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पर्यावरण विशेष कहानी : जंगल गाने लगा...

पर्यावरण विशेष कहानी : जंगल गाने लगा... - story on jangal
- अंकुश्री


 
बाघमारा जंगल बहुत घना था। ऊंचे-ऊंचे पेड़, घनी झाड़ियां। वहां तरह-तरह के जानवर रहते थे। जंगल के निकट एक गांव था- बालालौंग। बड़ा-सा गांव था। वहां के लोग जंगल पर आश्रित थे। सभी खुशहाल थे। वे दिनभर जंगलों में घूमकर फूल, फल, बीज, पत्ता, गोंद, दातोन, लकड़ी, छाल आदि वन पदार्थ जमा करते थे। गांव में सोमवार को साप्ताहिक हाट लगता था। गांव वाले जंगल से जमा सामानों को हाट में बेचते थे और अपने लिए सामान खरीदते थे। 
 
लेकिन इधर कुछ वर्षों से जंगल की कटाई होने लगी थी। बाहर से कुछ लोग वाहनों से जंगल में आकर मोटे-मोटे पेड़ों को कटवाकर ले जाने लगे थे। ग्रामीणों को पेड़ों की कटाई-छंटाई करने से मजदूरी मिल जाती थी। वन पदार्थ की बिक्री से कम पैसा मिलता था इसलिए गांव वाले पेड़ों की कटाई से बहुत खुश थे। 
 
देखते-देखते जंगल के सारे पेड़ कट गए। महुआ, कटहल, आम, जामुन, सखुआ, केंद, पिआर आदि कुछ भी नहीं बचा। जंगल में हरियाली की जगह वीरानी छा गई। गांव वालों को पेड़ काटने से मिलने वाली मजदूरी बंद हो गई। जंगल से जो वन पदार्थ चुन-बीनकर लाते थे, वह भी समाप्त हो गया। आजीविका के लाले पड़ गए। उनकी स्थिति खराब हो गई। कुछ ही वर्षों में गांव की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा गई।
 
उस दिन सोमवार था। हाट में लोगों की भीड़ जुटी हुई थी। एक तरफ सब्जियां बिक रही थीं। एक तरफ मसाले की दुकानें सजी थीं, वहीं नमक बिक रहा था जिसके खरीददार अधिक थे। कुछ दुकानों में चावल, दाल और अनाज बिक रहा था। भोजन के लिए शाकाहारी और मांसाहारी हर प्रकार के सामान बिक रहे थे। जलावन बिक रहा था। लकड़ी की फल्लियां भी बिक रही थीं।
 
हाट में खाने के भी तरह-तरह के सामान बिक रहे थे। नीम की सेंव, पेड़ा, बताशा आदि सजे हुए थे। ढुसका और पकौड़ी की भी दुकानें थीं। चावल और उड़द दाल से बने ढुसका की तीन दुकानें थीं।
 
रात में सभी सो गए तो जतरू ढिबरी की रोशनी में थोड़ी देर पढ़ने बैठा। वह स्‍थिर मन से पढ़ रहा था। रात का वातावरण शांत था, तभी उसे पेड़ की टहनियां टूटने की आवाज सुनाई पड़ी। पेड़ की कटाई-छंटाई दिन में होती है, रात में नहीं। वह मन ही मन कुछ सोचने लगा। जतरू की आशंका सही निकली। करीब सौ गज की दूरी पर एक हाथी पेड़ की टहनियां तोड़ रहा था। हाथी काफी गु्स्से में था। जतरू समझ गया कि हाथी अब गांव के घरों को तोड़ेगा। वहां रखा हुआ मुहआ और धान खा जाएगा। 
गांव में हाथी आया, सुनकर कोहराम मच गया। पिछले सप्ताह ही शिबु की पत्नी और शनिचरा के बेटे को हाथी ने मार दिया था। दोनों हाट से गांव लौट रहे थे। उनके माथे पर महुआ की पोटली थी। वे अंधेरे में हाथी को नहीं देख पाए थे। बगल से गुजरते समय हाथियों ने उन्हें रौंदकर मार डाला था।
 
