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Written By Author उमेश चतुर्वेदी
Last Modified: गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017 (16:17 IST)

सैनिकों के मामले पर गैर संजीदा रिपोर्टिंग

सैनिकों के मामले पर गैर संजीदा रिपोर्टिंग - Soldier, Indian troops, reports
2003 में अचानक दिल्ली में बलात्कार और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की कहानियां कुछ ज्यादा ही आने लगी थीं। उन दिनों एक सवाल उभरा कि क्या महानगरों में एक अपराध होता है और वह सुर्खियां बनता है तो क्या उसी तरह के अपराध के लिए अपराधी प्रेरित होते हैं?
 
उन दिनों आमोद कंठ दिल्ली पुलिस में बड़े ओहदे पर तैनात थे। यह सवाल जब उनके सामने आया तो उनका कहना था कि नहीं, अपराध से अपराधी प्रेरित नहीं होते, बल्कि एक तरह का अपराध जब सुर्खियां बनता है तो मीडिया उसी तरह के अपराधों की कहानियों को खोज-खोजकर सुर्खियां बनाने लगता है।
 
नए साल के शुरुआती स्वागत जश्न को बीते अभी पहला हफ्ता ही हुआ था कि एक समाचार कथा पहले सोशल मीडिया पर अवतरित हुई और उसके बाद देखते ही देखते सनसनीखेज कहानियों की तलाश में लगातार जुटे रहने वाले खबरिया चैनलों की सुर्खियां बन गईं। वह कहानी थी बीएसएफ के एक जवान तेजबहादुर यादव की।
 
जम्मू-कश्मीर में भारत-पाक के बीच नियंत्रण रेखा पर तैनात तेजबहादुर यादव ने वीडियो जारी करके अपने अफसरों पर खराब खाना देने का आरोप लगाया था। अभी यह खबर परवान चढ़ती कि देहरादून में तैनात सेना के जवान यज्ञप्रताप सिंह का वीडियो सामने आ गया जिसमें उन्होंने आरोप लगाया था कि सेना के अफसर उनसे जूते पॉलिश कराते हैं और अपने कुत्ते घुमाने का काम कराते हैं। 
 
समाज से स्वस्थ बहस भले ही गायब होती जा रही हो, लेकिन टेलीविजन चैनलों पर गलाफाड़ू बहस प्रतियोगिताएं रोज ही होती हैं। अक्सर शाम को 5 बजे से शुरू होने वाले प्राइम टाइम में टेलीविजन चैनलों पर बहसें शुरू हो गईं। सेना में अफसरों की मनमानी, जवानों से बदसलूकी, उनकी छुट्टियों में कटौती और इन सबको लेकर तनाव में आ रहे जवानों की समस्याओं को लेकर सरकारी तंत्र, रक्षा मंत्रालय, केंद्र सरकार आदि की लानत-मलामत बढ़ गई।
 
2014 में नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी से ही परेशान बैठे मीडिया के एक वर्ग को भी मसाला हाथ लग गया। उसने सोशल मीडिया से लेकर जगह-जगह तक सवालों की बौछार शुरू कर दी। इसे लेकर सवाल भी उठने लगे। सोशल मीडिया पर तो मोदी-विरोधी ब्रिगेड ने तंज तक कसना शुरू कर दिया कि देशप्रेम का दंभ भरने वाली सरकार क्यों चुप बैठी है? वहीं दूसरी तरफ मीडिया के इस सनसनीखेजीकरण का भी विरोध होने लगा। 
 
खबरों को सनसनी बनाने को लेकर टेलीविजन पर सवालों के घेरे कम नहीं रहे हैं। बीएसएफ में लंबे समय तक कार्यरत रहे पूर्व सब इंस्पेक्टर जनार्दन यादव कहते हैं कि भ्रष्टाचार की कहानियां कहां नहीं हैं? लेकिन अपने दशकों तक की नौकरी में उन्हें कहीं खराब खाना नहीं मिला जबकि वे भी कच्छ के रण से लेकर कश्मीर की बर्फीली वादियों तक में तैनात रहे हैं। 
 
यादव का कहना है कि तेजबहादुर यादव जिस जगह पर तैनात हैं, वहां पर हालात ऐसे नहीं रहते कि मैदानी इलाकों जैसा खाना मिल सके। मीडिया को इसका भी ध्यान रखना चाहिए। यह सच है कि कच्छ का रण हो या हिमाचल की बर्फीली वादियां, वहां तैनात सैनिकों को उचित खाना और पानी मिलना ही चाहिए लेकिन वहां के स्थानीय हालात का ध्यान रखा ही जाना चाहिए। 
 
यह बात और है कि पूरी खबरों के बीच यह सचाई सामने नहीं आई कि बीएसएफ और सीआरपीएफ जैसे केंद्रीय बलों के मेस उनके जवान ही चलाते हैं और इसके लिए वे खुद ही मासिक तौर पर खर्च वहन करते हैं। अगर खाना खराब मिलता है तो उसकी जिम्मेदारी एक हद तक उन जवानों की भी है, जो हर इलाके में अपना मेस खुद चलाते हैं। सेना की तरह अर्द्धसैनिक बलों में सेना की तरफ से ही मेस नहीं होता। तेजबहादुर की खबर चलाते वक्त मीडिया के ज्यादातर हलकों ने इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। 
 
