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Last Modified: गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016 (11:28 IST)

इनकी शिक्षा का निचोड़ 'बदतमीजी' है

इनकी शिक्षा का निचोड़ 'बदतमीजी' है - Indian Left student
दिल्ली में छात्रों पर पुलिस के लाठीचार्ज को सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन विरोध के नाम पर बेहद शर्मनाक भाषा का इस्तेमाल करने वाले छात्रों को भी अपनी शिक्षा पर शर्म आनी चाहिए।
'भड़वा, चोर, भेड़िया, कातिल' और इनके अलावा भी कुछ बेहद अशिष्ट अपशब्द, इन दिनों भारत के दक्षिणपंथी और वामपंथी छात्रों का एक बड़ा तबका आए दिन कुछ नेताओं के लिए ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहा है। अपने विरोध प्रदर्शन को ये गुट लोकतांत्रिक कहते हैं। नारे लगाते हैं और सामने वाले को तब तक बरगलाते हैं, जब तक वह खीझ न जाए। खीझा तो कहते हैं कि देखो हिंसा पर उतर आया।
 
हिंसा सबसे पहले मानसिक स्तर पर शुरू होती है। शारीरिक हिंसा तो उसका परिणाम है। अगर नामी गिरामी कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों में पढ़ाई करने के बाद भी यह बात समझ में नहीं आती, तो अपनी शिक्षा पर शर्म आनी चाहिए। युवा पीढ़ी का यह हाल देखकर नीति निर्माताओं को भी ग्लानि होनी चाहिए।
 
विकास की प्रक्रिया में गलतियां जरूर होती हैं, लेकिन अगर उन्हें दूर न किया जाए तो गलतियां सामाजिक स्वभाव का हिस्सा बन जाती हैं। भारत में ऐसा कुछ हो रहा है। वहां यह मान लिया गया है कि विरोधी दल के हैं तो अच्छी चीज का भी विरोध करना जन्मसिद्ध अधिकार है।
 
बीजेपी, कांग्रेस, वामपंथी और क्षेत्रीय दल भी इस तरीके को समाजिक स्वभाव बना रहे हैं। इन दलों के छात्र संगठन भी ऐसा ही कर रहे हैं। जेएनयू या इक्का-दुक्का संस्थानों को छोड़ दें तो भारत में ज्यादातर जगहों पर छात्र राजनीति आए दिन निम्न से निम्नतर स्तर पर जा रही है। देश विचारधारा के गुलामों की फौज तैयार कर रहा है।
 
1947 में आजादी मिलने के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल के बीच शरणार्थी संकट को लेकर मतभेद होने लगा। दोनों का नजरिया अलग था। मतभेदों को दूर करने के लिए दोनों के बीच आपस में कई पत्राचार हुए।
 
एक चिट्ठी में सरदार पटेल ने नेहरू को लिखा, 'मुझे लगता है कि आप मुझ पर भरोसा खोते जा रहे हैं।' इसका जवाब देते हुए नेहरू ने लिखा, 'मुझे लगता है कि मैं अपने आप पर भरोसा खोता जा रहा हूं।'
 
मतभेद और गहराने लगे लगे तो पटेल ने महात्मा गांधी को एक खत लिखा, 'मेरे व्यवहार से अगर आपको व जवाहरलाल को दुख होता है तो अच्छा होगा कि आप मुझे मुक्त कर दें।' नेहरू ने भी परिस्थितियों को बेहतर करने के लिए पद छोड़ने की इच्छा जताई।
 
राय अलग-अलग होते हुए भी एक दूसरे का सम्मान करने और शालीनता के दायरे में रहने के इसी हुनर ने भारतीय लोकतंत्र को मजबूती दी। भारत में लोकतंत्र का विकास पाकिस्तान की तरह विखंडित ढंग से नहीं हुआ। तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद यह परम्परा अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता के दौर तक दिखाई पड़ती रही।
 
पार्टी या विचारधारा के अंतर के बावजूद आपसी सम्मान और भाषा की शालीनता ने मतभेदों को वैमनस्य में नहीं बदलने दिया। लेकिन अब ये आत्मनियंत्रण कमजोर पड़ता दिख रहा है।
 
किसी राष्ट्र की परिपक्वता उसकी भाषा में भी दिखती है। भारत जिम्मेदारी वाला लोकतंत्र है और उसे दुनिया में अभी और भी जिम्मेदारी लेनी है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय में सम्मानजनक व्यवहार के लिए घरेलू मोर्चे पर भी इसकी आदत लगानी होगी। राजनीतिक दलों को इसके लिए पहल करनी होगी कि समाज में लोगों का एक दूसरे के प्रति रवैया बदले।
 
रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी