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Last Modified: गुरुवार, 23 अप्रैल 2015 (13:04 IST)

सबको शिक्षा तो दी लेकिन किस काम की

सबको शिक्षा तो दी लेकिन किस काम की - Universal primary education
सार्वभौम प्राइमरी शिक्षा के सहस्राब्दी लक्ष्य पर यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट ने भारत के प्रदर्शन पर संतोष जताया है। लेकिन गुणवत्ता और वयस्क शिक्षा के हालात अब भी दयनीय हैं। क्या भारत को इतने भर से ख़ुश हो जाना चाहिए?
 
15 साल पहले 164 देशों ने सबके लिए शिक्षा के आह्वान के साथ इस लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प लिया था। लेकिन एक तिहाई देश ही इस लक्ष्य को पूरा कर पाए हैं। भारत के नाम बेशक कुछ तारीफ है कि उसने अपने यहां प्राइमरी शिक्षा में नामांकन की दर में सुधार किया है लेकिन शैक्षिक गुणवत्ता और वयस्क साक्षरता के मामले में भारत अभी भी लिस्ट में नीचे ही है। यूनेस्को ने माना है कि भारत ड्रापआउट की दर में 90 फीसदी गिरावट लाने में सफल रहा है। और इस मामले में पड़ोसी देश नेपाल को भी सराहा गया है। उसने भी अभूतपूर्व अभियान चलाकर अपने यहां सबके लिए शिक्षा अभियान को नई ऊंचाईंयां हासिल कराई हैं।
 
लेकिन क्या भारत को यूनेस्को की मामूली सी तारीफ पर इतराना शुरू कर देना चाहिए या अपने अंदर झांकने और जमीनी स्थिति का मुआयना सही परिप्रेक्ष्य में करने का भी ये सही वक्त होना चाहिए? अगर भारत शैक्षिक कमियों को लांघना चाहता है तो उसे अपनी सारी ताकत उन विसंगतियों को दूर करने में लगानी होगी जो सार्वभौम शिक्षा के नागरिक अधिकार को खोखला करने पर आमादा रहती आई हैं और कर ही रही हैं। इस लिहाज से देखें तो अपनी पीठ थपथपाने से ज्यादा ये मौका सजगता और सतर्कता का है।
 
प्राथमिक शिक्षा तक सर्वशिक्षा अभियान चलाकर भारत ने सफलता हासिल की है और इसे बुनियादी अधिकार बनाकर, मुफ्त शिक्षा का प्रावधान कर आम समाज को जोड़ने की कोशिश की गई है। लेकिन आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि अभियान तो सफल रहा लेकिन इस अभियान की गुणवत्ता सवालों के घेरे में है। इसमें भर्तियां तो हो गईं, आंकड़े भी आ गए लेकिन सिस्टम और प्रणाली तो लचर ही नजर आती है।
 
शिक्षा की गुणवत्ता एक बड़ा प्रश्न है। आप दाखिले दिलाकर, कक्षाओं में उत्तीर्ण होने की दरें बढ़ाकर अपना ढोल पीट सकते हैं लेकिन इसका क्या लाभ। उत्तराखंड जैसे राज्य का ही उदाहरण लें जहां कहने को तो साक्षरता दर देश की कुल साक्षरता दर से अधिक यानी करीब 80 फीसदी बताई जाती है लेकिन असल हालात का अंदाजा आप यहां के सरकारी प्राइमरी स्कूलों का दौरा कर लगा सकते हैं। और यही स्थिति कमोबेश देश के अन्य राज्यों में भी है।। सर्वशिक्षा अभियान और उसके बाद मिड-डे मील महायोजना के साथ खिलवाड़ भी इस देश में देखा गया है कि सही इरादे किस तरह अंजाम तक पहुंचते पहुंचते करप्ट कर दिए जाते हैं।
 
शिक्षा के मामले में देखें तो एक समस्या छात्र शिक्षक अनुपात की भी है। पद रिक्त पड़े हुए हैं। टीचर या तो हैं नहीं हैं तो जहां उन्हें होना चाहिए वहां नहीं हैं। पाठ्यक्रमों की विसंगति तो पूरे देश में एक विकराल समस्या के रूप में उभर कर आई है। पब्लिक स्कूल बनाम सरकारी स्कूल का विद्रूप और विरोधाभास भी इस देश में किसी से छिपा नहीं है। फिर स्कूली संसाधन का भी सवाल है। आज भी कई सरकारी स्कूल जर्जर हालात में चल रहे हैं। कई जगह तो देखा गया है कि लड़कियों के लिए टॉयलेट तक नहीं होते।
 
कहा जा सकता है कि विकसित और अमीर देशों के पास मौके हैं, संसाधन हैं, सब कुछ है। वे किसी भी लक्ष्य को आसानी से पूरा कर सकते हैं, भारत इतनी बडी आबादी का देश है, समस्याएं बहुत सारी हैं आदि आदि। लेकिन हम ये भी ध्यान दिलाना चाहेंगे कि लक्ष्य के प्रति बेहतर नतीजा देने वाले देशों में अर्जेटीना, क्यूबा, चिली और नेपाल जैसे अपेक्षाकृत छोटे, कमजोर और गरीब देश भी शामिल हैं।
 
हमें स्वीकार करना चाहिए कि लालफीताशाही और अकर्मण्य और सुस्त सरकारी मशीनरी, किस तरह नेक लक्ष्यों को चौपट करती जाती है। बाहुबली देशों की कतार में आने के लिए आतुर और मगन देश को ये नहीं भूलना चाहिए कि सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा हो या अन्य सामाजिक मुद्दे, वो अब भी विसंगतियों के दलदल में फंसा है और उससे उबरने के लिए जिस इच्छाशक्ति की जरूरत है वो सत्ता-राजनीति के लिए एक समय बाद बस एक नारा भर रह जाता है। गेंद की तरह उसे उछालते रहिए।
 
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी