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Written By वार्ता

अयोध्या विवाद:फैसला थोड़ी देर में

अयोध्या विवाद
देश में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था तथा शांति और सद्भाव बनाए रखने की अपीलों के बीच इलाहाबाद उच्च न्यायालय की विशेष लखनऊ पीठ दोपहर 3:30 र अयोध्या विवाद के मालिकाना हक का बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाएगी।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की विशेष लखनऊ पीठ यह फैसला साढ़े तीन बजे सुनाएगी। न्यायालय में चल रहे इस मुकदमें में 89 गवाहों के 14036 पृष्ठ के बयान दर्ज हुए हैं। मानस पटल को प्रभावित करने वाला देश का यह सबसे बड़ा मुकदमा है। इस मामले में सोलह जनवरी 1950 से मुकदमें की प्रक्रिया शुरू हुई थी।

उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ की विशेष पूर्णपीठ में इस मामले की 21 साल सुनवाई चली। इस दौरान 13 बार विशेष पूर्णपीठ तथा 18 न्यायाधीश बदले गए।

पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ शंकर रे, भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता तथा उच्चतम न्यायालय के वकील रवि शंकर प्रसाद, जफरयाब जिलानी, जनता पार्टी के अध्यक्ष और अर्थशास्त्री डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी कृष्णामनि, के.एन.भट्ट, हरिशंकर जैन, अजय पाण्डेय, मुकुल रोहतगी, जी. राजगोपालन, राकेश पाण्डेय और ए.पी. श्रीवास्तव समेत करीब 40 अधिवक्ताओं ने इस मामले में बहस या जिरह की।

इस मामले में न्यायालय को मुख्यरूप से चार बिन्दुओं को संज्ञान में लेकर अपना निर्णय सुनाना है। पहला विवादित धर्मस्थल पर मालिकाना हक किसका है। दूसरा श्रीराम जन्मभूमि वहीं है या नहीं। तीसरा क्या 1528 में मन्दिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनी थी और चौथा यदि ऐसा है तो यह इस्लाम की परम्पराओं के खिलाफ है या नहीं।

आजाद भारत में इस विवाद ने 16 जनवरी 1950 को मुकदमें की शक्ल ली। बाइस-तेइस सितम्बर 1949 की रात विवादित ढाँचे के तीन गुम्बदों में से बीच वाले में रामलला की मूर्ति रख दी गई थी। रामलला की पूजा अर्चना विधिवत चलने के लिए 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद की जिला अदालत का दरवाजा खटखटाया था। तब से ही यह मामला अदालत में था।

फैजाबाद के तत्कालीन अपर जिला न्यायाधीश एन.एन. चन्द्रा ने इसकी इजाजत दे दी। इसके साथ ही न्यायालय ने वहाँ रिसीवर भी नियुक्त कर दिया। सन् 1959 में निर्मोही अखाड़े ने रिसीवर की व्यवस्था समाप्त कर विवादित स्थल को उसे सौंपने के लिए फैजाबाद की ही जिला अदालत में मुकदमा किया।

सन् 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड और मोहम्मद हाशिम अंसारी समेत आठ अन्य मुस्लिमों ने विवादित धर्मस्थल को मस्जिद घोषित करने और रामलला की मूर्ति हटाने के लिए वाद दायर किया।

सन 1989 में देवकी नन्दन अग्रवाल भी इस मामले से जुड़े गए और उन्होंने विवादित धर्मस्थल को रामलला विराजमान की सम्पत्ति घोषित करने की याचिका उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में दाखिल की।

मामले के जल्दी निपटारे के लिए केन्द्र सरकार की पहल पर राज्य के महाधिवक्ता ने उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की जिसकी वजह से फैजाबाद में चल रहे सारे मामलों को 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के हवाले किया गया।

सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड ने अपने पक्ष से 36 गवाहों को पेश किया जिसमें आठ बहुसंख्यक सुमदाय से थे। इस मामले में सबसे पहली गवाही मोहम्मद अंसारी की 197 पृष्ठ की हुई। अंसारी की गवाही 24 जुलाई से शुरू होकर उसी साल 29 अगस्त 1996 तक चली।

वक्फ बोर्ड की तरफ से सर्वाधिक 288 पृष्ठ की गवाही सुरेश चन्द्र मिश्र की रही जबकि सबसे कम 64 पृष्ठ में रामशंकर उपाध्याय ने अपना बयान दर्ज कराया।

फैजाबाद की जिला अदालत में शांतिपूर्ण ढंग से चल रहे इस मामले में नया उफान उस समय आया जब एक फरवरी 1986 को जिला जज कृष्ण मोहन पाण्डेय ने विवादित ढाँचे के गेट पर लगे ताले को खोलने का आदेश अधिवक्ता उमेश चन्द्र पाण्डेय की याचिका पर दे दिया। इस आदेश को तीन फरवरी 1986 को मोहम्मद हाशिम अंसारी ने उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में चुनौती दे दी। इससे पहले 1984 में श्रीराम जन्मभूमि यज्ञ समिति के कूदने से इस आन्दोलन ने तूल पकड़ा।

