गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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कहानी : धचाक्‌...

कहानी : धचाक्‌... - Hindi Kids Stories
घर के सामने मैदान में बच्चों का शोरगुल हो रहा था। भीषण गर्मी के चलते शाम 4 से 6 तक बच्चों का खेलना मुझे अच्छा लग रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर में बच्चे उछलते हुए आते और कहते आंटी गेंद आई है, उठा लें! 


 
हां-हां उठा लो। 
 
मुझे प्रसन्नता हो रही थी, बच्चे खेल रहे हैं वरना पढ़ाई और कम्प्यूटर के युग में खेल से दूर पाठ्य-पुस्तकों में उलझे बच्चे अपना बचपन ही भूलते जा रहे हैं। गेंद कभी आंगन में उछलती आ जाती, कभी छत पर। पहले तो बच्चे पूछकर आते थे गेंद उठाने, पर अब तो पूछते भी नहीं और गेट खोलकर धड़ाधड़ आंगन से छत पर चढ़कर गेंद उठाकर चल देते हैं।
 
बाहर फेंसिंग के अंदर मैंने एक मटका, गिलास अशोक वृक्षों की लगी कतार के नीचे रख दिया है। बीच में लगे सीताफल के वृक्ष की टहनियों में पानी के सकोरे और दाने के कटोरे जतन से टांग दिए हैं।
 
फेंसिंग के बाहर बड़ी-बड़ी बाल्टियों में पानी भरकर गाय, बकरी आदि जानवरों के पीने के लिए रख दिया है। हाथ से एक सुन्दर बैनर पेंटिंग करके टांग दिया है- 'आपकी अपनी प्याऊ'। मैं अपने इस कार्य पर खुद ही मुग्ध होती हूं, जब कोई जानवर पानी पीता है, बच्चे खेल-कूदकर आते हैं, टंलर से पानी पीते हैं और दौड़ लगाते हैं फिर से खेलने के लिए या फिर कोई राहगीर, अखबार वाला, कबाड़ वाला, कचरा गाड़ी वाला पानी पीता है।
 
क्रिकेट खेलने वाली 3 टीमें हैं- यही कोई 6 से 10 वर्ष, 10 से 12 वर्ष और 12 से 14-16 वर्ष के बच्चों की। बच्चों ने खाली पड़े प्लॉटों को खेल का मैदान बना लिया है। कभी-कभी मैं खुद भी खड़े होकर इनका खेलना देखती हूं। एक बच्चा दौड़ता-सा हांफता-सा आता है। पानी पीने के लिए टंबलर उठाता है, उसके हाथ छोटे-छोटे हैं। मैं खुद ही उसे गिलास में पानी भरकर दे देती हूं। उसके पसीने से भीगे और धूप से लाल हुए चेहरे को देखती हूं। पानी पीकर अघाते हुए वह पूछता है-
 
आंटी ये पानी ऊपर क्यों रखा है? 
 
पंछियों के लिए। 
 
लेकिन आप पंछी कहां से लाती हैं?
 
उसके इस प्रश्न से मैं कुछ चौंक गई तभी एक चिड़िया उड़ती हुई वहां से गुजर गई। 
 
मैंने कहा- देखो वह चिड़िया पानी पीकर अभी उड़कर गई है। ये ही तो पंछी हैं, जो अपने घोंसले से निकलकर पानी पीकर उड़ जाते हैं। 
 
बच्चा हंसा फिर दौड़कर अपना बैट संभालते हुए भागा खेलने।
 
मेरी भी छुट्टियां हो गई थीं, सो टेंशन फ्री थी। एक दिन मैं बैडरूम में आराम कर रही थी। यही कोई शाम के साढ़े चार बजा होगा। सोचा, थोड़ा लिख-पढ़ लिया जाए और कलम हाथ में लेकर टेबल-कुर्सी पर बैठी ही थी कि 'धचाक्‌...' की तेज आवाज से मैं हड़बड़ा गई। अबकी बार क्रिकेट की गेंद खिड़की के कांच पर आकर लगी थी। खिड़की का कांच टूटकर पूरे बिस्तर में, कमरे में सब कहीं बिखर गया था। यदि मैं लेटी होती तो राम जाने क्या होता! 


