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Last Modified: गुरुवार, 16 नवंबर 2017 (11:47 IST)

क्या सोशल मीडिया आत्महत्या का कारण है?

क्या सोशल मीडिया आत्महत्या का कारण है? | Social media
किशोर उम्र के बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती दर का क्या सोशल मीडिया के बढ़ते इस्तेमाल से कोई संबंध है। अमेरिका में आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि इनके बीच रिश्ता हो सकता है।
 
अमेरिका में आंकड़ें बताते हैं कि किशोर उम्र के बच्चों में आत्महत्या की दर दो दशक तक गिरने के बाद 2010 से 2015 के बीच बढ़ गयी। यह आंकड़े संघीय सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन यानी सीडीसी के हैं। आत्महत्या की दर क्यों बढ़ी यह अभी पता नहीं है। आंकड़ों का यह विश्लेषण इस सवाल का जवाब नहीं देता लेकिन इस ओर संकेत जरूर करता है कि सोशल मीडिया का बढ़ता इस्तेमाल इसकी एक वजह हो सकता है।
 
रिसर्चरों के मुताबिक हाल में "साइबर बदमाशी" और ऐसे सोशल मीडिया पोस्ट जिसमें "संपन्न" जीवन दिखता है, वह किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाल रहा है और इन चीजों को आत्महत्या के लिए दोषी माना जा रहा है। 17 साल की काइतलिन हर्टी कोलोराडो हाई स्कूल की सीनियर छात्र है और उन्होंने पिछले महीने कई स्थानीय बच्चों के आत्महत्या की घटना के बाद जागरूकता के लिए अभियान चलाया है।
 
काइतलिन का कहना है, "कई घंटों तक इंस्टाग्राम की फीड को देखने के बाद मुझे मेरे बारे में बहुत बुरा महसूस हुआ, मैं खुद को अलग थलग महसूस कर रही थी।" क्लोए शिलिंग की उम्र भी 17 साल है उनका कहना है, "कोई भी उन बुरी बातों के बारे में सोशल मीडिया पोस्ट नहीं डालता जिससे वह गुजर रहा होता है।" क्लोए शिलिंग ने भी किशोरों को इंटरनेट या सोशल मीडिया से एक महीने तक दूर रखने के इस अभियान में मदद की। अभियान में सैकड़ों किशोर उम्र के बच्चे शामिल हुए।
 
रिसर्चरों ने 2009 से 2015 तक सीडीसी के आत्महत्या के रिपोर्टों को देखा और अमेरिकी हाई स्कूल के बच्चों की आदतों, रुचियों और व्यवहारों पर किये गये दो सर्वेक्षणों के नतीजों का भी अध्ययन किया। सर्वेक्षण में 13 से 18 साल की उम्र के करीब पांच लाख किशोर शामिल हुए। उनसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया, टेलिविजन और दोस्तों के साथ बिताए वक्त के बारे में सवाल पूछे गये। इसके साथ ही उनसे मूड, निराशा की अवस्था और आत्महत्या के विचार के बारे में सवाल पूछे गये।
 
रिसर्चरों ने उन परिस्थितियों का विश्लेषण नहीं किया जिनमें किशोरों ने आत्महत्या की थी। अमेरिकन फाउंडेशन फॉर सुसाइड प्रिवेंशन की चीफ मेडिकल अफसर डॉ क्रिस्टीन मौतिए ने बताया कि इस अध्ययन में मिले सबूतों के आधार पर दावा नहीं किया जा सकता कि किशोरों को आत्महत्या के लिए बहुत से कारण प्रभावित करते हैं। 
 
मंगलवार को क्लिनिकल साइकोलॉजिकल साइंस जर्नल में छपे इस रिसर्च के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है: हर रोज कम से कम पांच घंटे स्मार्टफोन समेत दूसरे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल करने वाले किशोरों की तादाद 2009 के 8 फीसदी से बढ़ कर 2015 में 19 फीसदी हो गयी। जो किशोर हर रोज केवल एक घंटे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं उनकी तुलना में इन किशोरों में आत्महत्या की प्रवृत्ति करीब 70 फीसदी ज्यादा है।
 
2015 में 36 फीसदी किशोरों ने अत्यंत निराशा और दुख की अवस्था का सामना करने के साथ ही आत्महत्या पर विचार करने की बात भी मानी। 2009 में ऐसा मानने वाले किशोर 32 फीसदी थे। केवल लड़कियों के लिए यह दर 2015 में 45 फीसदी थी जबकि 2009 में 40 फीसदी।
 
2009 में 12वीं क्लास में पढ़ने वाली 58 फीसदी लड़कियों ने हर दिन या फिर करीब करीब हर दिन सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया लेकिन 2015 में ऐसा करने वाली लड़कियों की तादाद 87 फीसदी पर पहुंच गयी। जो लोग कम सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं उनके मुकाबले इन लड़कियों के तनाव में रहने की प्रवृत्ति 14 प्रतिशत ज्यादा दिखाई दी।
 
रिसर्च की लेखिका ज्यां ट्वेंगे सैन डिएगो की यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफेसर हैं। उनका कहना है, "हमें यह सोचना बंद करना होगा कि मोबाइल फोन नुकसानदेह नहीं है। यह कहने की आदत बनती जा रही है कि अरे ये तो सिर्फ अपने दोस्तों से संपर्क रख रहे हैं। बच्चों के स्मार्टफोन और सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर नजर रखना जरूरी और साथ ही उसे उपयुक्त रूप से सीमित करना भी।"
 
न्यू मेक्सिको यूनिवर्सिटी में किशोर मेडिसीन के विशेषज्ञ डॉ विक्टर स्ट्रासबुर्गर का कहना है कि यह रिसर्च केवल किशोरों की आत्महत्या, तनाव और सोशल मीडिया के बीच एक संबंध दिखाती है। यह दिखाती है कि नई तकनीकों पर और रिसर्च की जरूरत है।
 
एनआर/एमजे (एपी)
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