ओमप्रकाश ‘मधुर’
आपके घर के तमस का सूर्य है दोषी नहीं,
कूप का दादुर कहाता आत्म-संतोषी नहीं
जब खड़ी दीवार होगी रवि-किरन को डांटकर ,
जब धरा विक्षिप्त होगी आसमा को बांटकर।
शीश, धड़, कर पैर में
जब तक समन्वय है नहीं सांस लेकर भी मृतक सम
जीव, संशय है नहीं।
मांग कर जो पेट भरता, क्रान्ति-उद्घोषी नहीं
ये कहां की रीत है जिसको चुना, उसने धुना
आह हम भरते रहे, उसने किया सब अनसुना।
सब्र की भी एक सीमा है,
जिसे हम छोड़कर, विप्लवी यदि हो गए
सब बंधनों को तोड़कर।
क्योंकि पोषी लोक के, तंत्र के पोषी नहीं
कायरों, गद्दार लोगों की
कमी कोई नहीं,चल रहे हैं ,
पांव के नीचे ज़मीं कोई नहीं
क़ौम को मुर्दा न होने दो
वतन के वालिओ, देखना, पौधे न मुरझाएं
चमन के मालियों।
ओ सुरा के सेवको!तुम हो सुधा-कोषी नहीं
आप के घर के तमस का सूर्य है दोषी नहीं....