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Written By WD

फूलों की महक से सजा संजा पर्व

फूलों की महक से सजा संजा पर्व - Sanja Festival
संजय वर्मा "दृष्टि''
 
संजा पर्व, मालवा, निमाड़ ,राजस्थान ,गुजरात के क्षेत्रों में कुंवारी कन्याएं सोलह दिनों तक गोबर से दीवार पर विभिन्न कलाकृतियां बनाती हैं तथा उसे फूलों व पत्तियों से श्रृंगारित करती हैं। वर्तमान में संजा का रूप फूल-पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है। संजा का पर्व आते ही कुंवारी कन्याओं व युवतियों में  खुशी की लहर दौड़ जाती है।

 
संजा को कैसे मनाना है, यह परंपरा छोटी कन्याओं को बड़ी बालि‍काएं बताती हैं। शहरों में सीमेंट की इमारतें और दीवारों पर महंगे रंग पुते होने, गोबर का अभाव ,लड़कियों का ज्यादा संख्या में एक जगह एकत्रित न हो पाने की वजह से एवं टीवी, इंटरनेट का प्रभाव और पढ़ाई के चलते शहरों में संजा पर्व मनाने का चलन खत्म सा हो गया है। लेकिन गांवों-देहातों में आज भी पेड़ों की पत्तियां, तरह-तरह के फूल, रंगीन कागज, गोबर आदि की सहज उपलब्धता से यह पर्व मनाना, शहर की तुलना में आसान है । 
 
परंपरा को आगे बढ़ाने की सोच में, बेटियों की कमी से भी इस पर्व पर प्रभाव पड़ा है। इसलिए कहा भी गया है कि - बेटी है तो कल है। किसी ने ठीक ही रचा है - "आज शहर में भूली पड़ीगी है म्हारी संजा, घणी याद आवे है गांव की सजीली संजा...अब बड़ी हुई गी पण घणी याद आवे गीत।  संजा, म्हारी पोरी के भी सिखऊंगी बनानी संजा, मीठा -मीठा बोल उका व सरस गीत गावेगी संजा "। 
 
हम उम्र सहेलियों के साथ संजा, गीतों से गुलजार होती क्वार की शामों को और भी मनमोहक बना देती है। वहीं छोटे भाई भी प्रसाद खाने की लालसा में संजा के गीत गुनगुना लेते हैं और बहनों के लिए संजा को दीवारों पर सजाने में उनकी मदद करते हैं। संजा से कला का ज्ञान प्राप्त होता है। पशु-पक्षियों की आकृति बनाना और उसे दीवारों पर चिपकाना, गोबर से संजा माता को सजाना और किलाकोट, जो संजा के अंतिम दिन में बनाया जाता है, उसमें पत्तियों, फूलों और रंगीन कागज से सजाने पर संजा बहुत सुंदर लगती है। बालिकाएं संजा के लोक गीत को गाकर संजा की आरती कर प्रसाद बांटती हैं।
 
" संजा तू थारा घर जा ,थारी माय मारेगी कि‍ कूटेगी, चांद गयो गुजरात। …संजा माता जिम ले। …छोटी-सी गाड़ी लुढ़कती जाए जी में बैठी संजा बाई जाए, आदि श्रंगार रस से भरे लोक गीत जिस भावना और आत्मीयता से गाए जाते हैं, उससे लोक गीतों की गरिमा तो बनी ही रहती है, ये विलुप्त होने से भी बचे हुए हैं । 
 
मालवा-निमाड़ की लोक परंपरा अनुसार श्राद्ध पक्ष के दिनों में कुंवारी बालिकाएं, मां पार्वती से मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए पूजन अर्चन करती हैं। विशेषकर गांवों में संजा ज्यादा मनाई जाती है। संजा मनाने की यादें, बालिकाओं के विवाहोपरांत गांव /देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती है और यही यादें उनके व्यवहर में प्रेम, एकता और सामंजस्य का सृजन करती हैं।
 
संजा सीधे-सीधे हमें पर्यावरण से, अपने परिवेश से जोड़ती है, तो क्यों न हम इस कला को बढ़ावा दें और इसे विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जाएं। वैसे  उज्जैन में संजा उत्सव पर संजा पुरस्कार सम्मान भी दिया जाता है। साथ ही महाकालेश्वर में उमा साझी महोत्सव भी प्रति वर्ष मनाया जाता है। कुल मिला कर संजा पर्व से जुड़ी हमारी संस्कृति एक अनमोल धरोहर है, जिसे सहेजने की आवश्यकता है। क्योंकि संजा देती है कला, ज्ञान, संस्कार एवं मनोवांछित फल.....