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लोकतंत्र के हित में नहीं है टिकट के लिए पार्टी बदलना

लोकतंत्र के हित में नहीं है टिकट के लिए पार्टी बदलना। Madhya Pradesh election - Madhya Pradesh Legislative Assembly election, 2018
- सुयश मिश्रा
 
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए घोषित नामांकन की अंतिम तिथियों में जिस प्रकार वरिष्ठ नेताओं ने अपने दल बदले हैं उस से उनकी पार्टी निष्ठा पर सीधे-सीधे प्रश्नचिन्ह लगते हैं। विधायक पद की प्रत्याशा में सैंतीस वर्ष तक एक ही दल में रहते हुए विधायक-सांसद मंत्री रहे एक वृद्ध नेता अपनी पुरानी पार्टी छोड़कर विधायक टिकट के लिए अपनी धुरविरोधी रही दूसरी नई पार्टी में चले गए। जिसे कल तक गलत प्रचारित करते थे आज उसी का दामन थाम बैठे हैं। इसी प्रकार एक अन्य नेता अपनी पुरानी पार्टी से बगावत कर अपने पुत्र को एक अन्य पार्टी से टिकट दिला कर उसके समर्थन में चुनाव प्रचार करने का डंका पीट रहे हैं।

यह केवल इन दो वरिष्ठ नेताओं के दल बदलने, बगावत करने की बात नहीं है। वास्तव में यह हमारे लोकतंत्र को चलाने वाली उस सत्ता लोलुप मानसिकता की बड़ी साक्षी है जो स्वार्थ सिद्धि के लिए, सत्ता सुख भोगने के लिए किसी भी सीमा तक गिरने को तैयार है। ‘प्यार और युद्ध में सब जायज है’का नारा उछालती हुई नेतृत्व की यह मूल्यविहीन छवि अपने सिवाय किसी का भला नहीं कर सकती। जो अपने दल का नहीं हुआ वह देश और समाज का क्या होगा? ऐसा नैतिक मूल्यविहीन नेतृत्व जनता पर क्या प्रभाव डालेगा? यह विचारणीय है।
 
आम चुनावों में टिकट के लिए अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाना कोई नई बात नहीं है। हमारे लोकतंत्र में यह खेल वर्षों से चला आ रहा है और ऐसे चुनावी दांव-पेंच का नुकसान देश लगातार भुगत रहा है। 1980 में जनता पार्टी की सरकार का गिरना और देश पर मध्यवर्ती चुनाव का व्यय भार थोपा जाना इसी कूट-राजनीति का दुष्परिणाम था। विधायकों-सांसदों की खरीद-फरोख्त का यह सिलसिला बहुमत का आंकड़ा जुटाने के लिए मंत्री आदि महत्वपूर्ण पदों का प्रलोभन, काले धन का उपयोग, बाहुबल और हिंसा का प्रयोग, वोट पाने के लिए साड़ियां, शराब, नकद राशि आदि का अवैध वितरण हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ऐसे बदनुमा दाग हैं जो चुनाव के उपरांत चयनित सरकार में जनहित के कार्यों की राह में रोड़े अटकाते हैं और व्यवस्था में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं।

 
लोकतंत्र में प्रत्येक राजनीतिक दल लोकहित के लिए अपने कुछ सिद्धांत तय करता है। अपनी नीतियां घोषित करता है और इन्हीं सिद्धांतों-नीतियों से प्रेरित और प्रभावित होकर समाज का नेतृत्व करने के लिए लोग राजनीतिक दलों के सदस्य बनते हैं। उसके माध्यम से सत्ता तक पहुंचने का रास्ता बनाते हैं। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। लोगों की मान्यताएं और विचार भिन्न होते हैं। यही भिन्नता दलगत विविधता का आधार बनती हैं। दल विशेष के लोग अपने दल की नीतियों के प्रति निष्ठावान रहते हैं और उसी की जीत हार के साथ सत्ता में पक्ष-विपक्ष की भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार दलगत निष्ठा लोकतंत्र की प्रक्रिया में आवश्यक तत्व है किंतु सत्ता सुख भोगने की इच्छा से निष्ठा का क्रय-विक्रय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता।

