही आतंकी, इसलिए डरते हैं विकास से - Chhattisgarh Kashmir Terrorist
अगर आपसे पूछा जाए कि देश में सक्रिय इस्लामवादियों (कश्मीर घाटी) और बस्तर में सक्रिय माओवादियों में कितना अंतर है? आपको जानकर हैरानी होगी कि इन दोनों में कोई अंतर नहीं है वरन कई मामलों में दोनों पूरी तरह से एक हैं। इनकी रणनीति और उद्देश्यों में भी पूर्णरूपेण समानता है क्योंकि इन दोनों ही तरह के क्रांतिकारियों को विकास संबंधी कार्यों और शिक्षा के प्रसार से बहुत डर लगता है क्योंकि इन दोनों का ही प्रसार इनके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा सकता है।
 
आपको याद दिला दें कि 22 फरवरी को नई दिल्ली के रामजस कॉलेज में वामपंथी रुझान वाले छात्र संगठनों के गुट ने आजादी मांगे जाने के नारे लगाए थे। इसका वीडियो भी इंटरनेट पर वायरल हुआ है और कोई भी देख सकता है। अन्य नारों के साथ ही छात्रों ने नारे लगाए थे कि 'कश्मीर मांगे आजादी, बस्तर मांगे आजादी।' लेकिन देश के ये दोनों ही हिस्से क्यों और किससे आजादी मांग रहे हैं? उल्लेखनीय है कि इससे पहले जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र संघ से जुड़े गुट ने नारे लगाए थे कि 'कश्मीर मांगे आजादी, बस्तर मांगे आजादी' के भी नारे लगाए थे। आखिर इन दोनों ही संगठनों से जुड़े छात्रों के गुट ऐसी मांग क्यों न करें? दोनों की विचारधारा एक है और दोनों ही अलगाववादी गुटों को बढ़ावा देते हैं।
 
क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि कश्मीर घाटी के अलगाववादियों और बस्तर के माओवादियों के बीच का संबंध केवल नारेबाजी करने तक ही नहीं जुड़ा है। दोनों ही अलगाववादी गुट आतंकवादी कामों में लिप्त हैं और देश की सरकार को अस्थिर करने का काम करते हैं। इन दोनों ही संगठनों का उद्देश्य है कि माओवादियों के लिए बस्तर और उनके प्रभाव वाले सभी क्षेत्र आजाद हो जाएं, जबकि कश्मीरी इस्लामवादियों का उद्देश्य भी है कि जम्मू-कश्मीर भारत से अलग हो जाए। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बस्तर में माओवादियों और कश्मीर में इस्लामवादियों के काम करने के तरीके बिलकुल एक जैसे हैं।
 
इसका पहला कारण जान लीजिए। इन अलगाववादी संगठनों को क्षेत्र में होने वाले सभी विकास कार्यों से नफरत है और ये नहीं चाहते कि इनके प्रभाव वाले इलाके में बुनियादी सुविधाओं से जुड़ी सभी परियोजनाओं को बंद कर दिया। कोई सड़क या पुल न बनें। इसी कारण से छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के सुकमा जिले में सड़क निर्माण में लगे श्रमिकों, इंजीनियरों और ठेकेदारों को सुरक्षा देने के काम में लगे सीआरपीएफ की बटालियन पर हमला किया गया जिसमें कम से कम 25 जवान शहीद हो गए और आधा दर्जन से अधिक घायल हो गए। इससे पहले भी नक्सलियों ने सड़क निर्माण में लगे श्रमिकों, ठेकेदारों पर हमले किए हैं और निर्माण कार्यों में लगे उपकरणों तथा ट्रकों आदि को जला डाला।
 
इससे पहले कश्मीरी अलगाववादियों ने घाटी में बंद करा दिया क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि प्रधानमंत्री कश्मीर में बनी 10 किमी लंबी चेनानी-नाशरी सुरंग का उद्‍घाटन करें। स्पष्ट है कि माओवादियों और कश्मीर आतंकवादियों को आधारभूत विकास से डर लगता है क्योंकि निर्माण कार्यों के परिणामस्वरूप स्थानीय लोग मुख्यधारा से जुड़ेंगे और इससे इन लोगों की स्थानीय लोगों पर पकड़ कमजोर होगी।
 
