गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
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Written By राम यादव

क्या लौटेगा सृष्टि रचयिता...?

2012 में नहीं होगा प्रलय

क्या लौटेगा सृष्टि रचयिता...? -
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मध्य अमेरिकी देशों की महिमामंडित माया सभ्यता लगभग तीन हजार वर्षों तक चली थी। स्पेनी उपनिवेशवादियों के हमलों के साथ सोलहवीं सदी में उसका पतन हो गया। आगामी 21 दिसंबर 2012 को उसके कैलेंडर के 400 वर्षों से चल रहे 13वें कालचक्र का भी अंत हो जाएगा। लेकिन, हर गाहेबगाहे दुनिया के अंत की भविष्यवाणी करने वाले प्रलयवादी पोंगापंथी और मतलबपरस्त मीडिया मास्टर ढिंढोरा पीटने में जुटे हुए हैं कि माया कैलेंडर के साथ ही दुनिया का भी अंत हो जाएगा। दुनिया का अंत तो इस बार भी नहीं होगा, हां इन प्रलयवादियों को अगले प्रलय के नए बहकावे की एक नई तारीख जरूर ढूंढनी पड़ेगी।....पढ़िए राम यादव के आलेख ''माया नहीं रही, चलती रहेगी कालगणना' की अगली किस्त।

तोर्तुगुएरो के शिलालेख को तत्कालीन माया-शासक 'बहलाम अखाव' के आदेश पर तैयार किया गया था। वह चाहता था कि लोग इसे जानें और अपने देवता की वापसी मनाने की तैयारियों में हाथ बंटाएं। ग्रोनेमायर के अनुसार, 'बोलोन योक्ते' माया लोगों की दृष्टि में 'सृष्टि रचना और युद्ध का देवता' है

तोर्तुगुएरो का शासक वर्ग यह मान कर चल रहा था कि उनका राजा 'बहलाम अखाव' ही इष्टदेव के पुनः प्रगट होने पर उनकी अगवानी करेगा। यानी, शिलालेख यदि सचमुच एक भविष्यवाणी है, तो 'बहलाम अख़ाव' का राज-पाट अब भी होना चाहिए और उसे आज के 2012 में भी जिंदा होना चाहिए। लेकिन, मायावंशियों का तो सदियों से न कोई राज-पाट ही रह गया है और न कोई राजा ही बचा है।

माया देवता 'बोलोन योक्ते' की महिमा (भारत में शंकर भगवान की तरह-- लेखक) क्योंकि सृष्टिरचना से भी जुड़ी हुई है, शायद इसीलिए कुछ लोगों ने इसका यह अर्थ निकालना शुरू कर दिया कि उनके पुनरागमन का मतलब नई सृष्टि की रचना है, जिससे पहले वर्तमान सृष्टि का अंत होना चाहिए। दिसंबर 2011 में मेक्सिको के राष्ट्रीय मानववंश संस्थान ने सूचना दी कि तोर्तुगुएरो के ही पास के एक और पुराने शहर कोमालकाल्को में भी एक ईंट पर वैसा ही संदेश लिखा मिला है, जैसा तोर्तुगुएरो के शिलालेख पर अंकित है। उस के आधार पर की गई गणना भी 2012 की तरफ ले जाती है।

स्वयं मेक्सिको के एक पुरातत्वविद गुयेर्मो बेर्नाल का कहना है कि कुछ ऐसे शिलालेख भी मिले हैं, जो 2012 से आगे जाते हैं। 'उनके बीच एक ऐसा भी है,' वे कहते हैं, 'जो सन 4 772 तक जाता है।' बेर्नाल प्रलय को पश्चिमी लोगों की एक ऐसी ठेठ ईसाई कल्पना मानते हैं, जिसे वे माया सभ्यता पर भी अनायास थोपना चाहते हैं।

800 वर्ष पुरानी पांडुलुपि : वैज्ञानिकों के पास तुलना के लिए जो दूसरा पुराना अभिलेख है, वह 800 वर्ष पुरानी एक पांडुलिपि है। गूलर के पेड़ की 39 छालों पर लिखी साढ़े तीन मीटर लंबी यह पांडुलिपि इस समय पूर्वी जर्मनी में ड्रेस्डेन शहर के 'राजकीय एवं विश्वविद्यालयी पुस्तकालय' की एक अनमोल धरोहर है। वह चित्र और दस्तावेज के तौर पर इंटरनेट पर भी सबके लिए उपब्ध है।

13वीं सदी के मध्य में लिखी गई यह पांडुलिपि 1739 में जर्मनी के तत्कालीन सैक्सनी प्रदेश के राजा के पुस्तकालय के लिए वियेना के एक निजी संग्रहकर्ता से खरीदी गई थी, हालांकि उस समय कोई जानता भी नहीं था कि वह माया इंडियनों की पांडुलिपि है। मूल पांडुलिपि को कोई क्षति न पहुंचे, इसलिए वह कांच की एक मंजूषा में बंद है और किसी के लिए उपलब्ध नहीं है, लेकिन उसकी प्रतिकृति (कॉपी) शोध और अध्ययन के लिए उपलब्ध है।

'कोडेक्स ड्रेस्डेनिस' कहलाने वाली यह पुस्तक चित्रों, चित्रलिपि और अनेक प्रतीकों के रूप में लिखी गई है। विशेषक्षों का कहना है कि माया-काल के पुजारियों ने उसमें बीमारियों, फ़सलों, धार्मिक कर्मकांडों, बलि देने की रीतियों और खगोलविद्या संबंधी अपने गूढ़ज्ञान पर प्रकाश डाला है। उसे पहली बार 19 वीं सदी के अंत में पढ़ा और समझा जा सका। विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि मया-काल की पांडुलिपियां वैसे तो पेरिस, माद्रिद और मेक्सिको सिटी के संग्रहालयों या पुस्तकालयों में भी मिलती हैं, लेकिन केवल ड्रेस्डेन वाली पांडुलिपि में ही माया-कैलेंडर और प्रलय को दिखाने वाले चित्र भी मिलते हैं।

