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जनप्रतिनिधियों के वेतन और सुविधाओं पर उठते सवाल

जनप्रतिनिधियों के वेतन और सुविधाओं पर उठते सवाल - pay and pensions of ministers
- एलएस हरदेनिया (मानव अधिकार कार्यकर्ता और वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार)
 
सांसदों को मिलने वाली पेंशन का मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचारार्थ पेश हो गया है। एक  जनहित याचिका को स्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में केंद्रीय सरकार एवं  संसद के दोनों सदनों के सचिवालयों की राय जानने के लिए पत्र लिखे हैं। सांसदों के अलावा  विधानसभा और विधान परिषद के सदस्यों को भी पेंशन मिलती है। हमारे देश में  जनप्रतिनिधियों को दी जाने वाली पेंशन की व्यवस्था अपने आप में अजीबोगरीब है। न सिर्फ  पेंशन वरन जनप्रतिनिधियों के लिए वेतन-भत्ते निर्धारित करने की प्रक्रिया भी अनूठी है।
 
संविधान में सांसद, विधायक, विधान परिषद सदस्य, स्पीकर, डिप्टी स्पीकर, प्रधानमंत्री,  मुख्यमंत्री, मंत्रियों के वेतन-भत्ते और अन्य सुविधाओं के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार  संसद, विधानसभा और विधान परिषद को दिया गया है। दुनिया के अनेक देशों में  जनप्रतिनिधियों को वेतन व अन्य सुविधाएं मिलती हैं, परंतु उन्हें निर्धारित करने का अधिकार  अन्य संस्थाओं को दिया गया है।
 
ब्रिटेन दुनिया का सबसे पुराना प्रजातंत्र है। वहां के सांसदों को वेतन व पेंशन की सुविधा है,  परंतु वहां सांसदों का वेतन, पेंशन निर्धारित करने के लिए एक आयोग का गठन होता है। इस  आयोग में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल किया जाता है। इस आयोग को स्थायी रूप से  यह आदेश दिया गया है कि सांसदों को इतना वेतन और सुविधाएं न दी जाएं जिससे लोग उसे  अपना करियर बनाने का प्रयास करें और न ही उन्हें इतना कम वेतन दिया जाए जिससे उनके  कर्तव्य निर्वहन में बाधा पहुंचे।
 
आयोग को यह भी निर्देश है कि सांसदों के वेतन-भत्ते निर्धारित करते समय देश की आर्थिक  स्थिति को भी ध्यान में रखा जाए। सभी परिस्थितियों पर विचार कर आयोग अपनी सिफारिशें  करता है, फिर इन सिफारिशों पर वहां का हाउस ऑफ कॉमंस (वहां की लोकसभा) विचार करता  है।
 
अभी कुछ दिनों पूर्व इस बारे में एक चौंकाने वाली घटना घटी। आयोग ने वहां के सांसदों के  वेतन में बढ़ोतरी की सिफारिशें कीं, परंतु प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि वे वेतन में बढ़ोतरी की  सिफारिशों को मंजूर नहीं कर रहे हैं। मैंने यह निर्णय देश की आर्थिक स्थिति को मद्देनजर लिया  है। प्रधानमंत्री के प्रस्ताव का ब्रिटेन के प्रतिपक्ष नेता ने तहेदिल से स्वागत किया और कहा कि  देश की नाजुक आर्थिक स्थिति को देखते हुए सांसदों के वेतन में वृद्धि किसी भी दृष्टि से उचित  नहीं हैं। अंतत: वेतन में वृद्धि का प्रस्ताव वापस ले लिया गया। क्या ऐसा दृश्य कभी हमारी  संसद और विधानसभाओं में देखने को मिलेगा?
 