 
 
मैं क्रोध में बाहर आई। मेरे सब्र का बांध टूट गया। बच्चों को खेलते देखकर जो प्रसन्नता होती थी वह छूमंतर हो गई। 
 
मैं गुस्से से बोली- तुम लोगों ने किस कदर उत्पात मचा रखा है। कुछ लड़के तो भागकर छुप गए। कुछ पकड़ में आए तो बोले- आंटी मेरी गेंद से कांच नहीं टूटा। वो दो लड़के हैं, उनकी गेंद से कांच टूटा है। 
 
मैंने उन दो लड़कों को पास बुलाया। उनके कान पकड़ना चाहा, पर उनके चेहरे तो ऐसे बुझे थे कि बस... अब रोए कि तब, पर मैं तो क्रोध में थी।
 
कोई तुम्हारे घर के कांच फोड़े तो क्या तुम्हारी मम्मी खुश होंगी, इनाम देंगी?
 
सॉरी आंटी।
 
सॉरी कहने से कांच जुड़ जाएगा? पूरी फेंसिंग में कांच पड़ा है, पूरे कमरे में कांच बिखर गया है। चलो बटोरो, कहां से आए हो तुम लोग? चलो अपने-अपने पापा का मोबाइल नंबर दो। लिखो इस पेपर में, लिखो।
 
रुआंसे बच्चों ने मोबाइल नंबर लिख दिया। 
 
कहां रहते हो?
 
शास्त्री कॉलोनी में। 
 
वहां से यहां खेलने आते हो? मैं अभी तुम्हारे पापा को फोन लगाती हूं, तब तक तुम लोग ये कांच बटोरो फेंसिंग के अंदर से। 
 
बच्चे फेंसिंग के अंदर घुसकर कांच बटोरने लगे।
 
मैं चिल्लाई- अरे... अरे... हाथ से नहीं, लग जाएगी।
 
नहीं लगेगी आंटी।
 
वे रुआंसे थे, फिर कांच को हाथ से उठाने लगे।
 
अरे... अरे..., झाड़ू से बटोरो।
 
कांच बच्चे उठा रहे थे, चुभन मुझे हो रही थी। छोड़ो अच्छा, मैं बटोर लूंगी। अभी हाथ में कांच लग जाएगा, खून निकल आएगा। 
 
वे मेरा चेहरा देखने लगे।
 
जाओ, अब यहां न खेलना।
 
बच्चों का चेहरा देखने लायक था, पर वे मेरे चेहरे में न जाने क्या पढ़ रहे थे। बच्चे भाग गए। भाग क्या गए, अनमने-से, डरे-सहमे चले गए।
 
मैंने बड़बड़ाते हुए सारे कमरे से कांच बटोरे। अब इन्हें बिलकुल ना खेलने दूंगी। अपने घरों के सामने खेलें, प्लेग्राउंड में जाएं।
 
अंधेरा हो गया। बच्चों और पंछियों की चें-चें खत्म हो गई। अंधेरे के साथ मेरा क्रोध भी डूब गया।
 
दूसरे दिन फिर मैंने खिड़की पर टूटे कांच के पीछे से कैलेंडर लगा दिया। लिखने-पढ़ने बैठ गई। कहानी का कथानक अभी पूरा नहीं हुआ था तभी फिर 'धचाक्‌...' की आवाज आई। मैं चीखी- फिर कांच टूटा और बाहर निकल आई। अबकी बार बड़े बच्चे थे जिन्हें डांट का कोई असर ही ना हो रहा था। 
 
मैंने कहा- आज से यहां नहीं खेलोगे। अपने घर के सामने खेलो या प्लेग्राउंड जाओ। 
 
लेकिन वे तो उद्दंडता से बोल रहे थे। उन्हें केवल खेल दिख रहा था। ऐसा थोड़ी होगा आंटी, हमारे घर के सामने मैदान नहीं है। प्लेग्राउंड बहुत दूर है, हम तो यहीं खेलेंगे।
 
