गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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कैसी भाषा…घोर कलयुग…चुप रहूं, क्या करूं?

कैसी भाषा…घोर कलयुग…चुप रहूं, क्या करूं? - blog on shubham shree
नवोदित कवयित्री शुभम श्री को उनकी एक कविता पर भारत भूषण अग्रवाल सम्मान मिला है। उनकी कविता साहित्य संसार में पर्याप्त हलचल मचाए हुए है। भाषा को लेकर एक नई बहस चल पड़ी है। यहां उनकी एक दूसरी कविता के बहाने कविता की भाषा पर चर्चा की जा रही है। 
इन दिनों अधिकांश बड़े कवि-आलोचक कह रहे हैं कि कविता की नई भाषा सामने आई है। वे कह रहे हैं कि जब भी नई भाषा आती है तो मानसिक तैयारी न होने से उसे ख़ारिज किया जाता है। नई भाषा की पैरवी करते हुए कई कविताओं को सामने लाया जा रहा है। तो, खूब चर्चित कवयित्री की एक चर्चित कविता…उस पर व्यक्तिगत तौर पर मुझे कचोटते कुछ सवाल। सवाल पूछने वाली मैं कौन? भले ही मैं कविता की बिरादरी का सबसे आखरी प्यादा, पर हर प्यादे से मिलकर ही बनती है बिसात…इस बिसात पर उठ रहे कुछ सवाल…उन सवालों को दरकिनार करने के लिए दिए जा रहे कई अन्य कवियों की उसी तरह की कविताओं के उदाहरण। पर क्या जुगुप्सा अलंकार को स्वीकार कर लिया जाए, क्या साहित्य में इसे वितृष्णा की चरम सीमा मान लें…कैसे स्वागत करें…क्या इसका स्वागत करें?
साहित्य समाज का दर्पण कहा गया है तो नृत्य यहां चूंकि मैं कथक से जुड़ी हूं तो कथक ही, कहें तो, समाज की कथा कहता आया है। नृत्य में केवल पौराणिक आख्यान नहीं, समय-समय पर तत्कालीन समाज की रचनाओं को भी समाहित किया गया है। संदर्भ निकला सो कहना चाहूंगी कि 12 वीं शताब्दी में जयदेव द्वारा रचित काव्यग्रंथ ‘गीत गोविंद’ की ‘अष्टपदियों’ (12 अध्यायों का गीत गोविंद, गीतिकाव्य की प्रबंध शैली में लिखा गया, ग्रंथ में एक अध्याय में 24 गीत, हर गीत में आठ दोहे, जिन्हें अष्टपदी कहा गया) पर कितना ही नाचा गया। 
 
आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक कहलाते भारतेंदु हरिश्चंद्र ने गीत गोविंद का संस्कृत से हिन्दी में पद्यानुवाद किया। जिसके चौथे गीत में, कवि वृंदावन के घने जंगल में गोपियों के साथ कृष्ण की रास लीलाओं का वर्णन करते हैं। भारतीय शास्त्रीय नृत्य पुरुष और प्रकृति के द्वैत भाव में है, लेकिन अंत में वह अद्वैत हो जाता है। इसमें ‘ढंग’, ‘अंग’, ‘सुढंग’ जैसे शब्द हैं, आगे के पद में ‘चोली अंग सोहे तंग’ भी लिखा गया है, लेकिन भाव क्या है, जयदेव भगवत् कृपा की बात कर रहे हैं। 
 
इस चोली का उस ‘चोली के पीछे क्या है’ से कोई संबंध हो ही कैसे सकता है? कोई चंचला इतराती, कमर मटकाती भरी सड़क पर चले तो कई डोरे डालने की कोशिश करते हैं, फब्तियां कसते हैं…पर उसी उम्र की किसी लड़की में देवी आ जाए..भले ही विश्वास हो या न हो लेकिन उस ओर देखने वालों की दृष्टि बदल जाती है। दृष्टि इसलिए बदलती है कि उसमें वह मां को देखने लगता है, मां को…देवी मां को। अपनी मां का औघड़ वक्ष हर बच्चा देखता है, लेकिन मन में वासना का भाव कभी नहीं आता। भाव नहीं आता तो वैसी दृष्टि नहीं होती। फिर बात कथक की करती हूं…कथक सीखने-सिखाने वाले कई बार आम लहज़े में बोलते हैं…ऐसे सीना निकाल कर नहीं नाचना, छाती क्यों दिखा रहे हो…अब ये सीना और छाती..उसी वक्ष की बातें हैं। 
 
