सत्ता : अटल बिहारी वाजपेयी की कविता
कहीं आजादी फिर से न खोएं ...
मासूम बच्चों,बूढ़ी औरतों,जवान मर्दों की लाशों के ढेर पर चढ़करजो सत्ता के सिंहासन तक पहुंचना चाहते हैंउनसे मेरा एक सवाल है :क्या मरने वालों के साथउनका कोई रिश्ता न था?न सही धर्म का नाता,क्या धरती का भी संबंध नहीं था?पृथिवी मां और हम उसके पुत्र हैं।अथर्ववेद का यह मंत्रक्या सिर्फ जपने के लिए है,जीने के लिए नहीं?आग में जले बच्चे,वासना की शिकार औरतें,राख में बदले घरन सभ्यता का प्रमाण पत्र हैं,न देश-भक्ति का तमगा,वे यदि घोषणा-पत्र हैं तो पशुता का,प्रमाश हैं तो पतितावस्था का,ऐसे कपूतों सेमां का निपूती रहना ही अच्छा था,निर्दोष रक्त से सनी राजगद्दी,श्मशान की धूल से गिरी है,सत्ता की अनियंत्रित भूखरक्त-पिपासा से भी बुरी है।पांच हजार साल की संस्कृति :गर्व करें या रोएं?स्वार्थ की दौड़ मेंकहीं आजादी फिर से न खोएं।