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Written By Author अनिल जैन

उत्तरप्रदेश में एजेंडा हिन्दुत्व का, झंडा विकास का

उत्तरप्रदेश में एजेंडा हिन्दुत्व का, झंडा विकास का - Uttar Pradesh government, BJP, Uttar Pradesh assembly elections
अब इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी उत्तरप्रदेश विधानसभा का चुनाव विकास या सुशासन के नाम पर नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ हिन्दुत्व से जुड़े उग्र नारों और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के हथकंडों के बूते लड़ेगी। 
इस बात का स्पष्ट संकेत उसने हाल ही में इलाहाबाद में अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के जरिए देकर करीब 8 महीने बाद होने वाले चुनाव के लिए अपनी तैयारी का आगाज भी कर दिया है। 
 
हालांकि अगले साल पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी विधानसभा के चुनाव होने हैं, जो भाजपा के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं हैं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति और खासकर 2019 के आम चुनाव में दिल्ली की सत्ता बरकरार रखने के लिहाज से 'उत्तरप्रदेश' उसके लिए एक तरह से 'प्रश्न प्रदेश' बना हुआ है। आम समझ भी यही कहती है कि दिल्ली के सत्ता-सिंहासन का रास्ता लखनऊ से ही होकर गुजरता है। 
 
उत्तरप्रदेश के चुनाव के लिहाज से भाजपा कार्यकारिणी की बैठक के इलाहाबाद में होने के कई राजनीतिक मायने हैं। इलाहाबाद का पौराणिक और ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्व है ही, राजनीतिक लिहाज से भी उसका खासा महत्व है। इसलिए गंगा, यमुना और सरस्वती की संगम स्थली 'प्रयागराज' यानी इलाहाबाद भाजपा के लिए महज अपनी बैठक का आयोजन स्थल नहीं था। 
 
बैठक के लिए हिन्दू आस्था के इस केंद्र के चयन को हिन्दुत्व की ध्वजाधारी पार्टी की चुनावी तैयारी के एक प्रतीक के तौर पर भी देखा जा सकता है। चुनावी तैयारी के मद्देनजर ही देखा जाए तो इलाहाबाद ऐसे भौगोलिक बिंदु पर स्थित है, जहां से उत्तरप्रदेश के विभिन्न इलाकों में सीधे संदेश पहुंचाया जा सकता है।
 
इस 2 दिवसीय राजनीतिक अनुष्ठान में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने जो बातें मोटे तौर पर कही, उनसे ऐसा लगता नहीं कि पार्टी के पास देश के इस सबसे बड़े और महत्वपूर्ण सूबे के लिए कोई विशेष कार्ययोजना या रणनीति है। 
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बैठक के दोनों दिन सिर्फ और सिर्फ विकास का मंत्रोच्चार किया तो पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और कलराज मिश्र, मेनका गांधी, किरेण रिजूजू आदि नेताओं ने कैराना के बहाने हिन्दुत्व का तराना जोर-शोर से गुनाया। 
 
इससे संकेत यही मिला कि पार्टी यहां उसी रणनीति के तहत चुनाव मैदान में उतरेगी जिसके सहारे उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में विस्मयकारी और ऐतिहासिक कामयाबी हासिल की थी। उस चुनाव में भी नरेन्द्र मोदी हर जगह विकास की बात कर रहे थे तो अमित शाह और दूसरे नेता मुजफ्फरनगर दंगे के बहाने हिन्दुत्व के मुद्दे को हवा देकर जोर-शोर से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों में जुटे थे।
 
दरअसल, उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद भाजपा के समक्ष दूसरी बड़ी चुनौती है। पहली चुनौती बिहार के चुनाव थे जिसमें भाजपा और उसके सहयोगी दलों को करारी शिकस्त खानी पड़ी थी। 
 
उत्तरप्रदेश भाजपा के लिए ऐसा सूबा है, जहां पिछले लोकसभा चुनाव को छोड़ दिया जाए तो पार्टी डेढ़ दशक से भी अधिक वक्त से तीसरे नंबर पर रहते हुए अपनी खोई हुई ताकत फिर से हासिल करने के छटपटा रही है। 
 
हालांकि पार्टी इस बार उत्तरप्रदेश को बिहार की तुलना में ज्यादा आसान मैदान मान रही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि यहां बिहार की तरह विपक्ष एकजुट नहीं है, और हो भी नहीं सकता। पार्टी को शायद यह भी अंदाजा है कि उसका पारंपरिक मतदाता उसका साथ नहीं छोड़ेगा और उसे किसी भी हालत में न मिलने वाले मुस्लिम वोटों का बंटवारा होगा। शायद इसी भरोसे की वजह से अभी तक केंद्र सरकार की ओर से उत्तरप्रदेश के लिए किसी बड़ी परियोजना का ऐलान नहीं किया गया है। 
 
