मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
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Written By WD

भाजपा में पीढ़ीगत बदलाव के निहितार्थ

अनिल जैन

भाजपा में पीढ़ीगत बदलाव के निहितार्थ -
भारतीय जनता पार्टी के संसदीय बोर्ड से लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की रुखसती यकीनन साढ़े तीन दशक पहले पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद से अब तक का सबसे बड़ा बदलाव है। वैसे तो संसदीय बोर्ड से बाहर रखे गए दिग्गजों की सूची में पार्टी के पितामह और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का नाम भी है लेकिन अपनी उम्र और असाध्य बीमारी के चलते एक अरसे से सक्रिय राजनीति से दूर इस दिग्गज नेता की संसदीय बोर्ड तथा पार्टी के अन्य निकायों में मौजूदगी पहले भी महज प्रतीकात्मक ही थी। तो इस तरह राजनीति के राष्ट्रीय मंच पर नरेन्द्र मोदी की आमद के साथ भाजपा में नेतृत्व के स्तर पर शुरू हुई पीढ़ीगत बदलाव की प्रक्रिया अब पूरी तरह संपन्न हो गई। यह सही है कि अपने यहां नेतृत्व के स्तर पर जिस तेजी से भाजपा ने बदलाव किया है वह भारतीय राजनीति में एक मिसाल है लेकिन इस बदलाव के गुण-दोषों और बदलाव के सूत्रधारों की मंशा पर बहस की पूरी-पूरी गुंजाइश है।
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भाजपा में एक समय नारा लगता था- 'भाजपा की तीन धरोहर- अटल, आडवाणी, मुरली मनोहर।' वाजपेयी का वक्तृत्व कौशल और समन्वयवादी राजनीति, आडवाणी का संगठन कौशल और राम जन्मभूमि आंदोलन के जरिए पार्टी की संसदीय ताकत में अपूर्व इजाफा करने का करिश्मा तथा जोशी की बौद्घिक छवि ही अब तक भाजपा की ताकत और पहचान थी। यह सही है कि ये छवियां अब पहले की तरह प्रासंगिक नहीं रह गई हैं लेकिन सवाल है कि क्या ये इतनी क्षीण हो गई हैं कि पार्टी इन्हें अपने सर्वोच्च निर्णायक निकाय में जगह न दे सकें? इन तीनों ही दिग्गजों को संसदीय बोर्ड से बाहर रखकर पुनर्वास केंद्रनुमा एक नए-नवेले मार्गदर्शक मंडल में रखा गया है। पार्टी के इस फैसले से ये नेता अपने को अपमानित या उपेक्षित महसूस न करें, इसके लिए उनके साथ इस मार्गदर्शक मंडल में नरेन्द्र मोदी और राजनाथ सिंह को भी रखा गया है। कहा जा सकता है कि पार्टी के नए नेतृत्व ने अपने बुजुर्गों को किनारे करने के लिए अपेक्षाकृत एक सुसंस्कृत तरीका अपनाया है। लेकिन इस तजवीज से नरेन्द्र मोदी और उनकी परछाई के रूप में पार्टी अध्यक्ष के ओहदे पर काबिज अमित शाह की नीयत पर पार्टी के भीतर और बाहर सवाल उठने लगे हैं। भाजपा की ओर से सफाई दी जा रही है कि वह बुजुर्ग नेताओं के बजाय युवा नेतृत्व को जिम्मेदारी सौंपने की नीति पर चल रही है। लेकिन क्या बात सिर्फ इतनी है? अगर वाकई ऐसा होता तो शायद किसी को सवाल उठाने का मौका नहीं मिलता। दरअसल, अमित शाह ने जब भाजपा की बागडोर संभाली थी, तभी यह तय हो गया था कि पार्टी के फैसले अब नरेन्द्र मोदी की मर्जी से ही होंगे।

यह सही है कि वाजपेयी खराब सेहत के कारण अरसे से पार्टी की गतिविधियों से अलग-थलग हैं, लेकिन यही बात आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी पर लागू नहीं होती। यद्यपि इन दोनों नेताओं की उम्र जरूर अधिक हो चली है, पर पार्टी में उनकी सक्रियता लगातार बनी हुई है। दोनों नेता पार्टी के गठन के समय से ही पार्टी के महत्वपूर्ण फैसलों में साझेदार रहे हैं और दोनों ने अपने-अपने तरीके से पार्टी को खड़ा करने में योगदान दिया है। यूपीए सरकार के दौर में दोनों नेताओं की संसदीय सक्रियता भी विपक्षी खेमे में किसी से कम नहीं रही है। इस बार भी वे लोकसभा का चुनाव जीतकर आए हैं इसलिए उन्हें संसदीय बोर्ड जैसे पार्टी के सर्वोच्च निर्णयकारी निकाय से बाहर रखने का फैसला चौंकाता है। जिस नए बने मार्गदर्शक मंडल में उन्हें रखा गया है, उसका चूंकि पार्टी के संविधान में कोई प्रावधान नहीं है, लिहाजा पार्टी के फैसलों में उसका कोई हस्तक्षेप होगा, ऐसा लगता नहीं है। गौरतलब है कि पार्टी के सारे अहम राजनीतिक फैसले संसदीय बोर्ड में ही लिए जाते हैं। बोर्ड की भूमिका या उसके स्वरूप में कोई बदलाव भी पार्टी का संविधान बदलकर ही किया जा सकता है।

