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आंकड़ों से गरीबी मिटातीं सरकारें...

आंकड़ों से गरीबी मिटातीं सरकारें... - poverty alleviation
आंकड़ों का नाम सुनकर सबसे पहले दिमाग में जो चीज उभरती है, वो है ऊंचे-नीचे ग्राफ और  रेखाओं का जाल। वास्तव में यह जाल भारत की जनता को फंसाने के लिए सरकारें देश की  आजादी के बाद से ही फैलाती आ रही हैं और जनता भी बिना हाथ-पैर मारे इस जाल में फंस  ही जाती है।
 
ये आंकड़ों के जाल बड़े ही शातिराना ढंग से बनाए जाते हैं जिनमें सरकारें हर हाल में  जनतारूपी मछलियों को फंसाती हैं और ये जाल इतनी बारीकी से बुने जाते हैं कि फंसे होने  के बावजूद जनता को महसूस ही नहीं होता कि वह इस जाल में फंसी हुई है। 
 
ऐसा नहीं है कि केवल सरकारें ही इसमें शामिल होती हैं, बल्कि इसमें सरकार के साथ  विभिन्न एजेंसियां जैसे बैंकें, जिन पर जनता के भविष्य को उज्ज्वल करने का दारोमदार  होता है, को भी इसमें शामिल किया जाता है या कहें कि वे भी खुद शिकार का आनंद लेने  के लिए इसमें शामिल हो जाती हैं।
 
भारत में गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य के लिए आजादी के बाद से ही सरकारें सतत प्रयत्नशील  रही हैं फिर चाहे वे इस लक्ष्य के आसपास भी न फटक पाई हों, परंतु आंकड़ों के जाल  बिछाकर वे हम-आपको यह समझाने में सफल हो जाती हैं कि उन्होंने लक्ष्य का कुछ भाग  प्राप्त कर लिया है। फिर नए वित्त वर्ष के लिए नई योजनाओं का जाल बिछना शुरू हो  जाता है।
 
पिछली यूपीए सरकार के समय में गरीबी रेखा का सूचकांक जारी किया गया था, जो कि एक  निश्चित अंतराल पर केंद्र सरकार द्वारा प्रतिपादित किया जाता है जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में  रहने वाला कोई व्यक्ति यदि 672.8 रुपए प्रति महीने अर्थात 22.42 रुपए प्रतिदिन कमाता  है तो वो गरीब नहीं है। वास्तविक रूप से यह गरीबी का मजाक उड़ाने के अलावा और कुछ  नहीं है। पर जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं कि यह आंकड़ों का जाल है और जनता को तो  फंसना ही है।
 
अब बात करते हैं बैंक की। सामान्य तौर पर बैंक लोगों के धन को अपने पास जमा करके  उस धन पर कुछ प्रतिशत ब्याज खाताधारक को देते हैं और बहुत से खाताधारकों के धन को  एकत्र करके दूसरे व्यवसायों में लगाते हैं जिससे वे ज्यादा ब्याज कमाते हैं।
 
अब आंकड़ों के जाल की असल बात यह है कि वर्तमान केंद्र सरकार ने नोटबंदी के बाद  'कैशलेस अभियान' छेड़ा हुआ है जिस पर बहुत जोर-शोर से केंद्र सरकार प्रचार-प्रसार कर रही  है जिसमें बैंकों को भी शामिल किया गया है।
 
बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्र के लिए बचत खाते में न्यूनतम धन की उपलब्धता प्रतिमाह 1,000  रुपए निर्धारित की है, जो कि यदि कम हुई तो उस पर दंडस्वरूप शुल्क काटा जाएगा और 4  बार से अधिक कैश निकालेंगे तो उस पर भी शुल्क लगेगा। अब आप डिजिटल पेमेंट करने  को बाध्य होंगे। इसका तात्पर्य समझे आप? शायद नहीं। 1,000 रुपए प्रतिमाह से पूरे वर्ष में  आपके खाते में 12,000 रुपए आपको हर हाल में मेंटेन रखने होंगे और अतिरिक्त शुल्क से  बचने के लिए आप डिजिटल पेमेंट भी करेंगे। 
 
जाहिर-सी बात है तो अब 12,000 को 365 से भाग दीजिए तो आता है 32.87 रुपए  प्रतिदिन यानी गरीबी सूचकांक से 10 रुपए ज्यादा। तो अब आप गरीब नहीं रहे, अमीर हो  गए हैं और सरकार आंकड़ों के जाल में फंसाकर आने वाले कुछ सालों में खुद अपनी पीठ  थपथपाकर शाबासी दे लेगी और आप आंकड़ों के जाल में उलझे ही रह जाएंगे।
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