हिन्दी कविता : मैं हूं यहीं ...
निशा माथुर
चांदनी में नहा लूं इतना,
अपनी दोनों बाहों में,
आसमां को,
भर ना लूं मैं कहीं...
शबाब की उमंगें,
जब शोखी पर हों,
नूर की वादियों में दूर,
निकल न जाऊं, मैं कहीं...
चांद को हौले से,
अपनी अंगुली में भर,
उसमें अपना अक्स,
निहार न लूं, मैं कहीं...
हिमखंडों की पिघलती
बर्फ पर,
सूरज की तपिश,
बन न जाऊं, मैं कहीं...
इस बहती नदी ने,
सिमटा दिया है,
वजूद मेरा इस कदर,
किनारे पर...
मैं यह सोच रही,
मैं हूं यहीं या
और मैं कहीं....