कानूनी दाँवपेचों में उलझे इस मामले में छह दिसम्बर 1992 को बड़ा मोड़ आया और विवादित ढाँचा ध्वस्त कर दिया गया। ढाँचा ध्वस्त होने के बाद केन्द्र सरकार ने सात जनवरी 1993 को संसद से कानून बनाकर 67 एकड़ से अधिक जमीन का अधिग्रहण कर लिया।

अधिग्रहण के इस अधिनियम के खिलाफ सेन्ट्रल सुन्नी बोर्ड, अक्षय ब्रह्मचारी, हाफिज महमूद एखलाख और जामियातुल उलेमा-ए-हिन्द ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने सभी याचिकाओं को उच्चतम न्यायालय भेज दिया। इस बीच उच्च न्यायालय में पहले से चल रहे मुकदमों की सुनवाई भी रुकी रही।

उच्चतम न्यायालय ने 24 अक्टूबर 1994 को अयोध्या मामले से जुडे सन्दर्भ को राष्ट्रपति को वापस भेज दिया। इसके बाद जनवरी 1995 में इस मामले की सुनवाई उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में फिर से शुरू हो गयी। उच्चतम न्यायालय ने अधिग्रहीत परिसर में यथास्थिति बनाए रखने के भी सख्त आदेश दिए।

मामले को जल्दी निपटाने के लिए उच्च न्यायालय ने मार्च 2002 में प्रतिदिन सुनवाई करने का निर्णय लिया। न्यायालय ने पाँच मार्च 2003 को अधिग्रहीत परिसर में पुरातात्विक खुदाई के आदेश दिए।

खुदाई 12 मार्च से सात अगस्त 2003 तक चली। उसी वर्ष 22 अगस्त को पुरातत्व विभाग ने अपनी रिपोर्ट न्यायालय को सौंप दी। दावा किया गया था कि पुरातात्विक खुदाई में प्राचीन मूर्तियों और कसौटी के पत्थरों के अवशेष मिले हैं।

रिपोर्ट की मुखालफत करने के लिए मुस्लिम पक्ष ने न्यायालय में आठ गवाह पेश किए जिसमें से छह हिन्दू थे, जबकि रिपोर्ट के पक्ष में याची देवकी नन्दन अग्रवाल की ओर से चार गवाह पेश हुए।

11 अगस्त 2006 को मुस्लिम पक्ष की ओर से पुरातात्विक रिपोर्ट के खिलाफ आपत्तियों के सम्बंध में गवाहियों का क्रम समाप्त हो गया। अग्रवाल की ओर से पुरातात्विक रिपोर्ट के पक्ष में 17 अगस्त 2006 से 23 मार्च 2007 तक गवाही चली।

सन् 1991 में मामले के एक प्रमुख वादी परमहंस रामचन्द्र दास ने अपना वाद वापस ले लिया था इसलिए उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने मूलरूप से चार वादों पर ही सुनवाई की। इसी वर्ष गत 26 जुलाई को इस मामले की सुनवाई पूरी हुई।

सुनवाई पूरी करने के दूसरे दिन न्यायालय ने दोनों पक्षों के वकीलों को बुलाकर सुलह-समझौते से निपटाने का अवसर दिया। न्यायालय ने कहा कि यदि समझौते से मामले का हल निकालने की कोशिश होती है तो विशेष कार्याधिकारी के समक्ष अर्जी दी जा सकती है।

इस सम्बंध में पक्षकार संख्या 17 रमेश चन्द्र त्रिपाठी की अर्जी 15 सितम्बर को आयी, लेकिन इससे पहले आठ सितम्बर को न्यायालय ने 24 सितम्बर को साढ़े तीन बजे फैसला सुनाने का ऐलान कर दिया। 17 सितम्बर 2010 को न्यायमूर्ति एस. यू.खान और न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने त्रिपाठी की याचिका खारिज कर दी और उन पर हर्जाने के रूप में 50 हजार रुपए जुर्माना ठोक दिया।

विशेष पीठ के तीसरे न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने दोनों की राय से अपने को अलग किया और 20 सितम्बर को शर्मा ने हर्जाने की राशि तीन हजार कर दी तथा पक्षकारों को सुलह-समझौते के लिए 23 सितम्बर तक का समय दे दिया।

याची त्रिपाठी ने उच्च न्यायालय के बहुमत के आधार पर आए इस फैसले के खिलाफ 21 सितम्बर को उच्चतम न्यायालय में अपील की। उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर और न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक की खण्डपीठ ने दोपहर बाद याची को दूसरी खण्डपीठ में जाने की सलाह दी और याचिका पर सुनवाई से इन्कार कर दिया। दूसरी पीठ ने उच्च न्यायालय के 24 सितम्बर को फैसला सुनाए जाने के आदेश को 28 सितम्बर तक स्थगित कर दिया।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ की विशेष पूर्णपीठ द्वारा आज फैसला सुना दिए जाने के बाद लगभग 60 साल से चल रहे इस मुकदमे के फैसले का आज पहला पड़ाव पार हो जाएगा।(वार्ता)