नृत्य सीखने आने वाली युवा नर्तकियां इन शब्दों से इतनी दो-चार हो चुकी होती हैं कि उनके लिए आम बात हो जाती है। वे बड़ी सुंदरता से पूरी ‘कलास’ (कलाई को गोलाकार घूमाते हुए) के साथ कोई बोल नाच जाती है लेकिन देखने वाले भी तब वक्ष नहीं ‘कलास’ देखते हैं, जबकि नर्तकी का हाथ सीने से कुछ ही दूर होता है। सजेस्टिव वही होता है पर जिसे बताने के लिए सारे शब्द कम पड़ जाए, ऐसे देह विरहित पुरुष को रिझाने का नृत्य होता है। विषय-वासना, विकार नहीं, सौंदर्यभाव और अविकारी मन, परा वाणी…जहां मौन बोलता है।
 
इतनी सारी प्रस्तावना देने की ज़रूरत… प्रवचन देने के लिए नहीं, यह ज़रूरत इसलिए आन पड़ी कि नई कविता ने सरस्वती वंदना को ‘मिस वीणा वादिनी’ करार दिया। परंपरागत सरस्वती वंदना में ‘शुभ्र वस्त्रावृता’, ‘वीणा दंड मंडित करा (हाथों में) ’…आदि हैं और कई सरस्वती वंदनाओं में सरस्वती के उन्नत उरोज भी आए हैं लेकिन उसमें उस शरीर का वर्णन है…जो पराभौतिक जगत् से जुड़ा है….वह देवी है…उसके वक्ष इस धरती से तोले गए हैं….उसका स्वरूप विराट है। 
 
हम तो सीखते आए थे कि Art lives is in counselling art… मतलब कला, कला को छिपाने में वास करती है, आप उसे खुलेआम कह रहे हैं… एक लावणी है, ‘पिकल्लया पानां चा देठ की हो हिरवा’…मतलब ‘पके पत्ते की डंडी अभी भी हरी है’, इसके जो जैसे अर्थ निकाल ले, निकाल ले। लेकिन इस पंक्ति को हम अपने बच्चों के सामने गाते हुए, पढ़ते हुए निरुत्तर नहीं होंगे…बच्चा उसे बालबोध से पत्ते का हरा रंग समझ लेगा। 
 
बतौर नृत्यांगना मंच पर जब मैं राधा-कृष्ण का मिलन दिखाती हूं तो मेरे मन का भाव, भक्त के भगवान् को पुकारने की विकलता और मिलन की चरम सीमा होती है, वह भाव मन में होता है तो नृत्य भी वैसा ही दिखता है, सौंदर्यबोध लिए हुए..मन में काम का भाव हो तो वह नचनिया का होगा, भरे बाज़ार का नृत्य। कृष्ण और राधा का नृत्य भक्ति रस जगाता है, कृष्ण ने राधा को अपना गुरु माना था…और मीरा ने लिखा एक ही पुरुष निर्विकार है…वह है कृष्ण…, जो इस जगत् के हैं वे पुरुष साधारण श्रेणी में आते हैं, जिन पर प्रकृति हावी हो जाती है। 
 