उसके अंतिम चित्र में प्रलय जैसी बाढ़ के बीच काल्पिनिक जीव-जंतुओं और देवताओं को दिखाया गया है। आकाश में बैठा एक अजदहा (ड्रैगन) पानी उगलता हुआ धरती पर बाढ़ की प्रलयलीला मचा रहा है। तब भी, विशेषज्ञ इस पांडुलिपि के आधार पर यह नहीं कहते कि उस में ऐसा भी कुछ कहा गया है कि आगामी 21 दिसंबर को प्रलय के साथ दुनिया का अंत हो जाएगा।

कई माया कैलेंडर : विशेषज्ञ यह भी याद दिलाते हैं कि माया लोगों का कोई एक ही कैलेंडर नहीं था। उनके बीच कई प्रकार के कैलेंडर प्रचलित थे। एक कैलेंडर 365 दिनों वाले वर्ष का था। एक 360 तो एक 260 दिनों वाले वर्ष का भी था। इसके अलावा उनके बीच 584 दिनो वाला शुक्र-वर्ष और 780 दिनों वाला मंगल- वर्ष भी प्रचलित था। मध्य अमेरिका में आज जो मायावंशी इंडियन रहते हैं, वे भी कई प्रकार के पारंपरिक कैलेंडर इस्तेमाल करते हैं। उनसे यही पता चलता है कि माया लोगों की कालगणना और उनका विश्वदर्शन हमारी मान्यताओं से हमेशा मेल नहीं खाता।

13 का अंक सबसे पवित्र : उदाहरण के लिए, उनकी कालगणना में 13 के अंक का बहुत ही विशिष्ट महत्व है। उनकी गिनती केवल 20 की संख्या तक जाती थी। वे मानते थे कि हमारी आध्यात्मिक चेतना के अलग-अलग ऊंचाइयों वाले नौ आयाम होते हैं। इसे दर्शाने के लिए अपने पूजास्थलों के तौर पर वे जो पिरामिड बनाते थे, पद से शीर्ष तक नौ सीढ़ियों वाले उनके नौ चरण होते थे।

हर चरण साथ ही सृष्टिरचना के 13 x 20x 'टून' कहलाने वाले कालखंड या कालचक्र का प्रतीक भी होता था। इस जटिल गणनाविधि को समझने वाले उदाहरण देते हैं कि धरती पर प्रथम मानव का उद्भव 13 x 204 टून, यानी 21 लाख वर्ष पूर्व हुआ। आज का विज्ञान इसकी पुष्टि नहीं करता, बल्कि यह कहता है कि वानरों के दोपाया बनने कि प्रक्रिया लगभग 70 लाख वर्ष पूर्व शुरू हुई होनी चाहिए। यह अभी तक निश्चित नहीं हो सका है कि वे कब वानरों से पूरी तरह मनुष्य बन गए।

सभ्यता ऊंची, भविष्यवाणी फीकी : इसमें कोई शक नहीं कि माया सभ्यता एक बहुत ही विकसित और उच्चकोटि की सभ्यता थी। लेकिन, वह चाहे जितनी विकसित रही हो, हज़ारों वर्ष बाद की घटनाओं की ऐसी अचूक भविष्यवाणी नहीं कर सकती, जिनकी तारीख तक पहले से ही बताई जा सके। भारत की वैदिक सभ्यता भी कम विकसित नहीं थी। उसके ज्योतिषशास्त्र के आधार पर पश्चिमी विद्वानों को महाभारत काल के बारे में अपनी गणनाओं में संशोधन करना पड़ा है। यदि 2012 विश्व के अंत का प्रलयंकारी वर्ष है, तो भारतीय साधू-संतों और ज्योतिषियों को भी इसका कुछ न कुछ आभास होना चाहिए। क्या ऐसा है?

जहां तक विज्ञान का प्रश्न है, वैज्ञानिक यही कहते हैं कि प्रलय की बातें सरासर बकवास और अफवाह हैं। ब्रह्मांड पर सदा टकटकी लगए अमेरिकी अंतरिक्ष अधिकरण नासा के वैज्ञानिक भी पिछले दो-तीन वर्षों से यही दोहरा रहे हैं कि 2012 में न तो पृथ्वी के भौगोलिक या चुंबकीय ध्रुव बदलने वाले हैं, न ठंडी पड़ी सौर-सक्रियता की ओर से अयनीकृत मूलकणों की कोई सौर-आंधी आने वाली है, न किसी बड़े आकाशीय पिंड से पृथ्वी की टक्कर होने वाली है और न ही हमारी आकाशगंगा में ऐसा कुछ होने जा रहा है, जो नियमित समयों पर नहीं होता या जिसका हम पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ सके।

मतलबी या सिरफिरे लोग प्रलय का चाहे जितना ढिंढोरा पीटें, हॉलिवुड चाहे जितनी फिल्में बनाए और बेंचे, चार अरब वर्षों से अस्तित्वमान पृथ्वी ज्यों की त्यों बनी रहेगी। साथ ही हमारे पार्थिव सुख-दुख भी पूर्ववत बने रहेंगे।......अगले अंक में पढ़ें हिंदू धर्म अनुसार प्रलय की मान्यता।