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Last Modified: शनिवार, 23 जून 2018 (10:57 IST)

कच्ची उम्र में सयानापन, मतलब बच्चियों के यौन शोषण का ख़तरा बढ़ा

कच्ची उम्र में सयानापन, मतलब बच्चियों के यौन शोषण का ख़तरा बढ़ा | sexual abuse
- सिंडी लामोथ 
 
मुझे आज भी याद है, जब एक अजनबी ने मेरी नंगी टांगों को बुरी नज़र से घूरा था। ये वाक़िया उस वक़्त का है, जब गर्मियों के दिन थे और मेरी उम्र 11 बरस भी नहीं थी।
 
मैं घर के पास की ही एक किराने की दुकान पर गई थी। वो आदमी मेरी और मेरी मां के पीछे लाइन में खड़ा था। वो मुझे लगातार ऊपर से नीचे तक घूर रहा था। वो शख़्स मेरे पिता की उम्र का रहा होगा। लेकिन मुझे उसकी निगाहें बिल्कुल भी दोस्ताना नहीं लगीं।
 
मैं अपनी बाक़ी दोस्तों के मुक़ाबले जल्दी बड़ी हो गई थी। मेरे अंग कम उम्र में ही विकसित हो गए थे और मैं अपनी हम-उम्रों से ज़्यादा बड़ी नज़र आने लगी थी।
 
मेरा ज़हन, शरीर में आए इन बदलावों से ताल-मेल बिठाने में मुश्किल महसूस कर रहा था। बड़ी उम्र के मर्दों की घूरती निगाहें मुझे परेशान करती थीं। मैं परेशान हो जाती थी। असुरक्षित महसूस करती थी।
 
मेरे पास से गुजरते अजनबी जब भी चुंबन लेने वाली आवाज़ निकालते, तो मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगता था और कलेजा मुंह को आता था।
 
आज भी अगर मैं अपनी आंखें बंद कर लूं, तो क़रीब से गुज़रती गाड़ियों से आती वो अश्लील और भद्दी आवाज़ें मुझे आज भी सुनाई देती हैं। मैं फिर से वही दस बरस की बच्ची बन जाती हूं, जो सब के सामने छोटे कपड़े पहनने से डरती हो।
 
अनचाहे भद्दे कमेंट झेलना, ख़ुद को घूरे जाने का तजुर्बा फिर भी दूसरे यौन अपराधों के मुक़ाबले छोटा मालूम होता है। फिर भी, तमाम स्टडी बताती हैं कि वो किसी बच्चे के लिए बेहद तकलीफ़देह हो सकती हैं। उन्हें मनोवैज्ञानिक चुनौतियों का सामना करने का जोखिम उठाने को मजबूर होना पड़ सकता है। इसका असर उनके ज़हन पर पूरी ज़िंदगी रह सकता है।
 
आज #MeToo जैसी मुहिम चलाकर कामकाजी महिलाएं यौन उत्पीड़न के प्रति आवाज़ बुलंद कर रही हैं। लेकिन बच्चों का यौन उत्पीड़न आज भी ज़्यादा चर्चा में नहीं है। जबकि आज ये मुद्दा इतना अहम हो गया है कि इस पर चर्चा की सख़्त ज़रूरत है।
 
वजह साफ़ है। आज कल लड़कियां बड़ी कम उम्र में सयानी हो रही हैं। सयाने होने से मतलब ये कि आज लड़कियों की माहवारी बहुत कम उम्र में शुरू हो रही है। उनका शारीरिक विकास बहुत तेज़ी से कच्ची उम्र में ही होने लगा है।
 
जैसे कि 1970 के दशक में अमरीका में बच्चियों के स्तनों के विकास की औसत उम्र 12 बरस हुआ करती थी। 2011 की एक स्टडी बताती है कि आज अमरीका में बच्चियों के अंगों के विकास की औसत उम्र घटकर 9 बरस रह गई है।
 
एक शोध से पता चला है कि अमरीका में 18 फ़ीसद गोरी, 43 प्रतिशत अश्वेत गैर-हिस्पैनिक और 31 फ़ीसद हिस्पैनिक लड़कियों का मासिक धर्म नौवां जन्मदिन आते-आते शुरू हो जाता है। अब इसकी वजह क्या है इस पर रिसर्च अभी भी हो रही है।
 