उस दिन भी हाथियों ने दो आदमियों को कुचल दिया था। प्रेमचंद बाजार से लौट रहा था, अंधेरा होना शुरू हो गया था। उसके हाथ में किरासन तेल का लालटेन था। वह बढ़ा जा रहा था, तभी अंधेरे में उसे कोई आकृति दिखाई दी। दो हाथी चुपचाप खड़े थे। प्रेमचंद हाथियों को देखकर ठमक गया। वह पीछे मुड़कर दूसरा रास्ता पकड़ लिया। वह अभी गांव की ओर जा ही रहा था कि उसे किसी के चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ी- 'बचाओ-बचाओ।'
 
आवाज थोड़ी देर में बंद हो गई थी। प्रेमचंद समझ गया था कि हाथियों की चपेट में कोई आ गया है। हो-हल्ला सुनकर लालटेन, टॉर्च, भाला, लाठी आदि लेकर लोग वहां पहुंच गए थे। भोंदू और रकटू को हाथियों ने मार दिया था। सप्ताह-दस दिनों पर हाथियों द्वारा कोई न कोई ग्रामीण मारा जाता था। हाथी लोगों को मारते ही थे, घरों को भी तोड़ देते थे। वे घर के अंदर रखे महुआ और धान भी खा जाते थे।
 
 

 

शराब की महक से भी हाथी पहुंच जाते थे। वे घर में रखी शराब पी जाते थे। हाथियों के जाने-आने से खेत की फसल रौंदकर खराब हो जाती थी। खेत में धान की फसल तैयार रहने पर हाथी उन्हें भी चट कर जाते थे। जब कभी हाथी कोई नुकसान पहुंचाते थे, गांव वाले मुआवजे के लिए प्रशासन तक पहुंच जाते थे। थोड़े पड़े-लिखे नेता किस्म के लोग अपना काम-धंधा छोड़कर मुआवजा दिलवाने में लगे रहते थे। इससे उन्हें कुछ कमाई हो जाती थी। समस्या की जड़ में जाने की किसी को फुरसत नहीं थी। ऊपर ही ऊपर सारा काम हो रहा था। आखिर यह कब तक चलता? मुआवजा कोई विकल्प नहीं था। 
 
एतवा एक समझदार युवक था। वह समझ रहा था कि मुआवजे से गांव का विकास संभव नहीं है। उसने प्रश्न उठाया कि आखिर गांव में हाथी आते क्यों है? हाथी जंगली जानवर है, इतना बड़ा जंगल छोड़कर गांव में क्यों आना चाहते हैं? किसी ने कहा- हाथी भोजन की तलाश में गांव आते हैं। 
 
प्रेमचंद और एतवा गांव के युवा थे। हाथियों के आतंक से निपटने के लिए उन्होंने ग्रामीणों की बैठक बुलाई। सैकड़ों लोगों ने बैठक में भाग लिया। हाथियों के आतंक से निजाते पाने के लिए तरह-तरह के विचार आए। 
 
हाथियों को गांव से दूर भगा दिया जाए।
 
हाथियों को जंगल में आहार मिल जाए तो गांव में आदमी के बीच नहीं आएंगे। 
 
गांव के चारों तरह कंटीले तार लगा दिए जाएं। 
 
हाथी भगाओ दल का गठन किया जाए, जो हाथियों को गांव में नहीं घुसने दे। 
 
हाथियों के प्रवेश मार्गों के पहले घरों में पटाखे का भंडार रखा जाए और शाम होने पर थोड़ी-थोड़ी देर में पटाखा फोड़ा जाए।
 
शाम होने के बाद गांव के चारों तरफ बिना साइलेंसर की मोटरसाइकल से आवाज निकालते हुए भ्रमण किया जाए।
 
बैठक में तरह-तरह के विचार आए। चर्चा के बाद वे खारिज होते गए। काफी देर तक यही सब चलता रहा।
 
बैठक में बुजुर्गों का अधिक बोलबाला था। युवा प्राय: चुप ही थे। बुजुर्गों के विचारों पर कोई अंतिम निर्णय नहीं हो पा रहा था। प्रेमचंद के मन में कुछ बातें कुलबुला रही थीं। उसने कहा- गांव में हाथी शाम के बाद आते हैं। उससे पूर्व उनके प्रवेश मार्ग पर मशाल जला दिए जाएं। 
 
उसने आगे कहा- गांव में हाथी भोजन के लिए आते हैं। गांव के बाहर ऊंची चट्टानों में गड्ढा बनाकर उसमें अनाज रखा जाए और उसे चट्टानों से ढंक दिया जाए।
 