कलाओं ने हमें भद्र बनना सिखाया या अपनी भद्द उड़ाना, यह सवाल भी मेरे ज़ेहन में उतना ही घूम रहा है। उसी कविता पर आती हूँ, ‘मिस वीणावादिनी, तुम्हारी जय हो बेबी’ (भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त कवयित्री शुभम् श्री की एक अन्य कविता) इस तरह की कविताएं क्या संदेस दे रही है? शुभम् श्री से कोई व्यक्तिगत राग-लोभ नहीं, और इसे एक प्रतिनिधि कविता ही मान लिया जाए, तब भी, लिखो तो ऐसा लिखो कि अजर-अमर हो जाए। यदि नई कविता की यह दिशा है और यह दशा है तो क्या साहित्य में सेंसर की ज़रूरत पर भी बात हो? क्या पीत पत्रकारिता जैसा शब्द भी शब्दकोश से हटा दें, यदि यह ग़लत नहीं, तो वह भी ग़लत नहीं, पोर्न फ़िल्मों को मेन स्ट्रीम से जोड़ दो। भैया अब कोई मुझे दक्षिणपंथी या भगवा रंगी न कहने लगे…मैं गेरुआ रंग में रंगी हूं, मेरी मिट्टी का रंग…मैं श्याम रंग में रंगी हूं, मेरे कृष्ण का रंग…मैं शुभ्र रंग में रंगी हूँ…मेरी शुभ्रवसना भगवती का रंग…मैं विद्रोही काली माता के काले रंग में रंगी हूँ, मैं गौरवर्णा के रंग में रंगी हूं…
 
वीणावादिनी से कहते हैं ‘दैवै: सदा वंदिता’….जिसकी देव भी वंदना करते हैं, उसे ‘बेबी’ कह दिया…बड़े कवियों ने उसे ग्रेट कह दिया। किसी आराध्य को फ़र्श पर कोई ले आए तो यहां किसी की धार्मिक भावनाओं का कोई हनन नहीं होता…कहे जाओ उसे ग्रेट। ‘विलुप्तप्राय हंस की जय’ कही…हंस विलुप्तप्राय नहीं, राजहंस विलुप्तप्राय है…उसके बाद पूरी कविता में मज़ाक। ‘जय हो कमलनयनी या नयनों की क्षीण ज्योति वाली’…कहिए आप किसे क्षीण ज्योति कहते हैं। आपकी बूढ़ी मां की आंखें मोतियाबिंद के झाग से धुंधली हो जाती हैं तब भी वह आपकी सुंदर मां होती है। 
 
कवयित्री उसे ‘अज्ञान की देवी’ कहने से भी नहीं चूकती, जिससे अनादि काल से ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की बात की जाती है, वह अज्ञान की देवी है! आलोचक कहते हैं, हमें कविता नहीं समझ में आती, आम पाठक को नहीं समझ में आती, तब तो मैं और भी गई-गुज़री, नृत्य से जुड़ी, मेरा साहित्य से क्या सरोकार? पर नवाब वाज़िद अली शाह, कथक नृत्य के आदि गुरु पं. बिंदादीन महाराज (कहते हैं उन्होंने 250 से भी ज़्यादा ठुमरियां लिखी थीं), नृत्याचार्य पं. लच्छू महाराज जी, नृत्यगुरु पं. बिरजू महाराज, पंडिता रोहिणी भाटे, नृत्यविद् दाधीच दंपति…कितने नाम लूं…जिनका साहित्य से गहरा संबंध रहा… ‘कथा कहे सो कथक’ कहलवाए यह तो कहावत ही है….
 
यहां कथा चल रही है, कविता की, इस नई कविता की जो विध्वंस करने पर तुली है सारे प्रतिमान…चलिए कविता रचिए , सूरज को चांद का प्रतिलोम कह दीजिए, नई भाषा गढ़िए, सब स्वीकार, पर कामुकता की चरमता और उसे स्वीकार करने की ज़द्दोज़हद…समझ से परे है। ‘सुंदर रोमावलियुक्त.... या श्यामवर्ण…ऐसा लिख भी कैसे सकते हैं, किस साहित्य में, साहित्य मतलब सहित, सबका हित…ऐसा लिखने से किसका हित…क्या साध्य होगा… जब कलम पकड़कर लिखना शुरू किया तो हमसे कहा था ‘श्री गणेश करो’ न कि इस तरह अनैतिक लिखो। 
 
