गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By गायत्री शर्मा

कौन सिखाए संस्कारों का सबक?

पालक और शिक्षक की साझा जिम्मेदारी

कौन सिखाए संस्कारों का सबक? -
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स्कूल शिक्षा का वो मंदिर होता है, जिसमें बच्चा संस्कार, शिष्टाचार व नैतिकता का पाठ पढ़ता है। शिक्षके इस दरबार में विद्यार्थियों को किताबी शिक्षा के साथ-साथ एक जिम्मेदार नागरिक बनने के गुर भी सिखाए जाते हैं।

वर्तमान दौर में शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार व आवश्यकता को देखते हुए हर माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूल में तालीम दिलाने का ख्वाब सँजोते हैं।

अपने इस ख्वाब को पूरा करते हुए दिनभर जीतोड़ मेहनत करके वो पाई-पाई बचाकर अपने बच्चों के स्कूल की फीस जुटाते हैं। बच्चे को अच्छे स्कूल में दाखिलदिलवाने के बाद अपने कर्त्तव्यों से इतिश्री करते हुए पालकगण बच्चों को संस्कारवान, जिम्मेदार व सभ्य नागरिक बनाने की सारी जिम्मेदारियाँ शिक्षकों पर थोप देते हैं।

यह सत्य है कि बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है। बच्चा जो कुछ भी सीखता है, वो अपने परिवार, परिवेश व संगति से सीखता है। बच्चों को सुधारने या बिगाड़ने में उसके माता-पिता का भी उतना ही हाथ होता है, जितना कि उसके शिक्षकों व सहपाठियों का।

  बच्चों को संस्कारवान बनाने की सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण जिम्मेदारी माता-पिता की है। निश्चित तौर पर पर कुछ हद तक यह जिम्मेदारी शिक्षकों की भी है परंतु विडंबना यह है कि वर्तमान में बच्चों को स्कूल व परिवार दोनों ही जगह संस्कार नहीं मिल पा रहे हैं।      
ऐसा इसलिए क्योंकि बच्चा स्कूल में तो केवल 5 से 6 घंटे बिताता है परंतु अपना शेष समय अपने घर पर बिताता है। ऐसे में माता-पिता व शिक्षक दोनों की बराबरी की जिम्मेदारी होती है कि वे अपने बच्चों को संस्कार व शिष्टाचार का सबक सिखाएँ। अकेले शिक्षकों या स्कूल प्रशासन पर सारी जिम्मेदारियाँ मढ़ना कहाँ तक उचित है?

'बच्चों को संस्कार देने की जिम्मेदारी किसकी है?' इस विषय पर हमने कई ऐसे राजनीतिज्ञों से चर्चा की, जो शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े रहे हैं। इस विषय पर उनके मत इस प्रकार हैं -

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अर्चना चिटनीस (स्कूली एवं उच्च शिक्षामंत्री) :- बच्चों को संस्कारवान बनाने की सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण जिम्मेदारी माता-पिता की है। निश्चित तौर पर कुछ हद तक यह जिम्मेदारी शिक्षकों की भी है परंतु विडंबना यह है कि वर्तमान में बच्चों को स्कूल व परिवार दोनों ही जगह संस्कार नहीं मिल पा रहे हैं।

'चाइल्ड डेवलपमेंट' यह एक ऐसा नाजुक सॉफ्टवेयर है, जो हमारी लाइफ स्टाइसे संचालित होता है। हमारे बच्चे बहुत सारी चीजें औपचारिक व अनौपचारिक तौर पर हमारी लाइफ स्टाइल से ही सीखते हैं।

कल तक संयुक्त परिवारों का प्रचलन था, जिनमें माँ-बाप के द्वारा बच्चों को दिए गए संस्कारों में कमी होने पर घर के बड़े-बुजुर्ग उस कमी को पूरा कर देते थे। उस वक्त छोटी-छोटी बातों के माध्यम से बच्चों को संस्कारों का पाठ पढ़ाया जाता था। यदि हम भारतीय त्योहारों की ही बात करें तो ये त्योहार भी बच्चों को संस्कारों का पाठ पढ़ाने के साथ-साथ उन्हें रिश्तों के प्रति जिम्मेदार बनाते हैं।

यदि हम गौर करें तो हमारे तौर-तरीके व जीवनशैली का बहुत गहरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। रही बात संस्कारों का सबक सिखाने की जिम्मेदारी थोपने की, तो मेरे अनुसार बच्चों को संस्कार देने की साझा जिम्मेदारी माता-पिता व शिक्षक दोनों की है।

  यदि शिक्षक और पालक एक-दूसरे पर आरोप मढ़ते रहे तो हम कभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाएँगे और बच्चे संस्कारवान के बजाय संस्कारहीन बनते जाएँगे। अब वक्त आ गया है जब दोनों वर्गों को अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए।      
तुकोजीराव पवार (भूतपूर्व उच्च शिक्षामंत्री) :- बच्चों को संस्कार देने की सबसे पहली व महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उनके माता-पिता व परिजनों की होती है क्योंकि पैदा होने के बाद बच्चा सबसे ज्यादा इन्हीं के संपर्क में रहता है। स्कूल तो वो बड़ा होने के बाद जाता है।

हालाँकि जब बच्चा स्कूल जाता है तब उसके प्रति शिक्षकों की भी जिम्मेदारियाँ होती हैं। निष्कर्ष के तौर पर कहें तो माता-पिता व शिक्षक दोनों को ही अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए बच्चे का भविष्सँवारकर उसे संस्कारवान बनाना चाहिए।

पारस जैन (भूतपूर्व स्कूली शिक्षामंत्री) :- बच्चों को संस्कारवान बनाने में उसके परिवार का सबसे बड़ा हाथ होता है। वो संस्कार ही हैं, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होते हैं। परिवार से संस्कारों का सबक सीखने के बाद विद्यालय की बारी आती है, जहाँ बच्चों को किताबी शिक्षा के साथ-साथ नैतिक शिक्षा का भी पाठ पढ़ाया जाता है। मेरा मानना है कि स्कूल में बच्चों को संस्कारों के साथ-साथ राष्ट्रवाका भी पाठ पढ़ाना चाहिए, जिससे कि बच्चा एक संस्कारवान संतान व जिम्मेदार नागरिक बने।

इस चर्चा का सार केवल यही है कि यदि शिक्षक और पालक इसी प्रकार एक-दूसरे पर आरोप मढ़ते रहे तो हम कभी किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाएँगे और बच्चे संस्कारवान के बजाय संस्कारहीन बनते जाएँगे।

अब वक्त आ गया है जब इन दोनों वर्गों को अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए ईमानदारी से अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए तथा बच्चों के रूप में भावी नागरिकों की एक ऐसी पौध तैयार करना चाहिए, जो समाज व देको उत्कर्ष व उन्नति के शिखर पर ले जाए।