बच्चियों के यौन शोषण का ख़तरा बढ़ा
लेकिन, कम उम्र में लड़कियों के शरीर का विकास होने की वजह से आज 6 से 8 बरस की बच्चियों के यौन शोषण का ख़तरा बढ़ गया है। जो लड़कियां कम उम्र में सयानी हो जाती हैं, उनके यौन उत्पीड़न का ख़तरा अपनी हम-उम्र उन लड़कियों के मुक़ाबले बढ़ जाता है, जिनके अंगों का विकास देर से होता है।
 
कम उम्र में सयानी होने वाली लड़कियों पर हम उम्र लड़कों की भी निगाहें होती हैं, और उन्हें उम्र में बड़े वयस्कों की भी बुरी नज़रों का सामना करना पड़ता है। कई बार तो ऐसी बच्चियों को जान-बूझकर निशाना बनाया जाता है। लड़के या लड़कियां, दोनों ही अगर वक़्त से पहले जवान होने लगते हैं, तो उनके यौन शोषण का जोखिम बढ़ जाता है।
 
ब्रिटेन में बीबीसी की एक रिसर्च से पता चला है कि छह साल की उम्र तक के बच्चों को स्टेशनों और रेल गाड़ियों में यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया गया। अमेरिका के ओरेगन की रहने वाली कैरी जुएर्गेंस को आज भी 11 बरस की उम्र में हुआ एक हादसा याद है। तब वो अपने परिवार के साथ एक वाटर पार्क गई थीं।
 
एक उम्रदराज़ शख़्स ने कैरी का पीछा एक हॉट टब तक किया। उसने टब में अपना हाथ कैरी के ठीक पीछे रखा। फिर वो कैरी से बातें करने लगा। पूछने लगा कि 'तुम कितने बरस की हो, किस स्कूल में पढ़ती हो'।
 
कैरी बताती हैं कि वो उस शख़्स से बचने के लिए वाटर पार्क के तमाम हिस्सों में भागती फिरने लगीं। लेकिन वो आदमी उनका पीछा करता रहा और उन्हें गुदगुदाने की कोशिश करता रहा। कैरी कहती हैं, "मुझे पता ही नहीं कि इसका सामना कैसे करूं, क्योंकि लड़कियों को तो हमेशा विनम्र रहने की सीख दी जाती है।"
 
कैरी कहती हैं, "मैं आज भी उस दिन अपने ज़हन में आई बात याद करती हूं। तब मैंने सोचा कि औरत बनने का यही मतलब है, तो मुझे औरत नहीं बनना।" यूं तो हर बच्ची को माहवारी शुरू होने और स्तनों के विकास के दौरान मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मगर बहुत कम उम्र में सयानी होने वाली बच्चियों के लिए तो ये और भी बड़ी चुनौती है।
 
हाल में 14 साल की उम्र वाली क़रीब 7 हज़ार बच्चियों पर एक रिसर्च की गई। पता चला कि पहली माहवारी के साथ ही ऐसी लड़कियों में तनाव पनपने लगता है। खाने की आदतें बदलने लगती हैं। बड़े होने पर भी ऐसी बच्चियों में डिप्रेशन, खान-पान की दिक़्क़तें और असामाजिक बर्ताव देखने को मिलता है।
 
मनोवैज्ञानिक सेहत पर बुरा असर
अमरीका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर जेन मेंडल ने मासिक धर्म के मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर काफ़ी रिसर्च की है। प्रोफ़ेसर मेंडल कहती हैं, "जल्दी माहवारी शुरू होने के मनोवैज्ञानिक सेहत पर बुरे असर की बातें दुनिया के तमाम देशों में रिसर्च से सामने आई हैं।"
 
इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि ऐसी लड़कियां मर्दों की अनचाही नज़रों का शिकार ज़्यादा होती हैं। शरीर के उभरते अंगों के बारे में भद्दी बातें सुनने को मिल जाती हैं, जो दिमाग़ पर बुरा असर डालती हैं।
 
सयानापन जल्दी आने से लड़कियों का शरीर तो महिलाओं की तरह विकसित होने लगता है। पर, उनकी सोच तो बच्चों वाली ही रहती है। किसी बच्ची के स्तन कम उम्र में ही विकसित हो गए हैं, तो उसका दिमाग़ तो बचपने वाला ही होता है।
 