लेकिन जयपुर में रहने वाली कथाकार उमा का कहना है कि सैनिकों की शहादत के बाद जब लाखों-करोड़ों दिए जाते हैं लेकिन वे जिंदा रहें, उस पर क्यों नहीं ध्यान दिया जाता? सैनिक ठंड और भूख से मरें, ऐसी कहानियां सामने आनी ही चाहिए। ऐसी मान्यता है कि ऐसी खबरें सामने आने के बाद बदलाव आता है, जो ज्यादातर सकारात्मक ही होता है, लेकिन जानकार इस मान्यता को खारिज करते हैं।
 
लेकिन अमेरिका के चर्चित टेलीविजन शो 'द डेली शो' के प्रस्तुतकर्ता जॉन स्टीवर्ट इस चलन को गलत मानते हैं। उनका कहना है कि नए दौर की पत्रकारिता का यह सनसनीखेजकरण गलत चीज है। इससे सही परिप्रेक्ष्य में समस्याओं को समझने में मदद नहीं मिल रही। यही बात मीडिया विशेषज्ञ जोसेफ एंथोनी गाथिया भी अपनी पुस्तक मीडिया और सामाजिक बदलाव की प्रस्तावना में कहते हैं- 'आज के युग में मीडिया सनसनीखेज खबरों के पीछे भाग रहा है जबकि वास्तविक करुणा का अभाव है, क्योंकि वास्तविक करुणा वहां पैदा हो सकती है, जहां दूसरे को अपने जितना, बल्कि अपने से ज्यादा समझने के संस्कार डाले जाते हैं।' उनका स्पष्ट मानना है कि ऐसी खबरों से पाठकों या दर्शकों की भूख तो मिटाई जा सकती है, लेकिन उसका सकारात्मक नतीजा हकीकत में नहीं हो सकता। 
 
सैनिकों की खबरों के आरोपों को कुछ ज्यादा ही तरजीह देने का असल फायदा तो यही होना चाहिए, न कि उनकी भूख को वाजिब मंचों पर उठाया जाए। उनकी सहूलियतों को बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव बने। एक हद तक सैनिकों की खबरों से ऐसा दबाव बना भी। सैनिकों को बतौर सहायक काम करने की परिपाटी पर विचार भी शुरू हुआ। 
 
लेकिन यह भी सच है कि सैनिकों की कहानियों को करुणा की चाशनी में पेश नहीं किया गया, बल्कि उसे बेचने के लिए मीडिया ने इस्तेमाल किया। आमतौर पर सेना आदि की कहानियों को सनसनीखेज तरीके से पेश करने पर मीडिया स्वत: पाबंदी लगाता रहा है लेकिन बाजारवाद के दौर में यह पाबंदी कुछ ज्यादा ही टूट रही है। इस दौरान एक बात और सामने आ रही है, वह यह कि इसे सरकार की नाकामी के तौर पर दिखाया जा रहा है। लेकिन सैनिकों की अपनी बदजुबानी, अपनी गलतियों आदि को तरजीह नहीं दी जा रही। इससे शायद समाचार कथा के कमजोर होने का खतरा बढ़ जाता है। 
 
तेजबहादुर के भी मामले में देखा गया कि सही कहानी पूरी तरह टीवी चैनलों पर नहीं आई। अनुशासनहीनता के चलते उनके खिलाफ पहले कई बार कार्रवाई हो चुकी थी। उन्होंने पता नहीं अपने साथ हुई नाइंसाफी को कितनी बार उचित मंचों पर उठाया था। लेकिन एक बात जरूर सामने आई कि उन्होंने वीआरएस ले लिया था। 31 जनवरी से उनके रिटायर होने की मंजूरी मिल चुकी थी। जब उन्होंने अपना भविष्य सुरक्षित कर लिया तो वीआरएस मिलने के ठीक 21 दिन पहले उन्होंने खराब खाने की शिकायत वाला वीडियो जारी किया। इससे उनकी मंशा पर भी सवाल उठे लेकिन इसकी खबरों में चर्चा नहीं दिखी।
 
भारत और पाकिस्तान के बीच जिस तरह की तल्खी है, उसमें पाकिस्तान ऐसे हर मौके की तलाश में रहता है जिन्हें वह तरजीह दे और उसके जरिए भारतीय सैनिकों के मनोबल को कमजोर कर सके। पाकिस्तान की जैसी फितरत रही है, उससे साफ है कि उसने इस मामले का अपने ढंग से इस्तेमाल जरूर किया होगा। 
 
मीडिया से पहले ऐसे मामलों पर संतुलित रिपोर्टिंग की अपेक्षा रहती थी। भूमंडलीकरण के दौर में पारदर्शिता के नाम पर इसे भी तिलांजलि दे दी गई है। वैसे भी न्यू मीडिया के बढ़ते दबाव के दौर में ऐसा संभव भी नहीं है। इसके बावजूद अब भी मुख्यधारा की मीडिया पर ही सार्वजनिक राय निर्भर करती है इसलिए ऐसे मामलों पर संजीदा और संतुलित रिपोर्टिंग की उससे उम्मीद करने का आधार अब भी है।