जाहिर है कि भाजपा के रणनीतिकार मानकर चल रहे हैं कि उत्तरप्रदेश की राजनीतिक जमीन हिन्दुत्व की खेती के लिए पर्याप्त उर्वर है और उस पर थोड़ी-सी मेहनत से ही वोटों की फसल लहलहा सकती है, ठीक असम की तरह।
 
गौरतलब है कि असम विधानसभा के चुनाव में भाजपा हिन्दू-बांग्लादेशी टकराव की रणनीति को विकास के साथ जोड़कर सर्बानंद सोनोवाल के रूप में एक नए और साफ-सुथरे चेहरे के साथ मैदान में उतरी थी। इसके अलावा कांग्रेस से बगावत कर आए हिमांतो बिस्व सरमा जैसे जमीनी नेता का साथ मिलने से उसका काम आसान हो गया था। 
 
उत्तरप्रदेश में भी वह हिन्दुत्व की राजनीति के तहत सांप्रदायिक टकराव, राम मंदिर और गंगा की सफाई जैसे हथकंडों का रसायन तैयार कर और उसे विकास के साथ जोड़ते हुए असम वाले प्रयोग को दोहराने का इरादा रखती है। यही वजह है कि उसने इलाहाबाद में कैराना का मुद्दा जोर-शोर से उठाया। 
 
कैराना से कुछ लोगों का पलायन चाहे जिस वजह से हुआ हो, लेकिन उसे सांप्रदायिक रंग देकर भाजपा ने साफ कर दिया है कि वह चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से कतई परहेज नहीं करने वाली है। 
 
चुनावी मुद्दों को लेकर भाजपा जहां जरा भी दुविधा में नहीं है, वहीं नेतृत्व के सवाल पर पार्टी के सामने गंभीर संकट है। पार्टी दुविधा में है कि मुख्यमंत्री के रूप में वह किस चेहरे को आगे करे? हालांकि उसके पास सूबे में नेताओं की कमी नहीं है, लेकिन मुख्यमंत्री पद के लिए कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। उसके पास ऐसा भी कोई नेता नहीं है जिसकी कोई खास छवि बनी हो। यानी उसके पास न तो मुलायम सिंह यादव जैसा पिछड़ों का कोई सर्वमान्य नेता है, न ही मायावती की तरह कोई दलित ऑइकन और सख्त प्रशासक की छवि वाला नेता। मुलायम और मायावती जमीन से जुड़े राजनीतिक लड़ाके हैं।
 
भाजपा की समस्या यह है कि उसने प्रदेश में ऐसा कोई नेता विकसित ही नहीं किया। अलबत्ता उसके पास हिन्दुत्व के नाम पर वाचाल और ऊलजलूल बयानबाजी करने वाले नेताओं की भरमार है। ऐसे नेता और कुछ भी कर सकने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन पार्टी का चेहरा बनकर प्रशासक के तौर पर प्रदेश को नेतृत्व कतई नहीं दे सकते। 
 
ऐसे में भाजपा के सामने यही रास्ता बचता है कि उत्तरप्रदेश के चुनाव मैदान में वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कंधे पर सवार होकर ही उतरे और उनके प्रतीक का ही इस्तेमाल करे। हालांकि इस रणनीति की भी सीमाएं हैं, जो बिहार के विधानसभा चुनाव में उजागर हो चुकी हैं।
 
सक्षम और सर्वमान्य चेहरे की समस्या की तरह ही पार्टी के समक्ष एक और चुनौती वोटों के लिए सोशल इंजीनियरिंग की है। लोकसभा का चुनाव तो लहर का चुनाव था, सो उसे उसमें ज्यादा समस्या नहीं आई लेकिन विधानसभा चुनाव में कोई लहर पैदा होने वाली नहीं है।
 
ऐसे में पार्टी के सामने सवाल है कि वह अपने पारंपरिक सवर्ण जनाधार के साथ दलितों और पिछड़ों को कैसे जोड़े? न तो इसके लिए उसके पास कोई सुविचारित रणनीति है और न ही ऐसा कोई नेता जिसके नाम पर ये तबके एकजुट हो सके।
 
इन सारी चुनौतियों के बावजूद इलाहाबाद की बैठक में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने जो भाषण दिए, उनसे साफ हो गया कि वे अपने कार्यकर्ताओं के साथ ही प्रदेश के लोगों को भी यह संदेश देना चाहते हैं कि भाजपा अब उत्तरप्रदेश में तीसरे या चौथे नंबर की नहीं, बल्कि नंबर एक पर रहने यानी सत्ता हासिल करने की लड़ाई लड़ने जा रही है। 
 
वैसे भाजपा को अभी तक उन्हीं सूबों में सत्ता हासिल कर पाने में कामयाबी मिल पाई है, जहां-जहां उसका सीधा मुकाबला कांग्रेस से रहा है। जहां कहीं उसका मुकाबला क्षेत्रीय ताकत साथ हुआ है, उसे मुंह की खानी पड़ी है, चाहे वह बिहार हो या पश्चिम बंगाल या फिर तमिलनाडु। उत्तरप्रदेश में भी उसे ऐसी ही चुनौती से रूबरू होना है।
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