मासूम मष्तिष्क ऐसे वयस्कों वाले भद्दे कमेंट से ज़ख़्मी हो जाता है। प्रोफ़ेसर जेन मेंडल कहती हैं, "लड़कियों के शरीर का विकास, सब को दिखता है। पता चल जाता है।"
 
दस बरस की उम्र में मेरा पसंदीदा काम गुड़ियों से खेलना और छोटे भाई के साथ डिज़्नी चैनल देखना था। जज़्बाती तौर पर मैं ख़ुद मर्दों की निगाहों का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी। जिन देशों में लड़कियों के वयस्क होने यानी मासिक धर्म शुरू होने को शादी से जोड़कर देखा जाता है वहां स्थिति और गंभीर हो जाती है।
 
यूनीसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया भर में क़रीब 25 करोड़ लड़कियों की शादी 15 साल की उम्र से पहले कर दी जाती है। ये स्थिति सिर्फ़ विकासशील देशों की नहीं है। बल्कि अमरीका जैसे विकसित देश में भी देखने को मिलती है। ज़्यादातर अमेरिकी राज्यों में नाबालिग की शादी कुछ ख़ास हालात में करने के क़ानून हैं। कई राज्यों में तो 13 साल से भी कम उम्र में शादी की इजाज़त है।
 
पहली माहवारी के बाद ही शादी
एक स्वयंसेवी संस्था, 'अनचेनड एट अ ग्लांस' के मुताबिक़ साल 2000 से 2010 के बीच अमरीका में क़रीब दो लाख 48 हज़ार बच्चों की शादी 12 साल तक की उम्र में की गई थी। बांग्लादेश के क़बाइली इलाक़ों में तो पहली माहवारी के बाद ही शादी कर दी जाती है।
 
जल्दी शादी करने के नतीजे बहुत ख़राब और लंबे समय तक रहने वाले होते हैं। सबसे पहले तो ऐसी बच्चियों की पढ़ाई छूठ जाती है। दूसरे, वो पूरी तरह शरीर विकसित होने से पहले ही गर्भवती हो जाती हैं। ऐसी हर 110 लड़कियों में से एक के मां बनने के वक़्त मौत होने का अंदेशा रहता है। ये जोखिम 20 से 24 साल की उम्र में मां बनने से पांच गुना ज़्यादा है।
 
इथियोपिया जैसे देश में तो 10 साल की उम्र में शादी का सीधा ताल्लुक़ लड़कियों के ख़ुदकुशी से पाया गया है। समस्या ये है कि लड़की जैसे ही बड़ी होने लगती है, तो उसके घर वालों को डर सताने लगता है कि कहीं वो किसी के साथ यौन संबंध ना बना ले। नतीजा ये होता है कि कई बार तो लड़कियों की शादी, उनकी माहवारी शुरू होने से पहले ही इज़्ज़त बचाने के नाम पर कर दी जाती है।
 
विकासशील देशों जैसे नेपाल और बांग्लादेश में लड़कियों के बारे में ये सोच आम है कि वो मां-बाप के घर एक अनजान मर्द की अमानत होती हैं। लिहाज़ा मां-बाप जल्द से जल्द अमानत के अनजान दावेदार को ढूंढकर उसे सौंप देना चाहते हैं। नेपाल और बांग्लादेश में बड़े पैमाने पर ऐसे हालात देखने को मिलते हैं।
 
लड़कियों की सेक्सुआलिटी की चिंता
एक स्वयंसेवी संस्था 'केयर' से जुड़ी जेंडर स्पेशलिस्ट निदाल करीम का कहना है कि लड़कियों की सेक्सुआलिटी लड़कियों को छोड़कर सारे ज़माने के लिए चिंता का विषय है। उन्हें ज़माने से बचाने की कोशिश तो की जाती है। लेकिन, लड़कियों को ये नहीं समझाया जाता कि अब वो ज़िंदगी के किन रास्तों से गुज़रेंगी और ख़ुद अपनी हिफ़ाज़त कैसे करनी है।
 
जिन देशों में बाल विवाह आम बात नहीं है, वहां भी लड़कियों की माहवारी जल्दी शुरू होना बड़ी समस्या है। अमेरिका की रहने वाली पॉउलीन कैम्पोस फ्रीलांस लेखिका हैं। वो बचपन में यौन उत्पीड़न की शिकार हुई थीं।
 
