गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. मेरा ब्लॉग
  4. My Blog
Written By WD

ज़ख्म, दर्द, टीस और निदा फ़ाज़ली

ज़ख्म, दर्द, टीस और निदा फ़ाज़ली - My Blog
सेहबा जाफरी
ज़ख्म, दर्द, टीस और निदा फ़ाज़ली...वह चीख़ चीख़ कर पूछ रहा था “ दर्द किधर है!! ” उधर से कोई आवाज़ नही आ रही थी। दर्द था भी अजीब सा जिस्म से होता हुआ ज़हन में और उसके बाद रग रग में फैल गया था। 
 

 
कैसा दर्द है यह! चोट कैसे अचानक से लगी। वह जैसे दर्द से परे कहीं खो गई, दूर ख्याली दुनिया में। तस्व्वुरात की उभरती परछाइयों में उसके चालीस साल, उम्र के बीस की दहलीज़ पर जा अटके। छोटे से मुहल्ले नुमा घर के अधपक्के मकान की कोरी सी छत। टूटे मट्कों और फालतू बाल्टियों में जतन से उगाया गया टैरेस गार्ड्न और उसमें हाथों में बहुत पैसे बचा कर खरीदा गया रेडियो।

शाम की चाय और विविध भारती के सुरों में गूंजते नग़्में “अजनबी कौन हो तुम! जब से तुम्हें देखा है....” अचानक से भाई की दख़ल देती आवाज़ : “तुम्हे पता है, यह निदा फ़ाज़ली साहब का कलाम है” लिल्लाह ! कितनी कशिश से भरी हुई, नग्मा सराई!!!। वह सब छोड़ ख्याली दुनिया में ग़र्क। जिस शायर का कलाम इतना खूबसूरत है, वह शायर कितना खूबसूरत होगा। 
 
उस शाम एक परिचय की गांठ बंधी थी, वह शाम निदा साहब से “उसके” परिचय की पहली शाम थी। अक्सर चाय के प्यालों के साथ उनका ज़िक्र और जग्जीत साहब की आवाज़ में उनके कलाम। उम्र के बाविस्वें में तो मन ही मन दिल दे बैठी “वह” उन्हें इस लिहाज़ से निदा साहब उसकी पहली मोहब्बत हो गए। एक दिन शहर के नामचीन मैदान में आई पुस्तक प्रदर्शनी में बड़े भाई ने किताबों के ढेर से निकाल कर एक किताब थमाई, “ खोया हुआ सा कुछ” लेखक के नाम की जगह लिखा था “ निदा फ़ाज़ली”. हाय अल्लाह! शर्मायी तो वह ऐसी मानो चोरी पकड़ ली हो किसी ने। 
 
कोलाज जैसी रंगीन लफ़्ज़ों की बेजोड़ कारीगरी। कई रूपों और रंगों की गज़लें समेटे हुए। शहर से गांव और धूप से छांवं घर, रिश्ते, सरहदें, मुल्क और मुहब्ब्त !!! कुछ भी तो नही छोड़ा, जैसे सब का सब उनके किरदार हों, जो उनकी क़लम से मिलती आवाज़ को गज़लों में ढाल अपनी धुन आप की तय कर लेते हो। 
 
अगले पेज पर पढ़ें...

बंटी हुई सरहदों के कटे हुए आदमी से उसकी पहली बार मुलाक़ात निदा साहब की गज़लों मे ही तो हुई तब जब दिल ने सुना: “घर से मस्जिद बहुत दूर है चलो यूं कर लें / किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए...” 


 
उम्र गुज़रती रही, देहाती चुल्हों में सुलगती लकड़ी जैसी और अब उम्र उस पढ़ाव को छू गई जब मां बाप ज़ायचा मिलाते हैं और बच्चे जीवनसाथी का तस्व्वुर ऐसे करते है कि “काश! वह भी निदा फाज़ली साहब को पढ़ता हो!!” “फिर एक दिन कमरे में गूंज रहा था, “ बाज़िचा- ए- अत्फाल है, दुनिया मेरे आगे....” और दरवाज़े पर दस्तक हुई। वह भाई का कोईं स्टूडेंट था, हाथ में निदा साहब की एक बुक, खूबसूरत वह नही था , अस्ल में सारी खूबसूरती निदा साहब के गज़ल संग्रह “ तमाशा मेरे आगे” की वजह से थी। उसे वह एक्दम ही भा गया। “ कहीं कहीं से हर चेहरा”, “अम्मां”  “गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला”, “हुआ सवेरा”, अपने “ बाप की मौत पर”, “मेरे घर भी आओ अल्लाह मियां” कितना कुछ एक सांस में ही कह गया वह। “ वह लड़का ” उसकी दूसरी मोहब्ब्त हो गया .....निदा साहब को एक सांस में जो पढ़ जाता था! वह खुश थी, आजकल गाती थी, “ आजकल पांव ज़मी पर नही पडते मेरे, बोलो देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए...”
 
