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Last Modified: गुरुवार, 8 सितम्बर 2016 (12:14 IST)

इंसान के लालच के आगे हारती पृथ्वी

इंसान के लालच के आगे हारती पृथ्वी - Exploitation of natural resources
ग्लोबल फुटफिंट नेटवर्क की मानें तो इस साल 8 अगस्त तक ही हम इंसानों ने इतने प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल कर लिया है जितना हमें पूरे साल में करना चाहिए था।
लिविंग किंग साइज : हर साल अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक 'ग्लोबल फुटफिंट नेटवर्क' एक अर्थ ओवरशूट डे की गणना करता है। यह वह दिन होता है जब तक हम प्रकृति की उतनी चीजों का उपभोग कर चुके होते हैं, जितने की कमी हमारी पृथ्वी एक साल में फिर से पूरी कर सकती है। साल 2016 में ये तारीख 8 अगस्त थी।
 
जरूरत कितनी है? : आज हम औसतन अपनी पृत्वी की क्षमता का 1.6 गुना इस्तेमाल करते हैं। अगर दुनिया में हर जगह लोग जर्मनों की तरह रहने लगें, तो हमें 3.1 गुना पृथ्वी की जरूरत होगी और अगर अमेरिकियों की तरह जीने लगें तो जरूरतें पूरी करने के लिए हमारी पृथ्वी जैसे करीब पांच ग्रह लगेंगे।
 
गलत बात : फॉसिल फ्यूल और लकड़ी जलाने से हमारा 60 प्रतिशत इकोलॉजिकल फुटप्रिंट बनता है। चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ और भारत दुनिया के सबसे बड़े कार्बनडाई ऑक्साइड उत्सर्जक हैं। हालांकि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन देखने से इन आंकड़ों का सही सही पता चलता है।
जंगलों पर दबाव : पेड़ों से मिलने वाली लकड़ी कागज जैसी जरूरी चीजें बनाने के लिए कच्चा माल हैं। लेकिन मिट्टी को कटने से रोकने के लिए, धरती में पानी को सोखने में मदद के लिए और जलवायु चक्र को ठीक रखने के लिए पेड़ों का होना बेहद जरूरी है। लकड़ी की बेतहाशा मांग जंगल के जंगल साफ कर रही है।
 
क्या भरेगा सबका पेट?
आबादी बढ़ रही है। नई फसलें भी तलाश की जा रही हैं। लेकिन शहरों के विस्तार के कारण कृषि योग्य भूमि सिमट रही है। इस वक्त ईयू में एक व्यक्ति का पेट भरने के लिए औसतन 0.31 हेक्टेयर कृषि भूमि का इस्तेमाल होता है। अगर दुनिया में उपलब्ध पूरी कृषि भूमि को बराबर बांटा जाए तो एक इंसान के हिस्से में 0.2 हेक्टेयर से ज्यादा नहीं आएगा।
पानी बिन मछली : जितनी तेजी से मछलियां पकड़ी जा रही हैं उतनी तेजी से उनकी संख्या नहीं बढ़ती है। एक-तिहाई हिस्सा खाली किया जा चुका है। कार्बनडाई ऑक्साइड उत्सर्जन के कारण भी सागर अम्लीय हो रहे हैं जिससे समुद्री जीवों का जीना और कठिन हो गया है।
 
पानी नहीं, तो जीवन नहीं : संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रोग्राम का अनुमान है कि 2030 तक दुनिया की आधी आबादी को पानी की कमी झेलनी पड़ेगी। ग्राउंड वॉटर रिजर्व कम होते जा रहे हैं और प्रदूषित भी। नदियों और झीलों का प्रदूषण तो है ही, खेती या घर से निकलने वाले गंदे पानी से भी इस्तेमाल लायक पानी के स्रोत सिमट रहे हैं। यह इंसान तो क्या जानवरों के पीने लायक भी नहीं हैं।
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