 
 

 


प्रेमचंद की बातें सभी गौर से सुन रहे थे। वह बिलकुल नई बात कर रहा था। हमें एक और सावधानी बरतनी होगी। घरों में महुआ नहीं रखना होगा। साथ ही यह भी आवश्यक है कि किसी घर में शराब नहीं रखी जाए और न कोई शराब पीकर गांव में आए। 
 
लेकिन हम लोग शुरू से ऐसा करते आ रहे हैं। पहले तो हाथी कभी नहीं आते थे। यह गांव के बुजुर्ग पोकलू काका की आवाज थी।
 
उन्हें प्रेमचंद ने बताया- काका! पहले और अब की स्थि‍ति में अंतर आ गया है। हम लोग जंगलवासी हैं। सबसे बड़ा अंतर जंगल में आया है। अब न ऊंचे-ऊंचे पेड़ बचे हैं और न घने जंगल। अभी स्थिति ऐसी हो गई है कि एक किनारे से जंगल के दूसरे किनारे पर खड़े आदमी को देखा जा सकता है। अब तो सिर्फ जंगल की जमीन बची है और कुछ झाड़ियां। 
 
लेकिन ऐसा हुआ कैसे? एक बुजुर्ग ने सबसे प्रश्न किया। 
 
एक दूसरे बुजुर्ग ने कहा- हम जंगलवासियों की मुख्‍य आजीविका जंगल है। पहले हम लोग जंगल से फल, फूल, बीज, दातौन, पत्ता, जलावन आदि इकट्ठा किया करते थे। हाट में उसे बेचते भी थे, लेकिन कुछ दिनों से जंगल कटवाने वालों की मजदूरी पर आश्रित हो गए थे। अब स्‍थिति ऐसी हो गई है कि जंगल में पेड़ भी नहीं बचे हैं। ऐसे में गांव के आसपास मजदूरी भी नहीं मिल पाती है। इसी कारण ऐसी नौबत आई है। हम लोग भुखमरी के कगार पर खड़े हैं। मजदूरी के लिए काफी दूर शहर जाना पड़ता है। मजदूरी रोज नहीं मिलती। शहर आने-जाने में काफी समय निकल जाता है। हम लोग बहुत थक जाते हैं। कब रात हुई और कब सुबह- यह पता ही नहीं चल पाता। 
 
गांव का एक दूसरा युवक एतवा बोल रहा था- हम लोग तो गांव से दूर चले जाते हैं, लेकिन जंगल के जानवर कहां जाएं? छोटे-छोटे जानवरों का अस्तित्व ही खत्म हो गया। आप लोग जितने जानवरों के बारे में बताते हैं, वे अब कहां दिखाई देते हैं? बाघ, तेंदुआ, हिरण, गौर सब खत्म हो गए। जंगली सूअर और जंगली कुत्ता भी यहां के जंगल में अब नहीं दिखते। कुछ भेड़िए बचे और आठ-दस भालू। इनके अलावा कुछ हाथी हैं जिनसे हम तबाह रहते हैं। 
 
एतवा की बातें सुनकर सभी शांत हो गए। वहां बैठे लोगों को लगा कि काठ मार गया हो। एतवा ने आगे कहा- यदि हम लोगों ने जंगल को कटने नहीं दिया होता तो ऐसी स्थिति नहीं आ पाती। सारी तबाही की जड़ है जंगल की बर्बादी। 
 
हमने तो जंगल की सुरक्षा की कभी बात ही नहीं सोची। इतना बड़ा जंगल है। इसकी सुरक्षा के लिए क्या चिंता की जाए। पोकलू की आवाज में लाचारी थी- जंगल हमारी सुरक्षा करता है, हम इसकी सुरक्षा क्या करें?
 
हमारी इसी सोच ने तो हमें उजाड़ दिया- प्रेमचंद ने कहा- हम तो सोचें कि हमें आगे क्या करना है। बीती को दोहराने से अब कोई लाभ नहीं है। 

लाभ है, एतवा ने कहा- इसका एक बहुत बड़ा लाभ है। बीती बातों को जानने-सुनने से हमें सबक मिलता है। उसने आगे कहा- हम अब भी अपने गांव को खुशहाल बना सकते हैं। इसे हाथियों के आतंक से बचा सकते हैं।
 
वह कैसे? 
 