पाउलीन कहती हैं कि आठ बरस की उम्र में ही वो बी-कप साइज़ वाली ब्रा पहनने लगी थीं और ढीली-ढाली कमीज़ से अपने उभारों को छुपाने की कोशिश किया करती थीं। पाउलीन कहती हैं, "मुझे अजीब महसूस होता रहता था। मेरा शरीर तो तेज़ी से बढ़ रहा था, मगर मेरा दिमाग़ उसके साथ क़दम-ताल नहीं कर पा रहा था।"
 
2016 की एक स्टडी के मुताबिक़ 11 से 13 साल की उम्र में यौन शोषण का शिकार हुई बच्चियों में अपने शरीर के प्रति घृणा, तनाव और ख़ुद को ख़त्म करने का भाव पनपने लगता है।
 
बढ़ते शरीर और उभरते बदन का गहरा मनोवैज्ञानिक असर होता है। लड़कियां ख़ुद को एक 'चीज़' समझने की मनोवैज्ञानिक चुनौती का सामना करने लगती हैं। कई बार व डिप्रेशन में चली जाती हैं। समाजशास्त्री सीलिया रॉबर्ट का कहना है कि यौन उत्पीड़न किसी भी बच्चे को दूसरों के हाथ का खिलौना होने का एसहास कराता है।
 
जबकि जो बच्चे इस तजुर्बे से नहीं गुज़रे उन्हें वयस्कों की दुनिया ख़ुद को समझने और अलग नज़रिए से देखने का मौक़ा देती है। बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न ज़्यादातर स्कूल जैसी सुरक्षित जगहों पर ज़्यादा होता है। कई केस में देखा गया है कि बच्चों के साथी समूह में ही उन्हें शिकार बनाया गया है।
 
अमेरिका में हुई रिसर्च बताती है कि 56 फ़ीसद किशोरी लड़कियां और 40 फ़ीसद किशोंरों ने स्कूल में यौन उत्पीड़न की शिकायत की। और ये सिलसिला उनके छठवीं कक्षा में पहुंचने से पहले ही शुरू हो गया था, जबकि तब उनकी उम्र 11 से 12 बरस की रही होगी। इस उम्र की एक तिहाई लड़कियों का उनके साथी लड़के यौन उत्पीड़न अमरीका में कर चुके होते हैं।
 
जेन मेंडल कहती हैं कि कई बार हम उम्र बच्चे किसी लड़की के शरीर में आ रहे बदलाव के प्रति जिज्ञासु होते हैं। मगर कई बार वो बदनीयती से भी बहुत सी शैतानियां कर जाते हैं। माहवारी शुरू होने से लेकर स्तनों के विकास तक लड़कियों के सामने बहुत सी मनोवैज्ञानिक चुनौतियां होती हैं। उन्हें नहीं पता होता है कि उनका किरदार, उनकी पहचान क्या होगी।
 
ट्रांसजेंडर-लेस्बियन के साथ भी यौन उत्पीड़न
अक्सर ट्रांसजेंडर युवा और लेस्बियन लड़कियां भी शारीरिक विकास की वजह से यौन शोषण का शिकार होती हैं। अमेरिका में एक रिसर्च से पता चला कि 81 फ़ीसद ट्रांसजेंडर और 72 फ़ीसद लेस्बियन लड़कियां यौन उत्पीड़न की शिकार हुईं। अश्वेत लड़कियों को तो और भी यौन शोषण झेलना पड़ता है।
 
गड़बड़ी ये नहीं कि लड़कियां कम उम्र में जवान दिखने लगती हैं। बल्कि समाज की सोच ग़लत है। स्वीडन की यूनिवर्सिटी ऑफ गोथेनबर्ग में मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर थेरेसा स्कूग का कहना है कि ऐसे जागरूकता प्रोग्राम शुरू करने की ज़रूरत है जिनके ज़रिए लोगों को समाज में सभ्य तरीके से रहने का सलीक़ा सिखाया जाए।
 
उससे भी ज़्यादा जरूरी है बच्चों को सेक्स एजुकेशन देना। वो सयाने होने से पहले समझ सकें कि कौन उन्हें किस नज़र से देख रहा है। ताकि वो दुलार और हवस में फ़र्क़ कर सकें। और हां, यौन शोषण के प्रति 'ज़ीरो टॉलरेंस' की नीति से भी काफ़ी फ़र्क पड़ेगा।
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