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आज ही बिस्मिल को लटकाया था फिरंगियों ने फांसी पर

आज ही बिस्मिल को लटकाया था फिरंगियों ने फांसी पर - Ram Prasad Bismil
गोरखपुर। आजादी के आंदोलन में प्राण न्योछावर करने वालों में काकोरी कांड के महानायक रामप्रसाद बिस्मिल का नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। फिरंगियों ने उन्हें आज ही 19 दिसंबर 1927 को यहां जिला जेल में फांसी पर लटकाया था। इस महान बलिदानी का शव अंग्रेजों ने 3 दिनों तक स्थानीय घंटाघर पर लटकाए रखा था।

 
देश को गुलामी की जंजीरों से आजादी दिलाने वाले अमर क्रांतिकारियों में पं. रामप्रसाद बिस्मिल का नाम सबसे ऊपर लिखा जाएगा। उत्तरप्रदेश का गोरखपुर जिला जेल पं. बिस्मिल के जीवन के आखिरी दिनों का साक्षी है, जहां अंत में इस क्रांतिकारी को गोरों ने फांसी पर लटकाया।
 
वर्ष 1857 के गदर की घटनाओं के बाद क्रांतिकारी आंदोलन के संबंध में उत्तरप्रदेश में जो पहला बलिदान हुआ, वह 'काकोरी षड्यंत्र' के नाम से राष्ट्रीय आजादी के इतिहास में दर्ज है। उसके नायक पं. रामप्रसाद बिस्मिल थे।
 
पं. बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को शाहजहांपुर में हुआ था। इनके पितामह ग्वालियर राज्य के मूल निवासी थे लेकिन दादा गृहकलह से ऊबकर शाहजहांपुर में आकर बस गए। जिस बिस्मिल को परतंत्र भारत की क्रूर फिरंगी सरकार की अदालत ने उत्तर भारत से सशस्त्र क्रांतिकारी दल का मुख्य कार्यकर्ता और नेता घोषित कर प्राणदंड दिया, वे क्रांतिकारी आंदोलन में कैसे आए? यह कहानी भी मार्मिक है।
 


सन् 1916 में लाहौर षड्यंत्र का मुकदमा चला और भाई परमानंद को फांसी की सजा मिली। इस खबर को पढ़कर बिस्मिल के तन-बदन में आग लग गई। उन्होंने मान लिया कि अंग्रेज बड़े अत्याचारी हैं। इनके राज्य में न्याय नहीं, जो इतने बड़े महानुभाव को फांसी की सजा दे दी। बिस्मिल ने प्रतिज्ञा ली कि इसका बदला जरूर लूंगा और अंग्रेजी राज्य को विध्वंस करने का प्रयत्न करता रहूंगा।

बिस्मिल मैट्रिक में पढ़ रहे थे उसी समय वे पं. गेंदालाल दीक्षित के संपर्क में आए और मैनपुरी षड्यंत्र में उनकी बहुत मदद की। इस षड्यंत्र में गेंदालाल जब पकड़े गए तो बिस्मिल ने उन्हें छुड़ाने के लिए 15 विद्यार्थियों समेत फिरंगी सरकार के कारकून का घर लूटा।
 
पं. बिस्मिल ने 'देशवासियों के नाम संदेश' नामक पर्चा छपवाया और उसे उत्तरप्रदेश के 48 जिलों में एकसाथ बंटवाया। यह पर्चा पं. गेंदालाल दीक्षित की ग्वालियर में गिरफ्तारी के प्रतिशोध में छपवाया गया था। रातोरात पूरे प्रदेश में एकसाथ पर्चे बंटने से फिरंगी सरकार ने इसे बड़ी चुनौती माना और पर्चे के साथ 'अमेरिका को आजादी कैसे मिली' नामक पुस्तक को भी जब्त कर लिया।


 

यहीं से पं. बिस्मिल का क्रांतिकारी नेतृत्व उभरा। इन्होंने फिरंगियों के खिलाफ देश में सशस्त्र क्रांतिकारी संगठन का गठन कर उसका नाम 'द हिन्दुस्तान रिपब्लिकेशन एशोसिएशन' रखा। इस दल ने पूरे उत्तर भारत में अपना विस्तार प्रारंभ किया।
 