यह कयास अकारण नहीं है कि आडवाणी और जोशी को नरेन्द्र मोदी के विरोध का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। कोई एक साल पहले जब आडवाणी के तमाम एतराजों को नजरअंदाज कर नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया था तो आडवाणी ने नाराज होकर पार्टी में अपने सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था। इसी तरह मुरली मनोहर जोशी ने नरेन्द्र मोदी के लिए अपनी वाराणसी संसदीय सीट छोड़ने से इंकार कर दिया था। इन सब बातों की खुन्नस नरेन्द्र मोदी को होगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। तीन महीने पहले सरकार बनने के बाद इसके संकेत भी मिलने लगे थे। बढ़ती उम्र का हवाला देकर जोशी को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया तो आडवाणी को हां-ना, हां-ना करते हुए लोकसभा अध्यक्ष नहीं बनाया गया। पार्टी और सदन में उनकी वरिष्ठता के बावजूद उन्हें लोकसभा में बैठने के लिए प्रधानमंत्री के बगल वाली सीट नहीं दी गई। सवाल है कि दोनों नेताओं के साथ हुए इस सुलूक को आखिर किस तरह सम्मान देने का सूचक कहा जा सकता है?

सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि अगर पार्टी सचमुच सत्तर की उम्र पार के नेताओं को सरकार और संगठन में जिम्मेदारियां सौंपने से परहेज करने की नीति चल रही है तो फिर बयासी वर्ष के कल्याण सिंह, अस्सी वर्ष के राम नाईक, सत्तर पार की मृदुला सिन्हा आदि अन्य कई सत्तर-पचहत्तर पार के नेताओं को किस नीति के तहत राज्यपाल बनाया गया है? क्या कांग्रेस की तरह भाजपा भी राजभवनों को अपने थके-हारे और चूके हुए नेताओं की विश्राम स्थली या अपनी विचारधारा के राजनीतिक बुजुर्गों के पुनर्वास केंद्र के रूप में ही देखती है?

दरअसल, अब यह बात किसी से छिपी नहीं रह गई है कि नरेन्द्र मोदी अपनी परिधि में ऐसे किसी भी व्यक्ति को नहीं रखना चाहते, जो उनका विरोधी रहा हो या विरोध कर सकता हो। अलबत्ता संघ भी आडवाणी के विद्रोही तेवर से नाराज चल रहा था और उन्हें पूरी तरह ठिकाने लगाने का कोई माकूल मौका तलाश रहा था। नरेन्द्र मोदी के पट शिष्य अमित शाह ने इसके लिए सही मौका तलाश लिया। आखिर इसका क्या मतलब लगाया जाए कि लगातार बीमार रहने की वजह से सक्रिय राजनीति से पूरी तरह दूर हो चुके अटल बिहारी वाजपेयी को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का अध्यक्ष बनाए रखा गया है जबकि मानसिक और शारीरिक तौर पर पूरी तरह सक्रिय आडवाणी और जोशी को मार्गदर्शक मंडल में भेजकर पार्टी के नीति-निर्धारण संबंधी अधिकारों से दूर कर दिया गया है। ऐसे में उनसे कितना मार्गदर्शन लिया जाएगा, सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। ये दोनों नेता, खासकर आडवाणी ने कई मौकों पर भाजपा के कामकाज में संघ के हस्तक्षेप का प्रतिकार किया है। अब संघ की शह पर भाजपा के नए नेतृत्व ने उन्हें पूरी तरह किनारे कर दिया है। संदेश साफ है कि पार्टी अब उसी तरह संचालित होगी, जिस तरह संघ चाहेगा।

कोई दो दशक पहले लोकसभा में किसी मौके पर अपने भाषण के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने महाभारत का एक श्लोक उद्घृत किया था, जिसका आशय है, 'वह सभा, सभा नहीं होती, जिसमें कोई वृद्घ न हों!' दो दशक बाद भाजपा के नए धनुर्धरों ने अपने पितामह की सीख भुलाते हुए बुजुर्ग त्रिमूर्ति को अपने वर्तमान से बाहर कर अपने भविष्य के लिए एक बड़ा कदम उठाया है। इस कदम की परिपक्वता की परीक्षा पार्टी की कामयाबी और खुशहाली के ताजा दौर में नहीं, बल्कि कुछ समय बाद होगी, जब हालात आज की तरह उसके अनुकूल नहीं होंगे। तमाम किंतु-परंतु के बावजूद फिलहाल इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि भाजपा ने अपने यहां पीढ़ीगत बदलाव के जरिए दूसरी तमाम पार्टियों के लिए भी एक चुनौती और संदेश छोड़ा है कि उनमें हिम्मत हो तो वे भी अपने यहां इस तरह का बदलाव करके दिखाएं। यह अनायास नहीं है कि भाजपा में हुए इस बदलाव के दो दिन बाद ही कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने भाजपा में हुए बदलाव का जिक्र किए बगैर कहा कि राजनीतिक दलों में नेताओं को सत्तर साल की उम्र के बाद सक्रियता वाले पदों पर नहीं रहना चाहिए। सवाल यही है कि क्या कांग्रेस समेत तमाम दूसरे दल अपने यहां संगठन में इस तरह की पहलकदमी करने का साहस दिखा पाएंगे?