जिन घुंघरुओं को पैरों में बांधते हैं उसे भी सिर माथे लगाने की परंपरा है..और आप कह रहे हैं सारी परंपराएं ध्वस्त कर दो…सब झूठ है। तो क्या झूठ है मेरा स्त्री होना या शुभम् तुम्हारा ही स्त्री होना? ‘नाखून के भीतर के मैल की जय’ करवा दी कविता में, मैल की जय…नहीं कहते, हम मैल साफ़ करने की बात करते हैं। ‘पतिविहीन ज्ञान की साध्वी’ कहते हुए किस तरह का अट्टहास…ओह बहुत क्षोभ हुआ…नृत्य में दिखाते हैं कालिका माता का हास्य…वह हास्य भी थर्रा देता है…कहते हैं- ‘थर्र तिरकिटतक धा’। 
 
हो सकता है यह कविता नवरात्रि के घटते स्तर पर लिखी हो, प्रतिक्रिया में, जैसा कि आगे आता है लेकिन क्या घटिया का विरोध करने के लिए उतना ही घटिया होना ज़रूरी है, तो फिर जो श्रेष्ठ है उसके आगे नतमस्तक होने में शर्म क्यों करें?  ‘प्रिय देवी, वीणावादिनी हमें वर दो बेबी’…कहना उसी कॉलेज गोइंग की भाषा है जिसे स्लैंग कहा जाता है। स्लैंग लैंग्वेज यदि अब साहित्य की मानक भाषा बन रही हो तो क्या कहूं…चुप रहूं…
ओह, वह धमार की ‘होरी’… ‘नचत गोपिका ललित अंग…तकिट तकतक शब्द उचार’…कितना सरस वर्णन… और कैसी भाषा…घोर कलयुग कहूं…चुप रहूं, क्या करूं?
भारतभूषण पुरस्कार प्राप्त शुभम् श्री की यह कविता (इस कविता पर पुरस्कार नहीं मिला, गनीमत है)
*|| मिस वीणावादिनी, तुम्हारी जय हो बेबी ||*
 
हे वीणावादिनी, शुभ्रवस्त्रा देवी
तुम्हारी जय हो
तुम्हारे विलुप्तप्राय वाहन हंस की भी जय हो
जय हो हे कमलनयनी या नयनों की क्षीण ज्योति वाली
विद्या की देवी या अविद्या की, ज्ञान अज्ञान की
तीक्ष्ण नाक, सुघड़ अधर, सुदीर्घ कंठ वाली
या चपटी नाक, मोटे अधर, छोटे कंठ वाली
उन्नत उरोज, क्षीण कटि, घने केश वाली
या सपाट उरोज, स्थूल कटि, श्वेत केश वाली
सुंदर रोमावलियुक्त योनि वाली
या श्यामवर्ण योनि वाली
कदलीस्तंभ के समान जंघाओं वाली
या मेद क्षीण होने की रेखाओं भरी जंघा वाली
धनुष के समान पिंडली वाली
या बबूल की छाल जैसी पिंडली वाली
तुम्हारे लालिमायुक्त चरणों की जय हो
तुम्हारे रजकणधूसरित बिवाई फटे पैरों की जय हो
तुम्हारे चरण के आभायुक्त नखों की जय हो
जय हो तुम्हारे नाखून के भीतर बैठे मैल की
पिता के प्रकोप से बची हुई
हे वाणी की देवी
तुम्हारी मूकता की जय हो
हे क्रोध, रोष, कालिमा से दूर रहने वाली
लक्ष्मी से विमुख करने वाली
तुम्हारी सहनशीलता की जय हो
हे पतिविहीन ज्ञान की साध्वी
अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाली
ममतामयी देवी
प्रकाश के क्रय-विक्रय में सफलता का वर दो
वर दो सेंसर से निडर होने का
समस्त उल्लुओं को ज्ञान का वर दो
हंसों को यातना का, अवसाद का वर दो
सभी वरों के एवज में
हम तुम्हें प्रणाम करेंगे
मूर्ति स्थापित करेंगे, 'जवानी के आग ना सहल जाला रजऊ' पर नृत्य करेंगे
पंडाल में नीला चलचित्र देखेंगे
उरोजों और कटि प्रदेशों पर प्रहार करते हुए विसर्जन करेंगे
प्रिय देवी, वीणावादिनी
हमें वर दो बेबी.....