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Written By Author सुशोभित सक्तावत
Last Updated : शनिवार, 11 मार्च 2017 (17:52 IST)

ना अगड़े, ना पिछड़े, अबकी बार केवल हिंदू

ना अगड़े, ना पिछड़े, अबकी बार केवल हिंदू - analysis on UP asambly election 2017
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में जो कुछ हुआ है, उसे सीधे सियासी समीकरणों से समझना बहुत कठिन है। यह एक ऐसी सुनामी है, जिसके पीछे ज़रूर कोई ना कोई भूकंप रहा होगा और अब उस भूकंप की तफ़्तीश करना विश्लेषकों के लिए बहुत ज़रूरी हो गया है। 
 
एक तथ्य जो असंदिग्ध रूप से उभरकर सामने आ रहा है, वो यह है कि इन चुनावों में उत्तर प्रदेश के हिंदू मतदाताओं में अगड़े पिछड़े का विभाजन जैसे पूरी तरह से समाप्त हो गया था। अब वे केवल हिंदू मतदाता थे। नतीजा वही रहा, जो बहुसंख्यक आबादी के भीतर इस तरह के समीकरण के निर्मित होने पर हो सकता है।
 
जब चुनावों के लिए प्रचार का दौर शुरू हुआ और पार्टियों के बीच गठबंधन के समीकरण बनने लगे तो मतदाताओं को यह देखकर भारी कोफ़्त हुई कि भाजपा को छोड़कर लगभग हर पार्टी केवल इस बात को लेकर चिंतित है कि मुसलमानों के वोट किसको मिलेंगे, मानो ये चुनाव केवल मुसलमानों के लिए हो रहे हों। सोशल मीडिया पर इसको लेकर जताई जा रही निराशा से आम आदमी के मिजाज़ का पता चला था। बहुजन समाज पार्टी ने तो बाक़ायदा प्रेसवार्ता में देश को बताया कि उन्होंने कितने मुसलमानों को चुनाव में टिकट दिया है, जबकि भाजपा ने एक को भी नहीं दिया। भाजपा ठीक यही चाहती थी। 
 
ध्रुवीकरण की राजनीति का आरोप भाजपा पर हमेशा से लगाया जाता रहा है, लेकिन इस बार भाजपा ने ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को अति तक जाने में अपनी ओर से भी योगदान दिया। राम मंदिर का मुद्दा उसके चुनावी एजेंडे में शामिल था। दूसरी तरफ़ पिछड़ा वर्ग के केशवप्रसाद मौर्य जहां भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष थे, वहीं स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पिछड़ा पृष्ठभूमि को भुनाने में कभी पीछे नहीं रहे। भाजपा द्वारा मतदाताओं को दिया गया संदेश दो तरह का था। एक तो यह कि अब जाति, धर्म से ऊपर उठकर विकास के लिए मतदान करने का समय आ गया है। दूसरा एक परोक्ष संदेश यह कि अगर मुसलमान एकजुट होकर टैक्ट‍िकल वोटिंग कर सकते हैं तो हिंदू क्यों अगड़े और पिछड़ों में अलग-थलग हों।
 
भाजपा ने जिस तरह से एक भी मुसलमान को टिकट तक नहीं दिया और मुख्तार अब्बास नक़वी और शाहनवाज़ हुसैन जैसे अपने अल्पसंख्यक चेहरों को जिस तरह से चुनाव से दूर रखा, उससे यह साफ़ था कि भाजपा इन चुनावों में दिखावे के लिए भी मुसलमानों के वोट पाने की कोशि‍श नहीं कर रही है। नतीजा था जाति और वर्ग के विभाजन के परे हिंदुओं का तीखा ध्रुवीकरण। संदेश था भारत में रहने वाले मुसलमान चुनावी राजनीति को हर बार ही मैनिपुलेट नहीं कर सकते। 
 
भाजपा ने अपने लिए 240-45 सीटें जीतने की उम्मीद इस रणनीति के आधार पर लगा रखी थी, जिससे उसे स्पष्ट बहुमत मिलता। लेकिन अगर उसे 320 से ज़्यादा सीटों के साथ एक अभूतपूर्व जनादेश मिला है, तो उसका कारण अब यही नज़र आ रहा है कि शायद मुसलमानों, ख़ासकर मुसलमान महिलाओं और दलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा, यादवों ने भी भाजपा के पक्ष में वोट दिया है। इतनी बड़ी क़ामयाबी की उम्मीद तो भाजपा को भी नहीं थी।
 
2014 लोकसभा चुनाव में इसी उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 80 में से 73 सीटें जीतकर देश की राजनीति को हिला दिया था। बाद उसके दिल्ली और बिहार के चुनाव परिणामों से ऐसा लगा जैसे भाजपा का विजयरथ थम गया है और मोदी लहर क्षीण हो गई है। लेकिन उत्तर प्रदेश में यह करिश्माई जीत दर्ज कर भाजपा ने साबित कर दिया है कि देश के मतदाताओं की नब्ज़ पर वह हाथ रखने में क़ामयाब रही है। साथ ही वह नोटबंदी के फ़ैसले पर भी मतदाताओं का समर्थन पाने में सफल रही। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सबसे बड़ी राहत तो इसी से मिली होगी क्योंकि नोटबंदी का निर्णय उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ था। इन मायनों में इसे मोदी की निजी जीत भी कहा जा सकता है। मोदी ने जोखिम उठाया था, मोदी को ही मतदाता का आशीर्वाद मिला है।
 
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