 
मानव जीवन परिवर्तनशील है। मनुष्य अपने अनुभवों, परिस्थितियों आदि में परिवर्तन के कारण अपनी विचारधारा में परिवर्तन करने और अपना दल बदलने के लिए भी स्वतंत्र है। वह किसी विशेष विचारधारा अथवा विशिष्ट दल का बंधुआ नहीं कहा जा सकता किंतु उसका यह परिवर्तन तभी स्वीकार योग्य हो सकता है जब वह कार्य, सिद्धांत, नीति अथवा लोक मंगलकारी विचार के आलोक में औचित्यपूर्ण हो। केवल अपने संबंधित दल द्वारा टिकट न दिए जाने पर अपने निजी लाभ-लोभ के लिए दल-परिवर्तन कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। यह दुर्भाग्यपूर्ण कृत्य महान लोकतांत्रिक परंपराओं की अवमानना है, उपेक्षा है उसका मजाक है। विचारणीय है कि टिकट कटने की स्थिति में पार्टी छोड़कर जाने की धमकी देना, पार्टी को कमजोर बनाने का प्रयत्न करना ब्लैकमेलिंग की श्रेणी के अपराध हैं। तथापि चुनावी टिकट वितरण के समय हमारे रहनुमा, हमारे समाज के कर्णधार एवं तथाकथित जिम्मेदार समझे जाने वाले लोग इस प्रकार के कार्य करते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। 
 
लोकतांत्रिक-व्यवस्था में नेतृत्व जनता की सेवा का कार्य है। यह निस्वार्थ और निस्पृह भाव से समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप उसे दिशा देने का कार्य है और यह कार्य विपक्ष में रहकर भी भलीभांति किया जा सकता है। सदन में सत्तापक्ष और मजबूत विपक्ष- दोनों का होना आवश्यक है किंतु हमारे देश में सब के सब सत्ता हथियाने की होड़ में ही लगे रहते हैं। सबको सत्ता-पक्ष वाली कुर्सी ही चाहिए। विपक्ष में बैठने को कोई तैयार नहीं दिखता। आखिर क्यों ? इस पर विचार होना चाहिए।
 
यह कड़वा सच है कि हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की आड़ लेकर सामंती मानसिकता ने गहरी जड़ें जमाई हैं। गरीब जनता के धन पर वैभव-विलास की जिंदगी जीना, विदेश यात्राएं करना, बिना काम किए ही वेतन भत्ते पा जाना, पेंशन लेना और अपने परिवार तथा अपनी पसंद के लोगों को लाभांवित करना हमारे लोकतंत्र के बहुत से तथाकथित सेवकों का स्वभाव रहा है और इन्हीं दुरभिलाषाओं की पूर्ति के लिए सत्ता तक पहुंचना उनकी मजबूरी है। इसी के लिए वे तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं, दल बदलते हैं। मजे की बात तो यह भी है कि विरोधी पार्टी से आने वालों को नई पार्टी भी हाथों-हाथ लेती है। अपने कार्यकर्ताओं को छोड़कर नए आने वालों को टिकट दे देती है।

 
इन दोषों के कारण आज हमारा लोकतंत्र दलगत राजनीति की ऐसी दलदल बन चुका है जिसमें नैतिक मूल्य, ईमानदारी, सेवा भावना, लोकहित और वाक्यसंयम हाशिए पर दिखाई देते हैं जबकि भ्रष्टाचार, परस्पर कीचड़ उछालना, अपनों को लाभांवित करने का अन्याय पूर्ण पक्षपात और समाज को असंख्य खांचों में बांटकर वोट हथियाने का कुचक्र केंद्र में है। दल के प्रति समर्पित भाव से कार्य करने वाले कार्यकर्ता उपेक्षित हैं और अकस्मात टिकट के लिए पार्टी में आने वाले पैराशूटर नव आगंतुक पार्टी का टिकट पा रहे हैं।

जब राजनीतिक दलों और हमारे नेताओं में अनुशासन नहीं है तो जनसाधारण से किस अनुशासन की उम्मीद की जा सकती है। अनेक बार सत्ता का स्वाद चख लेने वाले, कब्र में पैर लटकाए नेता भी जब सत्ता में पद पाने की प्रत्याशा में सारी मर्यादाएं तोड़ रहे हैं तब जनता से किसी नैतिकता की अपेक्षा करना दिवास्वप्न ही है।   
 
लोकतंत्र की शुचिता और गुणात्मकता बनाए रखने के लिए अब यह आवश्यक हो गया है कि राजनीतिक दलों में टिकट वितरण के लिए भी कुछ नियम, नीति निर्देशक-सिद्धांत वैधानिक स्तर पर निर्धारित किए जाएं और कड़ाई से उनका पालन सुनिश्चित हो। अन्यथा सत्ता के लिए निष्ठा बेचने का यह खेल लोकतंत्र के लिए हानिकारक सिद्ध होगा।
               
(माखनलाल चतुर्वेदि पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल में अध्यनरत)