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Last Modified: शनिवार, 7 जनवरी 2017 (12:52 IST)

भारत में चिंता का सबब बनती आत्महत्याएं

भारत में चिंता का सबब बनती आत्महत्याएं - suicide in India
भारत में आत्महत्या के मामलों ने समाजविज्ञानियों को चिंता में डाल दिया है. वर्ष 2015 में 1.34 लाख लोगों ने अलग अलग कारणों से अपनी जान दे दी।
 
हाल में जारी सरकारी आंकड़ों से इसका खुलासा हुआ है। आत्महत्या करने वालों की तादाद के मामले में महाराष्ट्र (16970) के बाद तमिलनाडु (15,777) और पश्चिम बंगाल (14,602) का नंबर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी बीते दिनों दुनिया भर में होने वाली आत्महत्याओं को लेकर एक रिपोर्ट जारी की थी। उसमें कहा गया था कि दुनिया भर में सालाना आत्महत्या के लगभग आठ लाख मामलों में 21 फीसदी भारत में ही होते हैं। इस मामले में भारत को अव्वल बताया गया था। लगातार बढ़ती इस तादाद को ध्यान में रखते हुए अब इस समस्या की गहराई में जा कर इस पर अंकुश लगाने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है।
 
केंद्र सरकार की ओर से जारी ताजा आंकड़ों में कहा गया है कि वर्ष 2015 के दौरान देश में कुल 1 लाख 33 हजार 623 लोगों ने आत्महत्या कर ली। यह तादाद वर्ष 2014 के मुकाबले डेढ़ फीसदी ज्यादा है। इस मामले में महाराष्ट्र का स्थान सबसे ऊपर है। इसमें कहा गया है कि देश में होने वालीं आत्महत्या की कुल घटनाओं में 51.2 फीसदी सिर्फ पांच राज्यों यानी महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक व मध्यप्रदेश में ही हुईं। जहां तक आत्महत्याओं की तादाद बढ़ने का सवाल है इसमें सबसे ज्यादा वृद्धि (129.5 फीसदी) उत्तराखंड में दर्ज की गई। उसके बाद मेघालय (73.7 फीसदी), नगालैंड (61.5 फीसदी) और जम्मू-कश्मीर (44.2 फीसदी) का स्थान है।
 
रिपोर्ट में कहा गया है कि आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा आत्महत्याएं पुडुचेरी और सिक्किम में होती हैं। पुडुचेरी में प्रति 10 लाख लोगों में से औसतन 432 लोग आत्महत्या करते हैं जबकि सिक्किम के मामले में यह आंकड़ा 375 है। जहां तक आत्महत्या करने वालों का सवाल है दैनिक मजदूरी करने वालों की तादाद में सबसे ज्यादा 51 फीसदी वृद्धि दर्ज की गई है। आत्महत्या करने वाले कुल लोगों में ऐसे 17.8 फीसदी मजदूर शामिल हैं। उनके बाद महिलाओं का नंबर है।
 
नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2014 में आत्महत्या करने वालों में 18 से 30 आयुवर्ग के युवाओं की तादाद सबसे ज्यादा 44,870 थी। उनके अलावा 14-18 वर्ष के 9,230 किशोर भी इनमें शामिल थे। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में इस बात पर हैरत जताई गई थी कि भारत में आत्महत्या करने वालों में बड़ी तादाद 15 से 29 साल की उम्र के लोगों की है। एनसीआरबी के आंकड़ों से साफ है कि देश में आत्महत्या की दर दुनिया की औसत आत्महत्या दर के मुकाबले बढ़ी है।
 