वक़्त अपने मामूल पर भागता रहा, वह दोनो मिलते थे, लड़का गाता था, “ तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है.....” और लड़की गुनगुनाती थी, “जब से तुम हो मेरी निगाहों में हर नज़ारा हसीन लगता है/ चांद के पास जो सितारा है....” फिर वही हुआ, “ एक लड़का था, एक लड़की थी/ आगे अल्लाह की मर्ज़ी थी....”    जब पहले पहल दिल टूटा, निदा साहब की गज़लों ने समेटा, “ उठ के कपड़े बदल, घर से बाहर निकल/ जो हुआ सो हुआ....” ज़िंदगी की भागमभाग और निदा साहब का दुआओं वाली गज़लों से भरा, सर पर रखा हाथ, “ सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो ....” 
 
भागती दौड़ती ज़िंदगी को सुकून की पनाह निदा साहब के कलाम में मिलती थी। उनकी बंजारा मिजाज़ी से भरी गज़लें उसे बिल्कुल अपने ही तेवरों वाली लगती थी। अपनी ही तलाश में भागते से बेक़रार आदमी की तड़प से लबरैज़। उसे बस एक ही धुन थी, “अ‍पनी तारीफ़ का उनवान बदलना है तुझे.....” और फिर एक दिन, सेंट्रल लाइब्रेरी में एक साथ, एक ही किताब को दो अलग अलग हाथों ने छुआ, दो चेहरे एक साथ खिले, एकसाथ मुस्कुराए और एक साथ ही चहके, “ अ‍रे वाह! निदा फ़ाज़ली!!” लड़के ने गौर से लड़की की आंखों में झांका. “ दो और दो का जोड़ हमेशा.....” एक साथ दोनों के दिलो ने शरारत की....और एक बारिश जब लड़की सेंट्रल लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठ बारिश देख रही थी , धीमे से लड़का बोला, “ ग़रज बरस, प्यासी धरती को, फिर पानी दे मौला.....” 

पास के अखबारी दफ्तर में काम करता, और निदा साहब को पसंद करता लड़का खुद उसके घर रिश्ता लेकर आया. सगाई से ब्याह तक निदा साहब की गज़लें बड़ी कसरत से पढ़ता। शादी भी हो गई। लड़की ने नौकरी छोड़ दी। शायद उम्मीद से है, लड़का दिन भर मशीन की तरह काम करता, मरे ज़िंदों की खबरें चस्पा करता था। बाज़ार के भाव, कपास की फसल, सोने की गिरावट और नेताओं की कुर्सी.....एक दिन उसने खबर लगायी, “निदा फ़ाज़ली का निधन”। 
 
पल भर में उसका फोन घनघनाया।  घर में बैठी उसकी बीवी रुंधे गले से “हलो” भर बोल पाई। आवाज़ से लग रहा था, शदीद दर्द है, बहुत तक्लीफ....”सुनिये!”, उसके मुंह से निकला...वह कहना चाह रही थी, “आपने सुना! जो मैंने अभी अभी सुना...निदा फाज़ली नही रहे.. वही जिनमें हम, जिये, जवान हुए, और जग्मगाते रहे....
 
“ भली औरत!! कुछ कहोगी भी!!! , ऐसा लग रहा है दर्द में हो! क्या हुआ, बच्चा ठीक है?? कुछ हुआ तो नही !!! काम में डूबे मर्द ऊंची आवाज़ में चीख रहा था, “जल्दी बोलो ! मेरे पास वक़्त नही!!!” नही कुछ नही, लड़की ने जवाब दिया.....निदा साहब नही रहे, गज़ल की सूरत रखा,  दुआओं का हाथ सर से हठ सा गया है....कोई समझने वाला हमेशा हमेशा के लिए उसे अकेला छोड़ गया है...
उसका खाविंद जल्दी में था, उसे वह फ्रंट पेज पर निदा साहब की मौत की खबर जो लगानी थी।