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Last Modified: गुरुवार, 13 अप्रैल 2017 (18:13 IST)

अतिवादी राजनीति पर पुनर्विचार करें अरविंद केजरीवाल

अतिवादी राजनीति पर पुनर्विचार करें अरविंद केजरीवाल - Arvind Kejriwal Delhi by-election
दिल्ली के राजौरी गार्डन उपचुनाव में आम आदमी पार्टी की दुर्गति चौंकाने वाली है। महज दो साल पहले इसी सीट से पत्रकार से राजनीति में आए जरनैल सिंह ने आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर भारी जीत हासिल की थी। दस हजार से ज्यादा वोटों से जीत चुकी राजौरी सीट पर अगर सत्ताधारी आम आदमी पार्टी का उम्मीदवार दूसरे स्थान पर भी नहीं आ पाता है तो इसका संकेत साफ है।
 
संकेत यह कि जनाकांक्षाओं का जो उफान राजधानी दिल्ली में अरविंद के साथ दिखा था, वह उफान अब दूध के उबाल की तरह ठंडा पड़ने लगा है। अरविंद से लोगों ने ना सिर्फ राजनीति, बल्कि प्रशासन में भी गुणवत्तायुक्त बदलाव की उम्मीद की थी। लेकिन अरविंद की अगुआई में आम आदमी पार्टी की सरकार ने वे काम ज्यादा किए, जिसके लिए अब तक का पारंपरिक राजनीतिक तंत्र बदनाम रहा है। लोकतंत्र की अपनी एक मर्यादा होती है। इसके मुताबिक सत्ता हासिल करने के बाद नेता को चुनावी मौके छोड़ दिए जाएं तो मर्यादित सर्वमान्य नेता की तरह व्यवहार करना चाहिए। लेकिन अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी के नेता की सीमित भूमिका से कभी बाहर नहीं निकल पाए। कई बार तो वे खुद को संविधान से इतर समझने लगे। 
 
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम के मुताबिक दिल्ली की चुनी हुई सरकार को सीमित विषयों में ही काम करने की अनुमति है। लेकिन अरविंद की सरकार उन विषयों और अधिकारों की सीमा का अतिक्रमण करने की कोशिश करती रही। इसके लिए वह प्रचंड जनसमर्थन का आधार तक मुहैया कराती रही। दुर्भाग्यवश हिंदी टीवी पत्रकारिता की बड़ी हस्ती रहे आशुतोष भी ऐसे ही तर्क देते रहे। सवाल यह है कि क्या ग्राम प्रधानी के चुनाव में भारी वोट पाने वाले व्यक्ति को क्या कलेक्टर की भी भूमिका दी जा सकती?
 
अरविंद केजरीवाल और उनकी फौज के आशुतोष जैसे बुद्धिजीवी महारथी तक ऐसे ही तर्क देते रहे। अव्वल तो अरविंद को अपनी सीमित भूमिका और अधिकारों के तहत दिल्ली की जनता के बीच गुणवत्ता युक्त बदलाव लाने की कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन शिक्षा क्षेत्र में मनीष सिसोदिया की कोशिशों को छोड़ दें तो किसी और क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नजर नहीं आया। अगर अरविंद को बाकी राज्यों की तरह ही अधिकार चाहिए थे तो इसके लिए उन्हें अलग से आंदोलन करने चाहिए थे। उनकी पार्टी समानांतर तरीके से इसके लिए आंदोलन कर सकती थी। लेकिन वह पार्टी का काम होता, सरकार तो अपनी सीमित दायरे में ही जनजीवन को बदलने की कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन दुर्भाग्यवश अरविंद जनाकांक्षा की इस उम्मीद पर खरे नहीं उतरे।
 
अरविंद की सरकार काम करने की बजाय हर काम के लिए केंद्र की मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराते रहे। हो सकता है कि केंद्र सरकार जिम्मेदार हो भी, लेकिन जिस भाषा में अरविंद ने मोदी पर प्रहार किए, वह शुरू में दिल्ली की जनता को जरूर अच्छा लगा, लेकिन बाद में लोगों को वह चुभने लगा। चाय-पान की दुकानों, मेट्रो-बस की यात्राओं में लोग खुलेआम चर्चा करने लगे कि अरविंद अब ये आरोप लगाएंगे या अब वह बहाना लेंगे। यानी आम लोग भी उनकी अतिवादी राजनीति को समझने लगे।
 
विधानसभा के भीतर 67 विधायकों के प्रचंड बहुमत के बल पर उन्होंने विपक्ष की आवाज भी दबाने हर मुमकिन कोशिश की। नेता प्रतिपक्ष विजेंद्र गुप्ता तक को मार्शलों के जरिए बाहर निकलवाया। जिस तरह कालेजों की राजनीति में अपने विपक्षियों को छात्र नेता दंड और भेद से मात देते हैं, और फिर उसका प्रचार करते हैं, दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल सरकार का रवैया भी कुछ ऐसा ही रहा। नेता प्रतिपक्ष को मार्शलों के सहारे विधानसभा से बाहर निकालने के दृश्य टेलीविजन पर प्रसारित होने को लेकर उनकी पार्टी की सोच ऐसी रही, मानो इसका जनता समर्थन करेगी और उसका फायदा आम आदमी पार्टी को मिलेगा। ऐसी सोच रखते वक्त केजरीवाल और उनकी पार्टी भूल गई कि लोकतंत्र में अतिवाद एक हद से ज्यादा स्वीकार्य नहीं होता। भारतीय जनमानस एक वक्त के बाद पीड़ित के साथ खड़ा हो जाता है, चाहे उसका अतीत कितना ही खराब क्यों ना रहा हो। 
 
राजौरी गार्डन उपचुनाव में आम आदमी पार्टी की करारी हार, दूसरे नंबर पर कांग्रेस का आना आगामी निगम चुनावों का अंदाजा लगाने के लिए काफी है। संकेत साफ हैं कि नगर निगम चुनावों में केजरीवाल का पैंतरा काम नहीं आने वाला। ईवीएम पर वे लाख ठीकरा फोड़ते रहें, निगम चुनावों के नतीजे कुछ-कुछ 2012 की ही तरह रहेंगे, जिसमें भाजपा की जीत हुई थी और कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही थी। सिविक सेंटर पर कब्जे का आम आदमी पार्टी का सपना टूटता नजर आ रहा है। अरविंद को अब सोचना होगा कि उनके अतिवादी आरोप, उनकी बहानेबाजी की राजनीति जनता के टूटते सपनों को ही मुखरित करती रही है। इसलिए बेहतर यह होगा कि वे चेत जाएं। वे 2019 के लोकसभा चुनावों और 2020 के विधानसभा चुनावों में अपना आधार बचाए रखने के लिए जुट जाएं। तभी उनका राजनीतिक वजूद बचा रह सकेगा।