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Last Updated : सोमवार, 24 जून 2019 (21:56 IST)

पलकों पर नकली बरौनियां लगाने से क्या होता है?

पलकों पर नकली बरौनियां लगाने से क्या होता है | eyelid
यह सवाल डॉक्टरों से पूछेंगे तो जवाब मिलेगा - संक्रमण और एक्जीमा का खतरा। फिर भी महिलाओं में लगी है पलकों पर लंबी, घनी नकली बरौनियां लगाने की होड़।
 
 
आंखों को और आकर्षक दिखाने के लिए महिलाओं में लंबी और घनी नकली बरौनियां लगाने का ट्रेंड बढ़ता ही जा रहा है। फेक लैशेज कही जाने वाली इन मेकअप एक्सेसरीज को बनाने वाली कंपनियां भी मुनाफा कमा रही हैं। ऐसा चिपकाने वाला आसान विकल्प भी उपलब्ध है जिसे कोई भी आम व्यक्ति लगा सकता है। साथ ही ऐसा भी जिसे कोई पेशेवर ही लगा सकता है जिसमें एक-एक बरौनी को खास गोंद से व्यक्ति के असली बालों से चिपकाया जाता है। इसमें काफी वक्त लगता है क्योंकि असर औसत रूप से किसी की ऊपरी पलक पर 150 से 250 बरौनियां होती हैं तो उन पर नकली लैशेज चिपकाने में डेढ़ से तीन घंटे तक लग सकते हैं। इसके बाद भी कम से कम 24 घंटे इस पर पानी लगने से बचाना होता है।
 
 
अगर ये सब बिल्कुल सही तरीके से हो भी जाए, तब भी कुछ मामलों में पलकों में संक्रमण हो सकता है। जर्मन शहर वीजबाडेन में प्रैक्टिस करने वाले त्वचा और एलर्जी विशेषज्ञ क्रिस्टियाने बायरेल कहती हैं, "आंखों से पानी गिर सकता है, दर्द हो सकता है और बहुत ज्यादा खुजली भी। यह कोई आरामदायक स्थिति नहीं होती और देखने में भी अजीब लगती है। " वे बताती हैं कि ऐसी एलर्जी पैदा हो सकती है जो आगे चल कर आंखों के आसपास एक्जीमा का रूप ले सकती है।
 
 
पहले सुरक्षा
प्रकृति ने पलकों पर बरौनियां सुंदरता के लिए नहीं बनाईं। इसका काम आंखों में धूल मिट्टी या दूसरे बाहरी कणों और पसीने को जाने से रोकना है। इन्हें बड़े होने में चार से छह महीने लगते हैं और फिर से 100 से 150 दिन तक बनी रहती हैं। झड़ने पर ये फिर उग जाती हैं। लेकिन सबकी बरौनियां अलग होती हैं, कभी पतली तो कभी लगभग ना नजर आने वाली। ऐसे में कई लोग नकली बरौनियों का सहारा लेते हैं। वहीं कई लोग बिना जरूरत के भी इन्हें लगाते हैं।
 
 
नकली लैशेज रेशम, जानवरों के फर से लेकर कई तरह के नकली पदार्थों से बनते हैं। जानवरों में भी मिंक के फर की बरौनियां बनाने वालों में बड़ी मांग है। जानवरों के हितों के लिए काम करने वाले इसका कड़ा विरोध करते हैं। कोट या दूसरी फैशन की चीजें बनाने का भी खूब विरोध होता है जिसके लिए जानवरों की जान ले ली जाती है। लैशेज बनाने वालों का कहना है कि वे जीवित मिंक को कंघी कर उससे झड़ने वाले बाल लेकर अपना काम करते हैं। लेकिन आक्रामक किस्म के होने वाले मिंक जैसे जानवर के लिए इसे मानना मुश्किल लगता है।

 
एशिया से आयात
मिंक के बाल सबसे ज्यादा चीन और दक्षिण कोरिया से आते हैं। इन देशों में जानवरों के संरक्षण के कानून कई पश्चिमी देशों जितने सख्त नहीं हैं। इन पर फर का स्रोत भी नहीं लिखा होता। सबसे महंगा पड़ता है इन बरौनियों को चिपकवाना। पहली बार इसमें 200 यूरो तक लगते हैं और कुछ हफ्तों बाद टच-अप करवाने में और 50-60 यूरो। विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर कोई सैलून 120 यूरो से कम कीमत में ऐसा करने को तैयार हो तो उसके सामान की गुणवत्ता पर संदेह करना बनता है।
 

विकल्प है - लैश सीरम
लंबे लैशेज पाने के लिए कई तरह के सीरम भी बाजार में मिलते हैं। बायरेल कहती हैं, "यह सीरम प्रोस्टाग्लैंडिन्स से जुड़े होते हैं। इनका इस्तेमाल मेडिकल फील्ड में ग्लूकोमा के इलाज में दी जाने वाली आई-ड्रॉप में होता है।" लेकिन बिना डॉक्टर की पर्ची के खरीदे गए सीरम कई बार आंखों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। कभी कभी लैश सीरम के कारण बहुत गंभीर संक्रमण भी हो जाते हैं। एक असर ऐसा भी होता है जिससे व्यक्ति की आइरिस का रंग बदल जाए।

 
कभी कभी आंखों में संक्रमण या बदलाव थोड़े समय के लिए हो या कोई स्थाई बदलाव आ जाए, खतरे हमेशा बने रहते हैं।  इन्हें इस्तेमाल करने वाले करीब 10 फीसदी लोग किसी ना किसी तरह के साइड इफेक्ट झेलते हैं। लेकिन अगर कोई फिर भी ऐसे सीरम इस्तेमाल करना ही चाहे, तो इस बात को लेकर निश्चिंत रह सकता है कि उसकी देखने की शक्ति पर कोई असर नहीं पड़ेगा। 

 
गुडरुन हाइजे/आरपी