वजह
किसी भी देश में आत्महत्या की कई वजहें होती हैं और भारत भी इसका अपवाद नहीं हैं। यहां इसके लिए मानसिक विकार, अवसाद, आर्थिक परेशानी, प्रेम में नाकामी, असफल विवाह, पेशेवर जीवन का दबाव, बेरोजगारी, पढ़ाई-लिखाई में बेहतर प्रदर्शन करने और बेहतर संस्थानों में दाखिला लेने का दबाव जैसी वजहें गिनाई जाती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि आत्महत्या करने वाले 90 फीसदी लोग किसी न किसी मानसिक विकार से पीड़ित रहते हैं। यही वजह है कि अब पूरे परिवार के एक साथ आत्महत्या करने के मामले भी सामने आते रहते हैं।
 
मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. एस. पी. सिंह बताते हैं, "मौजूदा दौर में एक-दूसरे से आगे निकलने की गलाकाट होड़ की वजह से जीवन के हर क्षेत्र में भारी मानसिक दबाव का सामना करना पड़ता है। ज्यादातर लोग इससे हार मान कर आत्महत्या का सहज रास्ता चुन लेते हैं।" वह कहते हैं कि नौकरी छूटने या किसी बीमारी की चपेट में आने जैसी छोटी-छोटी वजहों से आत्महत्या करने के मामलों से साफ है कि भारी दबाव के चलते खासकर युवा वर्ग टूट कर बिखर रहा है।
 
मनोवैज्ञानिक डॉ. सुनील भट्टाचार्य कहते हैं, "युवा तबके में जूझारू प्रवृत्ति कम हो रही है। यही वजह है कि वह मामूली दबाव भी नहीं झेल पाते।" विशेषज्ञों का कहना है कि आत्महत्या अस्थायी समस्या का स्थायी समाधान है जो युवा वर्ग को लुभा रहा है। भट्टाचार्य का कहना है कि बदलते सामाजिक मूल्यों और टूटते संयुक्त परिवारों की वजह से पारंपरिक सपोर्ट प्रणाली खत्म हो रही है। इससे तनाव या दबाव के दौर में वह नैतिक, मानसिक या आर्थिक समर्थन नहीं मिल पाता जो पहले संयुक्त परिवारों में मिलता था। यह भी आत्महत्या की एक प्रमुख वजह है।
 
अंकुश के उपाय
ज्यादातर स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि आत्महत्या का मन बना चुके किसी व्यक्ति को रोकना संभव नहीं है। यह बात कुछ हद तक सही हो सकती है। लेकिन जब ऐसे मामले लगातार बढ़ने लगे और युवा तबके में यह प्रवृत्ति चिंताजनक स्तर तक पहुंचने लगे तो इस धारणा पर नए सिरे से विचार करना जरूरी है। बदलते सामाजिक और पेशेवर परिदृश्य में कुछ ठोस उपायों के जरिए इस पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में सरकारों को सलाह दी गई थी कि आत्महत्या की मीडिया रिपोर्टिंग सही तरीके से हो और देश में अल्कोहल को लेकर ठोस नीति बनाई जाए। इसके साथ ही आत्महत्या के साधनों पर रोक लगाते हुए आत्महत्या का प्रयास करने वालों की उचित देखभाल की जानी चाहिए।
 
मनोरोग विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में आत्महत्याएं रोकने के लिए एक राष्ट्रीय योजना तैयार करना जरूरी है। उनके मुताबिक आत्महत्या की समस्या के बहुआयामी होने की वजह से इस पर अंकुश के उपाय भी बहुआयामी होने चाहिए। उसी स्थिति में कामयाबी मिलेगी। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को एक ठोस राष्ट्रीय योजना के तहत गैर-सरकारी संगठनों की सहायता से इस दिशा में पहल करनी होगी। समाजविज्ञानी प्रोफेसर बीरेन कुंडू कहते हैं, "यह समस्या महज मानसिक स्वास्थ्य से नहीं जुड़ी है बल्कि इसके सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे पहलू भी हैं। इस समस्या पर काबू पाने के लिए तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ना होगा।" ऐसा नहीं होने तक देश का भविष्य कही जाने वाली युवा पीढ़ी आसानी से अपनी समस्या के स्थायी समाधान की यह राह अपनाती रहेगी।
 
रिपोर्टः प्रभाकर