कश्मीर के इस्लामी आतंकवादियों और बस्तर के माओवादियों को शिक्षा से भी डर लगता है। इन दोनों ही तरह के आतंकवादियों के लिए स्कूली बच्चों, किशोरों को जबरन भर्ती किया जाता है। अगर ये बच्चे, किशोर अशिक्षित होते हैं तो उन्हें आकर्षित करना सरल होता है, इसके लिए जरूरी है कि बच्चों, किशोरों और लड़कों को पत्थरबाजी सिखा दो, उन्हें स्कूलों, कॉलेजों में ही नहीं जाने दो और स्कूलों को आग के हवाले कर दो। जो बच्चे स्कूलों में पढ़ते हैं, उनमें पढ़ने-लिखने को लेकर चाहत होती है और वे शिक्षा के जरिए कुछ बनना चाहते हैं, लेकिन उन्हें ऐसा नहीं करने दिया जाता। 
 
इसी तरह अत्यधिक बुनियादी सुविधाओं को पाने के लिए क्षेत्र की आबादी को आतंकवादियों के रहमोकरम पर जीवित रहना पड़ता है। इस तरह के आतंकवादी लोगों की सबसे पहले बुनियादी सुविधाओं और शिक्षा तक पहुंच रोक देते हैं और उनके भावी विकास के सारे रास्ते रोक देते हैं। इसके बाद वे लोगों को समझाते हैं कि क्षेत्र में सरकार ने कोई विकास ही नहीं किया है इसलिए वे सरकार को सबक सिखाने के लिए हथियार उठा लें और इस तरह का तर्क का कश्मीर के इस्लामी आतंकवादी और बस्तर के माओवादी, दोनों ही देते हैं।
 
इसी तरह कश्मीर और बस्तर में महिलाओं को बच्चों को ह्यूमन शील्ड की तरह से इस्तेमाल किया जाता है और इनकी आड़ में पुलिस, सैन्य बलों पर हमला किया जाता है। जबकि सैन्य बलों पर हथियार चलाने वाले आतंकवादी इन लोगों के पीछे छिपे होते हैं। कश्मीर में सुरक्षा बलों को किसी तरह की कार्रवाई करने से रोकने के लिए स्कूली बच्चों और महिलाओं से कहा जाता है कि वे पत्थरबाजों के लिए कवर बनने का काम करें। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर चिंता जताई है कि सैन्य बलों का सामना करने के लिए कश्मीरी आतंकवादी बच्चों, किशोरों और महिलाओं का अधिकाधिक इस्तेमाल करते हैं।
 
इसी तरह बस्तर में जब माओवादियों के हमलावर दल हमला करते हैं तो सबसे पहले वे बच्चों और महिलाओं को आगे कर देते हैं। ऐसी ही उन्होंने सुकमा हमले के दौरान किया। लेकिन अन्य सैन्य बल जवाब में गोलियां चलाते हैं तो नक्सलियों और इस्लामी आतंकवादियों के समर्थक चीख-चीखकर कहते हैं कि 'मानवाधिकारों का दुरुपयोग' किया जा रहा है। नक्सलियों और इस्लामी आतंकवादियों के समर्थन में जनमत बनाने का काम इन दोनों ही आंदोलनों से जुड़े वे छद्म बुद्धिजीवी करते हैं जो कि इनकी हिंसा और बर्बरता को तर्कों का जामा पहनाते हैं।
 
जबकि इन आंदोलन करने वालों का सच यही है कि ये लोग कभी भी अपनी समस्याओं, परेशानियों और मुद्दों को लेकर सुलझाने के लिए कभी भी बातचीत, विचार-विमर्श का सहारा नहीं लेते हैं। भारत सरकार लोगों को मुख्यधारा में लाने के कितने ही प्रयास करती है लेकिन माओवादी, इस्लामी आतंकवादी पूरी ताकत से सरकारों के प्रयासों को असफल बनाने के कुचक्र रचते रहते हैं। क्योंकि ये बातें इनके हित में होती हैं कि स्थानीय आबादी, लोग अशिक्षित, गरीब, साधनहीन, दुखी और नाराज बने रहें।
 
कश्मीर के इस्लामी आतंकवादियों और बस्तर के नक्सलियों के बीच एक और बड़ी समानता यह होती है कि इन्हें साम, दाम, दंड और भेद के बल पर कुछ लोगों का समर्थन मिल ही जाता है। इन दोनों के ही समर्थक वे बुद्धिजीवी होते हैं जो कि जेएलएनयू, टाटा इंस्टीट्‍यूट ऑफ सोशल साइंसेज, अखबारों, टीवी चैनलों के दफ्तरों में रहते हुए इनकी प्रचार सामग्री बनाने का काम करते हैं। ये बुद्धिजीवी इन आतंकवादियों की हिंसा, बर्बरता, घृणित कामों को बौद्धिक ज्ञान के बल पर उचित और न्यायपूर्ण ठहराने का काम करते हैं।
 
जिस तरह लड़ाई के मैदान में शस्त्रों, गोला-बारूद, युद्धकला व रणनीति अहम होती है, उसी तरह से लड़ाई की सफलता एक वैचारिक युद्ध पर भी निर्भर करती है। आतंकवादियों, नक्सलियों के लिए वैचारिक युद्ध लड़ने का काम वे 'शहरी गुरिल्ले' होते हैं जोकि यूनिवर्सिटीज, शैक्षिक संस्थानों में इनकी हिंसा, बर्बरता और कायराना कृत्यों को वैध ठहराते हैं और अपनी कहानियों के जरिए इन बर्बर राक्षसों के चारों ओर 'रोमांटिक आभामंडल' तैयार करते हैं जिससे प्रभावित होकर बहुत से अधकचरी समझ वाले युवा इनके साथ हो जाते हैं। ये लोग 'भाषण की स्वतंत्रता' के नाम पर देश के तोड़ने के नारे लगाते हैं और बुरहान वानी जैसे आतंकवादी का मानवीकरण कर उसे 'शहीद और स्वतंत्रता सेनानी' करार देते हैं।
 
सोचिए कि बुरहान वानी जैसे आतंकवादी को 'कश्मीर का हीरो' बनाने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को यूएन के मंच तक का इस्तेमाल करना पड़ा और कश्मीरियों को बताना पड़ा कि उनका असली हितैषी तो पाकिस्तान ही है। बस्तर के इन हत्यारों को 'महान संत' बनाने के लिए अरुंधति रॉय जैसे लेखक इन आतंकवादियों को 'गांधियंस विद गन्स' तक बताते नहीं थकते। वास्तव में, कश्मीर और बस्तर की लड़ाई भारत के शहरों में लड़ी जा रही है जो कि 'रियल ट्रबल स्पॉट्‍स' से हजारों मील दूर हैं। यह लड़ाई समाचार चैनलों के न्यूज स्टूडियोज, यूनिवर्सिटीज, कॉलेजों, सेमिनारों और विचार गोष्ठियों में लड़ी जा रही है।
 
हथियारों का ट्रिगर दबाने वाले हाथ भले ही माओवादियों, इस्लामी आतंकवादियों के हों लेकिन इनका गोला-बारूद उन शहरी आतंकवादियों द्वारा तैयार किया जाता है जो कि सरकारों में, शिक्षण संस्थानों में, मीडिया में, फिल्मों और टीवी में हर जगह पाए जाते हैं। वास्तव में, हथियार चलाने वाली कठपु‍तलियां भले ही बस्तर या कश्मीर में हों लेकिन जेएनयू के कन्हैया कुमार और उसकी बुरहान वानी प्रेमी गिरोह हमारे ही आसपास रहता है और इन्हें हम छात्र नेताओं के तौर पर जानते हैं।
ये भी पढ़ें
एक मुस्लिम पुरातत्वविद जिन्होंने बचाए 200 मंदिर