मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
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नई कविता : नदी और मैं ....

नई कविता : नदी और मैं .... - webdunia blog
एक नदी बहती है
मेरे भीतर, अनवरत 
पुण्य सलिला-सी स्निग्ध
मंद-मंथर बहाव,
सिर्फ सतह पर।

कौन जाने गहराई में इसके 
कितने भंवर समाए हैं। 
डूबती-उतरती हूं मैं, निरुपाय 
कितना वेग है 
इसके प्रवाह में,
तटबंध तोड़ने को आतुर। 
मै थामे रहती हूं,
इस अतिरेकी जलधारा को।
जानती हूं, तटबंधों का टूटना 
विनाश का पर्याय है। 
अर्घ्य देती हूं नेत्रकोरों से।
उफनती धारा, उत्पाती भंवर 
विराम लेते हैं कुछ क्षण, 
और नदी फिर बहने लगती है 
पुण्य सलिला-सी।