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Last Modified: मंगलवार, 6 अक्टूबर 2015 (12:05 IST)

'कृपया हमें पिछड़ा बना दो'

'कृपया हमें पिछड़ा बना दो' - indian reservation policy
आरक्षण की ताकत का अंदाजा होते ही राजनैतिक दलों ने इसे हथियार बना लिया। इसी हथियार ने देश को बुरी तरह घायल कर दिया है। जरूरत अच्छी शिक्षा और अच्छी नौकरियों की है।
 
हम सबने बच्चों को खेलते हुए देखा है। हम खुद भी उस प्रक्रिया से गुजरे हैं। खेलते समय बच्चे तय करते हैं कि किसकी बारी कब आएगी। कभी कभार जब किसी बच्चे की बारी नहीं आ पाती तो अगले गेम में उसे पहले चांस दिया जाता हैं। इस दौरान झगड़े भी होते हैं, लेकिन झगड़ते झगड़ते बच्चे समस्या का स्थायी समाधान करना सीख जाते हैं।
 
अब बड़ों की बात करते हैं, जो काफी समय से कुछ नहीं सीख रहे हैं। आरक्षण ही की मिसाल ले लें। यह भी काफी हद तक खेल में बच्चों की बारी आने जैसा है। लेकिन यहां हार जीत के बजाए पूरी जिंदगी दांव पर लगी होती है, क्योंकि मौके बहुत कम है। सब नौकरी करना चाहते हैं क्योंकि सभी को उसी में सम्मान दिखता है। किसान, लोहार, सफाई कर्मचारी, कलाकार और शिल्पकार बनने में हर किसी को लज्जा आती है। इन क्षेत्रों में बहुत कम आमदनी है। और जब समाज में हर इंसान की हैसियत आमदनी से तय हो और उसी के मुताबिक उससे व्यवहार हो, तो कौन पीछे रहना चाहेगा। इसी धुरी में आरक्षण का पहिया भी घूमता है।
 
भारत में आरक्षण देने का उद्देश्य वंचित वर्ग को सामाजिक और आर्थिक रूप से बराबरी का हक देना था। लेकिन अब यह राजनैतिक औजार बन चुका है। वंचित वर्ग को बराबरी का अवसर मिलना चाहिए, तभी वे राष्ट्र के विकास में समुचित योगदान दे सकते हैं। लेकिन पिछड़ा होने और फायदा लेने के लिए खुद को पिछड़ा साबित करने की होड़, इन दोनों में फर्क है।
 
अब राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने क्रीमी लेयर की सीमा बदलने की वकालत की है। आयोग के अनुसार क्रीमी वर्ग उन्हीं को कहा जाना चाहिए जिनकी वार्षिक आय 10.5 लाख रुपए हो। फिलहाल यह सीमा छह लाख रुपए हैं। आयोग का कहना है कि ऐसा करके ही अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए तय 27 फीसदी कोटा भरा जा सकेगा। लेकिन क्या कोटा भरने के लिए संपन्न परिवारों के बच्चों को विरासत के तौर पर आरक्षण दिया जाना चाहिए।
 
भारत में आज प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय करीब 90 हजार रुपए हैं। लाखों लोग तो साल भर में इतना भी नहीं कमा पा रहे हैं। एक बड़ा तबका 70 रुपए प्रति दिन की औसत आय पर गुजारा करता है। इस लिहाज से देखें तो देश में कम आमदनी वाला एक नया पिछड़ा वर्ग खड़ा हो चुका है। क्या इसे भी आरक्षण दिया जाना चाहिए। इसका हां या ना में जवाब देने से पहले इसके कारणों की समीक्षा जरूरी है।
 
बीते दो दशकों से तेज विकास कर रहे देश में आखिर नया और आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग कैसे खड़ा हुआ। बहुत हद तक सरकारी नीतियां पिछड़ेपन को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार हैं। देश भर में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है। आज सरकारी प्राइमरी स्कूलों या इंटर कॉलेजों में वही बच्चे जाते हैं जो या तो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं या फिर इलाके में इन स्कूलों के अलावा और कुछ नहीं है। गौर से देखिए आपको पिछड़ेपन की जड़ें ऐसे ही जर्जर सरकारी स्कूल के बरामदों में छुपी दिखेंगी।
 
कई प्रमुख लोग आरक्षण नीति पर फिर से विचार करने पर जोर दे रहे हैं। समय बदल चुका है, हालात बदल चुके हैं। लेकिन किसी राजनैतिक दल में फिलहाल यह हिम्मत नहीं कि वो बार बार परेशानी खड़ी करने वाली नीति का मूल्यांकन कर सके। कम नौकरियों के बंटवारे पर राजनीति करने के बदले सब के लिए स्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराना प्राथमिकता होनी चाहिए। जिस दिन हर वर्ग के बच्चे को अच्छी शिक्षा और हर क्षेत्र में समान और मौलिकता से भरे मौके मिलने लगेंगे, उस दिन पिछड़ेपन की यह बहस खुद दम तोड़ने लगेगी।
 
ब्लॉग: ओंकार सिंह जनौटी