अच्छा तो ऐसे ही कांच तोड़ोगे? मैं जैसे पानी का घूंट पीकर रह गई। मैं घर के अंदर आ गई।
 
दूसरे दिन फिर वहीं मैदान में धमा-चौकड़ी! कानों को आदत हो गई थी। अब तो बाहर के शोर-शराबे से लेखन में भी किसी प्रकार का व्यवधान महसूस नहीं होता था।
 
बार-बार मटके से पानी पीने की आवाजें, दौड़ने-चिल्लाने और गेंद की धचाक्‌... ध्वनि ने जाने ऐसा क्या कर दिया था। थोड़ी देर बाद मैं बाहर आई। गेंद फेंसिंग में गिरी थी।
 
मुझे देखकर बच्चे छुप गए। 
 
बाउंड्री के पीछे से छुप-छुपकर सिर उठाकर मुझे देखते, फिर छुप जाते। मैंने गेंद उठाकर इस बार छिपाकर रख ली। फिर बड़े बच्चों को इशारे से बुलाया। इस बार दो बच्चे पास आए।
 
मैंने कहा- रवि, सुमीत, मुझे तुम लोगों से यह उम्मीद नहीं थी। पिछले वर्ष तुम लोग जब मेरे घर पर लायब्रेरी में पढ़ने आते थे, तब तो तुम लोग बहुत अच्छे थे। नमस्ते आदि सारे शिष्टाचार भूल गए हो? क्या बड़े होने का अर्थ यही होता है? पास में आकर बैठो, कुछ पढ़ो- लिखो। किताबें अब तुम लोगों के लिए तरस रही हैं, किताबों से इस तरह क्या मुख मोड़ लोगे? खेलो, तुम नहीं खेलोगे तो क्या हम बुड्ढे लोग खेलेंगे? पर इसका यह मतलब तो नहीं कि तुम दूसरों का नुकसान करो, परेशान करो। 
 
इस बार बच्चों ने 'सॉरी' बोला। 
 
मैंने कहा, ये मटके में पानी तुम लोगों के लिए रोज धोकर भरती हूं क्या इसलिए? और तुम लोग मटका खोलकर टंबलर उसी में डालकर भाग जाते हो। मैं क्या इसीलिए यह सब करती हूं कि तुम उद्दंडता से पेश आओ?
 
सॉरी आंटी, अब से जैसा आप चाहती हैं, वैसा ही होगा।
 
हां, तो जाओ वो... दूर प्लॉट पड़े हैं वहां खेलो।
 
ठीक है आंटी, नमस्ते।
 
अगले दिन मैंने सोचा, बच्चे हैं, कहां मानने वाले हैं। छुट्टियां खत्म होंगी, अपने आप खेल खत्म हो जाएंगे। कांच फिर बदलवा लेंगे।
 
मैं अनमनी-सी अपने काम में लग गई। यह वक्त मेरी लिखाई-पढ़ाई का ही होता है। कान आहट सुनने को बेचैन थे। बहुत देर हो गई थी। शाम 6 बज गए, किंतु कोई शोर नहीं सुनाई दिया, ना ही मटके से पानी लेने की आवाज, ना गेंद की धचाक्‌, ना ही पंछियों की चें-चें-चें। मैं बार-बार कोशिश करती रही सुनने की।
 
कहानी का कथानक पूरा ही न हो पा रहा था, मानो वह भी उनके स्वर सुनने के लिए ही रुका था। मैं बाहर आई तो पूरा मैदान सूना था। दूर... मैदान में बच्चे दिखाई दे रहे थे। अब जैसे मैं रुआंसी हो गई थी। 
 
मटका ढंका हुआ था वैसे ही बेचैन, जैसे मेरी बेचैनी उसमें समा गई थी। मैं हर पल यही सोच रही थी बच्चे क्यों नहीं आए खेलने? धचाक्‌ की ध्वनि मुझमें भीतर तक समा गई थी। 
 
मेरे अंदर का सन्नाटा चीख रहा था- 'आओ बच्चो, यहीं खेलो नहीं तो मैं रीत जाऊंगी।' 
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