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Last Modified: गुरुवार, 23 जुलाई 2015 (13:57 IST)

मानहानि गलती है, जुर्म नहीं

मानहानि गलती है, जुर्म नहीं - Defamation law
दुनिया भर में मानहानि को कानूनन अपराध के दायरे से बाहर करने की मुहिम भारत भी पहुंच गई है। सरकार ही नहीं अदालत भी मानहानि को जुर्म के बजाय महज एक भूल करार देने के विकल्पों पर विचार कर रही है।
भारत में आपराधिक मानहानि के दंश से समाज का लगभग हर तबका पीड़ित है। नेताओं और सरकारों पर तीखे तंज कसने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर खुद सियासतदान और मीडिया तक, इस व्यवस्था को बदलने की पुरजोर मांग कर रहे हैं। खासकर साइबर जगत में सोशल मीडिया पर अतिसक्रिय जमात की तरफ से भी विचार और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर मानहानि को दंड संहिता से बाहर करने की कवायद तेज हो गई है। दबी जुबान से ही सही, सरकारें खुद भी मानती हैं कि मानहानि को अपराध से मुक्त करना अब समय की मांग है। यही वजह है कि खुद सत्ता में रही कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी, सत्तारुढ़ भाजपा के नेता सुब्रमण्यम स्वामी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मानहानि को आईपीसी से बाहर करने की सुप्रीम कोर्ट से मांग की है।
 
प्रावधान की उपयोगिता : दरअसल मानहानि को अपराध घोषित करने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और इसके लिए सजा का प्रावधान करने वाली धारा 500, ब्रिटिशकालीन उपबंध हैं। तत्कालीन परिस्थितियों में सरकार का विरोध करने वाले बयान और प्रकाशन को अपराध घोषित करने की बात समझ से परे नहीं है। आजादी के बाद की नाजुक परिस्थितियों में इन प्रावधानों को आईपीसी का हिस्सा बनाए रखने की मजबूरी भी तर्कसंगत कही जा सकती है। लेकिन 1975 में इमरजेंसी लगाकर संसदीय अधिनायकवाद का खुला खेल खेलने में इन दोनों प्रावधानों की अहम भूमिका से रुबरु होने के बाद भी बीते चार दशक से सरकारों की चुप्पी समझ से परे है। साफ है कि इन प्रावधानों की उपयोगिता सरकारों द्वारा अपने हित साधने मात्र तक सीमित है।
 
बीते सात दशक का इतिहास बताता है कि केन्द्र में कांग्रेस से लेकर राज्यों में केजरीवाल सरकार तक हर हुकूमत मानहानि को अपने अपने तरीके से हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहती है। यह बात दीगर है कि इन सभी सरकारों के हुक्मरान किसी न किसी रुप में खुद इन प्रावधानों से पीड़ित रहे, साथ ही इसे फौजदारी के बजाय महज दीवानी मामलों के दायरे में ही रखने की मांग भी करते रहे। केजरीवाल ने तो इस मामले में सियासी नजीर पेश करते हुए पहले सुप्रीम कोर्ट में इस बाबत अर्जी दायर की और बाद में सत्तासीन होने पर मीडिया को धारा 499 और 500 का खौफ भी दिखाया।
 
हालांकि उनका यह दोहरा रुप उजागर होने के बाद उनकी सरकार को इस आशय का सर्कुलर वापस लेना पड़ा। इसके अलावा दूसरी बड़ी खामी मानहानि को आपराधिक और दीवानी, दोनों कानूनों के दायरे में रखना है। आईपीसी में मानहानि को जगह मिलने की वजह से ही किसी व्यक्ति विशेष की मानहानि की शिकायत पर सरकारों के लिए पक्षकार बनने की मजबूरी हो जाती है। इससे सरकारों पर मुकदमों का व्यर्थ बोझ बढ़ता है।
 
अदालत की नजर सरकार पर : भारत में सोशल मीडिया पर सक्रियता बढ़ने के बाद सरकारों द्वारा मानहानि के दुरुपयोग के मामलों में अचानक बढ़ोतरी ने मानहानि को अपराध के दायरे से बाहर करने की बहस को तेज कर दिया है। इसके लिए दी जा रही दलीलों को अदालत भी सकारात्मक नजरिए से देख रही है। खास कर मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में अपने ताजा फैसले में कहा भी है कि मानहानि को जुर्म के बजाय दीवानी मामलों की श्रेणी में रखना चाहिए।
 
हालांकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार होने के कारण हाईकोर्ट ने केन्द्र सरकार को कोई निर्देश नहीं दिया है। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने स्वामी, राहुल और केजरीवाल की अर्जी को साझा सुनवाई के लिए स्वीकार करते हुए सरकार से जवाब तलब किया है कि क्यों न धारा 499 और 500 को मूल अधिकारों के विरोधाभाषी होने के कारण असंवैधानिक घोषित कर दिया जाए। केन्द्र सरकार इस बारे में विधि आयोग के रुख का इंतजार कर रही है, जिसने इस विषय पर समाज के विभिन्न वर्गों से राय मांगी है।
 
बेशक रोग पुराना है लेकिन लाइलाज नहीं है। मानहानि किसी व्यक्ति की हो या हुकूमत की, कानून की नजर में दोनों की अहमियत एक समान है। विधि के इस सामान्य सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए यह बात गले से नहीं उतरती है कि आखिर किसी व्यक्ति की मानहानि के लिए सरकार क्यों मुकदमा लड़े और एक ही भूल के लिए दीवानी एवं फौजदारी दोनों कानूनों के तहत किसी को सजा दिलाने का प्रावधान क्यों हो। यही सवाल कानून की उपयोगिता और सरकारों की मंशा पर संदेह पैदा करते हैं।
 
ब्लॉग: निर्मल यादव