पत्रकारों के बीच में एक मजाक प्रचलित है। यह पूछने पर कि उस विधेयक का नाम बताएं, जो  चंद सेकंडों में पारित हो जाता है? उत्तर होता है- सांसदों और विधायकों के वेतन-भत्ते निर्धारित  करने वाला विधेयक।
 
मेरे पास एक किताब है जिसका शीर्षक 'लेजिस्लेटर्स इन इंडिया, सैलरीज एंड अदर फैसिलिटीज'  है। यह लोकसभा का प्रकाशन है। इसका प्रकाशन जनवरी 1990 में हुआ था। इसके संपादक  लोकसभा के तत्कालीन महासचिव सुभाष सी. कश्यप हैं। उस समय कितना वेतन मिलता था  और आज कितना वेतन मिलता है इसकी तुलनात्मक जानकारी यहां दी जा रही है। इस किताब  में वैसे तो सांसदों और देश की सभी विधानसभाओं के सदस्यों के वेतन-भत्ते की जानकारी दी  गई है, परंतु मैं यहां मध्यप्रदेश से संबंधित जानकारी दे रहा हूं।
 
वर्ष 1990 में मध्यप्रदेश के विधायकों का मासिक वेतन 1,000 रुपए था। अब वह  30,000 रुपए प्रतिमाह है। उस समय निर्वाचन क्षेत्र भत्ता 1,250 रुपए था, अब  35,000 रुपए है। उस समय टेलीफोन भत्ता 1,200 रुपए प्रतिमाह था, आज  10,000 रुपए है। उस समय चिकित्सा भत्ता 600 रुपए था अब 10,000 रुपए है।  इसके अतिरिक्त वर्तमान में स्टेशनरी भत्ता 10,000 रुपए प्रतिमाह मिलता है। कम्प्यूटर  ऑपरेटर/ अर्दली भत्ता 15,000 रुपए मिलता है। इस तरह कुल 1,10,000 रुपए मध्यप्रदेश के  विधायक को मिलते हैं। इन सब सुविधाओं के अतिरिक्त यात्रा आदि की सुविधाएं भी प्राप्त हैं।
 
सांसदों और विधायकों को एक ऐसा भत्ता भी मिलता है, जो शायद देश तो क्या, दुनिया में भी  कहीं नहीं मिलता होगा। प्रत्येक सांसद और विधायक को दैनिक भत्ता मिलता है अर्थात उसे  संसद और विधानसभा की दिनभर की कार्यवाही में शामिल होने के लिए दैनिक भत्ता मिलता  है। न्यायाधीश प्रतिदिन अदालत में अपना कार्य संपन्न करते हैं, परंतु इसके लिए उन्हें दैनिक  भत्ता नहीं मिलता है। इसी तरह शासकीय कर्मचारी भी कार्यालयों में उपस्थित होकर अपना  काम निपटाते हैं, परंतु इसके लिए उन्हें भी दैनिक भत्ता नहीं मिलता है। जब मासिक वेतन  मिल रहा है तो दैनिक भत्ते क्यों? बात तो यहां तक सुनी जाती है कि कई सदस्य संसद और  विधानसभाओं की बैठकों में उपस्थित हुए बिना भी दैनिक भत्ता ले लेते हैं। कभी-कभी वे  उपस्थिति रजिस्टर में एकसाथ कई दिनों की उपस्थिति दर्ज कर देते हैं।
 
वर्ष 1990 में विधायक की 1,000 रुपए प्रतिमाह पेंशन निर्धारित थी। इसके अतिरिक्त 1 वर्ष  पूर्ण होने पर 50 रुपए प्रतिवर्ष की बढ़ोतरी भी मिलती थी। पूर्व विधायकों को सरकारी बसों में  नि:शुल्क यात्रा की सुविधा थी, साथ ही सरकारी अस्पतालों में नि:शुल्क मेडिकल सुविधा प्राप्त  थी। अब पूर्व विधायकों की सुविधाओं में जबरदस्त इजाफा हो गया है। उन्हें अब 20,000 रुपए  प्रतिमाह पेंशन मिलती है और चिकित्सा भत्ता 15,000 रुपए प्रतिमाह मिलता है। पेंशन में  प्रतिवर्ष 800 रुपए की वृद्धि का प्रावधान भी किया गया है। राज्य के बाहर 4,000 किलोमीटर  प्रतिवर्ष की यात्रा का प्रावधान किया गया है। सबसे चौंकाने वाला प्रावधान दोहरी पेंशन का है।
 
यदि कोई विधायक संसद का सदस्य रह चुका है तो उसे संसद और विधानसभा दोनों की पेंशन  मिलेगी। इसी तरह यदि कोई सांसद विधानसभा का सदस्य रह चुका है तो उसे भी दोनों सदनों  की पेंशन मिलेगी। पहले कुटुम्ब पेंशन की व्यवस्था नहीं थी। कुटुम्ब पेंशन की पात्रता पति/पत्नी  व आश्रित को है। अधिनियम क्र. 15, वर्ष 2016 के अनुसार कुटुम्ब पेंशन की राशि 10,000  रुपए प्रतिमाह से बढ़ाकर 18,000 रुपए कर दी गई।
 
सांसदों और विधायकों की पेंशन संबंधी नियमों में अनेक कमियां हैं, जैसे यदि कोई व्यक्ति एक  दिन ही लोकसभा या विधानसभा का सदस्य रहा हो तो भी उसे जीवनभर पेंशन पाने की पात्रता  हो जाती है। पूर्व विधायक या लोकसभा सदस्य होते ही उसे पेंशन मिलने लगती है। पूर्व सांसदों  के लिए पेंशन की व्यवस्था सभी लोकतंत्रात्मक देशों में है, परंतु उन्हें पेंशन उस दिन से मिलती  है, जब वे उतनी आयु के हो जाएंगे, जो उस देश में शासकीय सेवकों की सेवानिवृत्ति की आयु  है। जैसे यदि फ्रांस में शासकीय कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष है तो वहां के  सांसदों को 60 वर्ष के होने के बाद ही पेंशन मिलेगी।
 
इस तरह चाहे बात पेंशन की हो या वेतन की हो, हमारे देश के नियमों के अनुसार वे  सार्वजनिक हित में नहीं हैं। इन नियमों में परिवर्तन आवश्यक है। कम से कम सांसदों और  विधायकों का वह अधिकार समाप्त कर देना चाहिए जिसके चलते वे स्वयं अपने वेतन-भत्ते  निर्धारित कर लेते हैं। इसी तरह पेंशन के नियमों में परिवर्तन कर, पेंशन पाने की आयु का  संबंध शासकीय कर्मचारी की सेवानिवृत्ति के समान कर देना चाहिए।
 
इस दिशा में पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने पहल की थी, परंतु उन्हें समर्थन प्राप्त  नहीं हुआ। यदि वेतन और पेंशन संबंधी नियमों में परिवर्तन नहीं होता है तो इससे  जनप्रतिनिधियों की प्रतिष्ठा पर जो प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है वह जारी रहेगा और संसदीय प्रजातंत्र  की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठेंगे। हमारे संविधान ने संसद और विधानमंडल को सरकार  की वित्तीय गतिविधियों पर पूरा नियंत्रण रखने का अधिकार दिया है। बिना संसद और  विधानमंडल की स्वीकृति के बिना सरकार एक पैसा भी खर्च नहीं कर सकती, परंतु इस  अधिकार का उपयोग स्वयं के लाभ के लिए किया जाना एक दृष्टि से अनैतिक है।
 
जनप्रतिनिधियों को अपने चाल-चलन से आदर्श स्थापित करना चाहिए। आज ऐसा लगता है कि  जनप्रतिनिधि अपने हित में सरकारी कोष का दुरुपयोग कर रहे हैं। इससे जनप्रतिनिधियों और  जनता के बीच में अविश्वास की खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो स्वस्थ लोकतंत्रात्मक  समाज को कायम रखने में बाधक सिद्ध हो सकती है।
 
साभार - सर्वोदय प्रेस समिति
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