सबसे पहले हम लोग हाथियों के भोजन की व्यवस्था करें। जंगल में खाली जमीन पर बांस के भरपूर पौधे लगा दें। जंगल के किनारे के खेतों में ईख लगा दें। हाथियों में विशेषता है कि जब तक बांस या ईख तैयार नहीं हो जाता, वे उसे नहीं खाते हैं। गांव के एक बुजुर्ग का यह सुझाव सभी को भाया।
 
एक दूसरे बुजुर्ग ने कहा- जंगल प्रकृति की देन है। यदि इसे छेड़ा नहीं जाए तो इसका विकास स्वत: हो जाता है। इसके लिए गांव के मवेशियों को जंगल में जाने से रोकना होगा। एक काम हमें और करना होगा। जलावन या अन्य कार्यों के लिए पेड़ों की कटाई बंद करनी होगी। ऐसा करने से एक साल में ही जंगल में हरियाली आ जाएगी। दूसरे साल के बाद उजड़े जंगल की जगह हरा-भरा दिखने लगेगा।
 
एतवा ने कहा- हम गलती नहीं दोहराएंगे। जंगल को बचाएंगे।
 
जंगल की सुरक्षा के लिए लोगों ने कमर कस ली। दूसरे दिन से ही लोग इस काम में लग गए। 
 
जंगल में एक नदी बहती थी। वह काफी ऊंचाई से नीचे आती थी। घूम-घुमाकर बहती वह नदी कहीं पतली होकर बहती थी, तो कहीं चौड़ी होकर। सालभर उसमें पानी रहता था। गांव वालों ने एक काम किया। नदी जहां पतली होकर बहती थी, वहां चट्टान जमा दी। इससे नदी में जगह-जगह पानी का ठहराव हो गया। यह जंगल के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी रहा।
 
बसंत में सभी पौधों में कोंपल आ जाते हैं। कटे हुए बड़े-बड़े पेड़ों से भी कोंपल फूट पड़े। नदी के आसपास के कटे पेड़ों से खूब सारे कोंपल निकल आए। उन पेड़ों की वृद्धि भी तेजी से हो गई। वहां खूब हरियाली फैल गई। गांव वालों ने एक-दो कोंपलों को छोड़ बाकी हटा दिए। उनका तेजी से विकास होने लगा। बरसात खत्म होने तक जंगल में हरियाली भर गई। खाली जगहों पर बांस के पौधे लगा दिए गए थे। वे भी काफी तेजी से बढ़ने लगे। 
 
गांव वाले रात में जागकर ढोल बजाते और पटाखे छोड़ते थे। इससे गांव में हाथियों ने आना बंद कर दिया। सुबह-सुबह गांव के कुछ युवक खेत से ईख काटकर जंगल में रख आते। हाथी उसे चटखारे लेकर खाते थे।
 
गांव का प्राथमिक विद्यालय रविवार को बंद था। विद्यालय के बाहर बच्चे खेल रहे थे। तभी एक मोर जंगल की ओर से उड़ता हुआ आया और विद्यालय की छत पर बैठ गया। बच्चों की उस पर नजर पड़ी तो वे ताली बजाने लगे। वे खुशी से नाचने भी लगे। उन बच्चों ने कभी मोर नहीं देखा था। 
 
बात तुरंत गांव में फैल गई। मोर को देखने के लिए पूरा गांव जमा हो गया। वर्षों बाद कोई मोर गांव में आया है, पोकलू काका ने कहा। 
 
उसके बाद से कई तरह के पक्षी गांव में दिखाई देने लगे। जंगल से भी तरह-तरह के पक्षियों और जानवरों की आवाज आने लगी। लगता है कि जंगल जिंदा हो गया और बोल तथा गा रहा था।
 
गांव वाले भी बहुत खुश थे। अब वे हाथियों से आतंकित नहीं थे। हर कोई खुश था। खुशी जंगल से लेकर गांव तक दिखाई दे रही थी। गांव वाले रात में नगाड़ा बजाकर एकजुट हो जाते थे और मांदल की थाप पर नाचते-गाते थे। ऐसा लगता था कि जंगल गा रहा है और गांव वाले नचा रहे हैं। 

साभार - देवपुत्र