गुरुवार, 28 मार्च 2024
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Written By Author डॉ. नीलम महेंद्र

बवाल की राजनीति करते नेता

बवाल की राजनीति करते नेता - Politics, politicians, assembly election
बचपन में हमें एक कौमा के प्रयोग से किसी वाक्य का अर्थ कैसे बदला जाता है, इस उदाहरण से  समझाया गया था, 'रुको, मत जाओ', और  'रुको मत, जाओ'। कुछ इसी प्रकार का प्रयोग इस चुनावी मौसम मेंजयपुर फेस्टीवल में संघ प्रचारक मनमोहन वैद्य के आरक्षण के संबंध में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर के साथ पूरे देश की मीडिया और विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने किया।
 
कार्यक्रम का संचालन राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ पर किताब लिख रहीं प्रज्ञा तिवारी कर रही थीं और उन्‍होंने मनमोहन वैद्य से इस देश की राजनीति में एक बेहद ही 'संवेदनशील' मुद्दे पर प्रश्न पूछा। लेकिन शायद वैद्य इस प्रश्न में छिपी 'विस्फोटक सामग्री' और किसी 'विस्फोट' का इंतजार करती मीडिया के इरादे भांप नहीं पाए, इसलिए इसे एक साधारण सा प्रश्न समझकर उतनी ही सरलता से इसका उत्तर दे दिया।
 
इस सवाल का जवाब देते हुए मनमोहन वैद्य ने कहा कि हमारे समाज में जो पिछड़ा वर्ग है उनके साथ केवल किसी जाति विशेष में पैदा होने के कारण जो भेदभाव किया गया, उसे दूर करने के लिए हमारे संविधान में आरक्षण का प्रावधान है, जो कि एक सेवा है लेकिन इसके आगे अन्य आरक्षण देना अलगाववाद बढ़ाने वाली बात है, इसलिए सबको समान अवसर दिए जाएं, इसके उपाय अन्य तरीके ढूंढे जाएं।
 
अब अगले दिन के अखबारों की हेडलाइन देखिए- 
'खत्म हो आरक्षण : संघ' 
'आरक्षण खत्म हो, संविधान में सेक्यूलर शब्द पर पुनर्विचार की आवश्यकता : वैद्य'। आदि
नेताओं से इस प्रकार की प्रतिक्रिया अपेक्षित होती है, लेकिन मीडिया! उसने यह अज्ञानतावश किया है ऐसा सोचना मूर्खता ही होगी, लेकिन सोचिए अगर यह सोच-समझकर किया गया है तो किस मकसद से किया गया?
 
मीडिया और राजनेता दोनों ही अपने-अपने स्वार्थों की रक्षा करने में देश को लगातार गुमराह करने में लगे हैं। अगर आप इस खेल को समझना चाहते हैं तो आपको अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस विषय पर सोचना होगा, क्योंकि यहां बात किसी राजनीतिक दल के समर्थन या विरोध की न होकर इस देश के  हित की है।
 
इसके लिए आपको केवल इतना करना है कि उनके द्वारा कहे गए शब्दों को एक बार अपनी आंखें बंद करके फिर से सुनें लेकिन यह कल्पना करते हुए कि लालू प्रसाद यादव बोल रहे हैं। क्या लालू प्रसाद यादव के मुख से भी हम उस वाक्य का यही अर्थ निकालेंगे?
 
चलिए, एक बार फिर हम आंखें बंद करके इस वाक्य को सुनने की कोशिश करते हैं, लेकिन इस बार हम अपनी कल्पना में इसे सुश्री मायावतीजी के पावन मुख से सुनने की कोशिश करते हैं। क्या हुआ? क्या अब भी हमने इसका वो ही अर्थ निकाला जो मनमोहन वैद्य अथवा एक संघ प्रचारक के मुख से सुनने के बाद निकाला गया?
 
दरअसल, शब्द इतने महत्वपूर्ण नहीं होते जितना यह तथ्य कि यह किसके मुख से निकले हैं। किन्तु विषय यहां यह है कि एक आम आदमी अपने पूर्वाग्रहों के बंधन में बंधकर किसी भी वक्तव्य को समझे इसमें कोई आपत्ति नहीं लेकिन दुर्भाग्‍य यह है कि उसे हमारे देश में न सोचने का समय दिया जाता है, न ही मौका।
 
इससे पहले कि वह किसी बयान को पढ़ या सुनकर समझ भी पाए, मूल बयान के विरोध या पक्ष में  (सुविधानुसार) इतनी प्रतिक्रियाएं और बयानों की बाढ़ आ जाती है कि मूल बयान को तो लोग न पढ़ पाते हैं, न समझ पाते हैं अगर कुछ समझ पाते हैं तो केवल इतना कि 'कुछ विवादित' हो गया है। और फिर हर व्यक्ति का झुकाव अपने पसंद की पार्टी या फिर नेता की तरफ हो जाता है।
 
इस देश के हर नागरिक को हक है अपनी पसंद का नेता या फिर पार्टी को चुनने का, लेकिन आज इस देश का कुछ मीडिया और नेता बहुत ही चतुराई से इस आम आदमी की सोच को ही बदलने का काम कर रहा है। जिस प्रकार बच्चों की सोच को विज्ञापन प्रभावित करते हैं उसी प्रकार खबरों का  प्रस्तुतीकरण भी हमारी सोच को प्रभावित करता है।
 
इसलिए आज आवश्यक हो गया है कि आम आदमी अपने अधिकारों को समझे, खबर को निष्पक्ष रूप से पढ़े और खुद अपने विचार बनाए कि उसके लिए और देश के लिए क्या हितकर है। अगर आप उनके बयान को गौर से पढ़ें और समझें, उन्होंने केवल यह कहा है कि इस देश के हर नागरिक को समान अवसर दिए जाएं तो इसमें गलत क्या है? यह तो हमारे संविधान में ही लिखा है।
 
जिन दलितों के हिमायती आज लालू और मायावती बन रहे हैं आज वर्षों के आरक्षण और इनके जैसे नेताओं के होते हुए भी इनकी स्थिति में सुधार क्यों नहीं हो पाया? वे आज तक 'शोषित' क्यों हैं? क्यों आप उन्हें समान अवसर दिलवाकर उनकी सामाजिक स्थिति सुधारने के पक्षधर नहीं हैं, लेकिन 'आरक्षण' के जाल में बांधकर 'शोषित वर्ग' ही रखने के पक्षधर हैं?
 
एक बयान पर आपको इतना गुस्सा आ गया कि आप 'राजनीति भुलवाने' पर उतारू हो गईं और लालू 'धोने' पर? इतने सालों से इस तबक़े की दयनीय स्थिति पर कभी इतना गुस्सा क्यों नहीं आया और कहा कि अगर हम सत्ता में आएंगे तो इस वर्ग को पांच सालों में ही इस काबिल बना देंगे कि इन्हें आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी?
 
हे दलितों, सालों से होने वाला तुम्हारा शोषण हम खत्म करेंगे, न शोषण रहेगा न आरक्षण? लेकिन आप यह इसलिए नहीं कह सकते, क्योंकि वह आप जैसे लोग ही हैं जो सालों से इन गरीब लोगों का शोषण कर रहे हैं उनकी अज्ञानता का फायदा उठाकर। सच्चाई यह है कि आप जैसे राजनेता इन्हें दलित या शोषित नहीं केवल अपना 'वोट बैंक' समझते हैं इसलिए आपकी राजनीति  'आरक्षण' से आगे चलकर 'विकास और समान अवसर' की बातें समझ नहीं पाती।