गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By स्मृति आदित्य

कितनी लाचार टीवी सीरियल की औरतें

कितनी लाचार टीवी सीरियल की औरतें -
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टीआरपी के हंटर से निर्देशित हिन्दी धारावाहिकों की एक खासियत है कि इनमें स्त्री पात्रों का चित्रण एकांगी तरीके में किया गया है। एक अविश्वसनीय रूप से भली तो दूसरी उतनी ही सीमा तक बुरी...।

या तो स्त्रियाँ चालाक और चालबाज हैं या फिर कमजोर और कुंठित। सकारात्मक रूप से चौकस और चतुर ना तो वे स्वयं हैं ना ही वे देखने वाली स्त्रियों को ऐसा कोई संदेश देती दिखाई पड़ती हैं। हर जगह रोना-धोना और गलतफहमियों का ऐसा वितृष्णा भरा माहौल है कि अंततः दर्शक किसी ना किसी 'सिटकॉम' (सिचुएशनल कॉमेडी) की शरण में जाना बेहतर समझता है। इन दिनों चल रहे तीन प्रमुख धारावाहिकों का जायजा लें तो कमोबेश यह स्थिति और स्पष्ट हो जाती है।

माता-पिता के चरणों में स्वर्ग :
इस धारावाहिक में एक सुहानी है और एक है लोलिता...। दोनों देवरानी-जेठानी। सुहानी अव्वल दर्जे की आदर्श और अच्छी जबकि लोलिता उतनी ही धूर्त और दुष्ट। ये असमान्यताएँ इस हद तक कि एक अपनी चालाकियों को लगातार अंजाम देती चलती है और दूसरी इस हद तक सज्जन कि उसे पहचानने की कोशिश तक नहीं करती। फलस्वरूप घर से निकाल दी जाती है। और तो और, एक एपिसोड में उसके अपाहिज पति शुभ को दुश्मन चाकू से मारने वाला है, तब तक सुहानी को बस बदहवास-सी ही बताया जा रहा है।

धारावाहिकों के पात्र इतने चतुर और समझदार तो बताए ही जा सकते हैं कि दर्शक उनसे ही प्रेरणा ले सकें। मगर नहीं, यहाँ तो लाचारी, बेबसी, मजबूरी, निरीहता और कमजोरी का यह आलम है कि घर की औरतें भी इन स्त्री पात्रों के लिए मन्नतें माँगने लगती हैं।

एक अजीब किस्म की भयावहता और भीरूता इन धारावाहिकों में परोसी जा रही है। सवाल यह है कि जिस माध्यम में इतनी ताकत है कि वह दर्शकों पर गहराई से और तीव्रता से असर कर सकता है, उसकी नैतिक जिम्मेदारी क्या है? क्या हम घर बैठी औरतों को इस तरह की स्थितियों से निपटने के गुर नहीं सिखा सकते?

बालिका वधू :
यहाँ स्त्री पात्र कमजोर तो नहीं है, लेकिन कभी-कभी परिस्थितियाँ हद से ज्यादा असामान्य बनाकर पेश कर दी जाती हैं। इस धारावाहिक का एक फंडा है- पहले किसी पात्र को दर्शकों का दुलारा बना दो और फिर अचानक उसे ऐसी हालत में डाल दो कि दर्शक सी-सी कर उठें। पहले सुगना को लगातार अभागन दिखाया गया, जैसे ही उसके हालात बदले फिर 'गहना' को पकड़ा।

गर्भवती सुगना कभी मंदिर की सीढ़ियों से लुढ़की, तो कभी ताऊसा के भेजे गुंडे उस पर चाकू से वार करते दिखाए गए। घर की महिलाओं के मुँह खुले के खुले रह गए।

बिदाई : सपना बाबुल का :
यहाँ नायिका साधना इतनी सहनशील और सत्यवादी है कि उस पर यकीन करना मुश्किल है। एपिसोड-दर-एपिसोड उस पर अत्याचार होते रहते हैं और वह लगातार रोती रहती है। पहले रागिनी को उसके काले रंग की वजह से सहानुभूति बटोरने में लगा दिया, फिर जो सुंदर थी यानी की साधना उसकी किस्मत को ग्रहण लगा दिया।

जब-तब उसे गुंडे छेड़ देते हैं और कोई मर्द आकर मदद करता है। पहले आलेख के मित्र ने बचाया था। आजकल उसका देवर रणबीर उसकी इज्जत बचाने के 'जुर्म' में जेल में है। प्रश्न यह है कि धारावाहिक के इन पात्रों में सहजता क्यों नहीं है? परिस्थिति के समक्ष इनका 'एटिट्यूड' इतना 'एबनॉर्मल' क्यों होता है?

सीधे-सच्चे पात्र अब गढ़े ही नहीं जा रहे हैं। रोचकता के नाम पर सनसनी और रिश्तों के नाम पर जालसाजी। हत्या, हिंसा, धोखाधड़ी और लंपटता के दो छोरों पर खड़ी दो अजीब तरह की औरतें तथा इनमें से कोई भी सामान्य नहीं। चलिए यहाँ तक भी बर्दाश्त था मगर यह तो कतई और कदापि बर्दाश्त से बाहर है कि एक स्त्री को उसके मान-सम्मान, जान और अस्तित्व की रक्षा के लिए भी किसी का मोहताज बताया जाए।

दिमागी स्तर पर उसे इतना कमजोर बताया जाए कि उसके सामने अनहोनी हो और वह बस रोती-धोती रहे। तत्काल कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त ना कर पाए। कोई सक्रियता नहीं, कोई समझदारी नहीं। और तो और, मदद के लिए गुहार लगाना भी इन पात्रों को नहीं आता है।

बढ़ते अपराधों के बीच, जरूरत है ऐसे स्त्री पात्रों को गढ़ने की जो घर बैठी महिलाओं में छद्म डर रोपित करने के बजाय उन्हें मानसिक स्तर पर सुदृढ़ बनाए। इन धारावाहिकों का इतना व्यापक प्रभाव है कि घर के जरूरी काम इनके प्रसारण समय के अनुसार तय किए जाते हैं। क्या एक बार इनके निर्माता-निर्देशक यह महसूस नहीं कर सकते कि अपने पात्रों को असामान्यताओं के दल-दल से निकालकर देशभर की महिलाओं को सशक्त बनाने की जिम्मेदारी निभाएँ।