फनी बाल कविता : संतरे
अब तो सबके मन को भाई,
महक संतरों वाली आई।
केसर-केसर जैसी फांकें,
छिल्के के भीतर से झांकें।
जब एक कली मुंह में डाली,
बज उठा राग तब भोपाली।
है स्वाद अहा कितना मीठा,
इसके आगे अमृत फीका।
कूकी तन-मन में शहनाई।
हरे-हरे कुछ पीले-पीले।
बैठे दूल्हे सजे-सजीले।
कुछ जिद्दी, कुछ बहुत हठीले।
बातों में भी बहुत रसीले।
ग्राहक को कैसे ललचाते।
आंखों-आंखों में मुस्काते।
मिट्ठू हुए मियां स्वयं भाई।
कहीं तीस रुपए दर्जन हैं।
कहीं आठ सौ रुपए मन हैं।
कहीं आठ रुपए का नग है,
मूल्य एक-सा ही लगभग है।
भाव अभी शायद कम होंगे,
तब ही तो थैले भर लेंगे।
सबके मन में आस जगाई।
मजे-मजे से बच्चे खाते,
बूढ़े युवक जूस बनवाते।
तन को ठंडा कर देते हैं,
मन में गंगा भर देते हैं।
पथिकों से भी आते-जाते,
संदेशा घर-घर भिजवाते।
कहते सबसे भेंट-भलाई।