मैनपुरी षड्यंत्र में बिस्मिल के खिलाफ भी वारंट निकाला गया। वारंट निकलने की खबर बिस्मिल को मिल गई और वे तत्काल फरार हो गए। इसी बीच 'मन की लहर' नाम से कविताओं का संग्रह उन्होंने प्रकाशित किया जिसकी प्रतियों को अंग्रेजी शासन ने जब्त कर लिया। अपने फरारी जीवन में बिस्मिल का मुख्य क्षेत्र आगरा के आसपास रहा।
 
उन्होंने इस समय अपना नाम बदलकर 'रूपसिंह' रख लिया था। 'रूप' और 'राम' नाम से इन्होंने तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लेख छपवाए। 'रूप' नाम से इन्होंने एक छोटे सरकारी अस्पताल के डॉक्टर के छुट्टी जाने पर उसकी जगह चिकित्सक का कार्य भी किया। 
 
फरारी के दौरान अपने छोटे भाई सुशील के नाम से 'सुशील ग्रंथ माला' भी शुरू की और 6 पुस्तकें 'मन की लहर, बोल्शेविकों की करतूत, केथोराइन, स्वदेशी रंग और दो बंगला' से अनुवादित प्रकाशित किया।
 

बिस्मिल संस्कृत, हिन्दी, बंगला, उर्दू और अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे। इन दिनों इनकी गिरफ्तारी पर 200 रुपए का पुरस्कार अंग्रेजी सरकार ने घोषित किया था लेकिन बिस्मिल अपनी गतिविधियां जारी रखते हुए भी गिरफ्तार नहीं किए जा सके। देश के राजनीतिक हालात को जानने के लिए बिस्मिल बराबर अखबार पढ़ा करते थे और तमाम नौजवान इनसे इतने प्रभावित रहे कि इन्हें वे सदैव चारों तरफ से घेरे रहते थे।
 
अपने क्रांतिकारी विचारों के प्रतिपादन के लिए इस दल को धन की बड़ी आवश्यकता थी, क्योंकि मां भारती को अंग्रेजों के खूनी पंजे से छुड़ाने के लिए इन्हें कोई चंदा भी नहीं देता था इसीलिए इस दल के लोग अंग्रेज हुकूमत के सहयोगियों और प्रशंसकों को लूटकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करते थे लेकिन बाद में बिस्मिल ने देशवासियों की जगह सरकारी खजानों को ही छीनने का लक्ष्य बनाया और सरकार के छीने धन से हथियार, गोला-बारूद और अन्य आवश्यक शस्त्र खरीदे जाने लगे।
 
पं. बिस्मिल के नेतृत्व में क्रांतिकारियों का दल 9 अगस्त 1925 को 8 डाउन सराहनपुर-लखनऊ सवारी गाड़ी में सवार हुआ। चूंकि तीसरे दर्जे की जंजीर अक्सर खराब रहती थी इस वास्ते सेकंड क्लास के डिब्बे की जंजीर खींचने के लिए उस डिब्बे में अशफाकुल्ला खां वारसी, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और शचीन्द्र नाथ सान्याल सवार हुए बाकी लोग पं. रामप्रसाद बिस्मिल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल, मुकुंदी लाल, चंद्रशेखर आजाद, बनवारी लाल और मन्मथ नाथ गुप्त तीसरे दर्जे के डिब्बे में सवार हुए।
 
बिस्मिल ने अपने सभी साथियों को काम बांट दिया। दूसरे दर्जे के लोगों को जंजीर खींचकर गाड़ी खड़ी होने के बाद अन्य सहयोगियों को गार्ड को पकड़ लेने और खजाने वाले बॉक्स को कब्जे में ले लेने का कार्य सौंप दिया गया। संध्या के समय काकोरी रेलवे स्टेशन से आगे तार के 8वें खंभे के पास गाड़ी खड़ी कर दी गई। गाड़ी के ड्राइवर का बुरा हाल था।
 
बक्सा नीचे गिरा दिया गया, लाइन के दोनों ओर 2-2 आदमी पिस्तौल लिए खड़े किए गए थे। पिस्तौल पर कुंदे चढ़ाकर राइफल की शक्ल बना दी गई थी। इस गाड़ी में कुछ अंग्रेज फौजी भी थे। क्रांतिकारियों ने ऐलान कर दिया था कि हम किसी मुसाफिर को नहीं लूटेंगे केवल सरकारी खजाना ही लेने का हम लोगों का लक्ष्य है, जो जहां है वहीं रहे।
 
बिस्मिल अंग्रेजी खजाने की इस लूट को नर हत्या कराकर भयानक रूप नहीं देना चाहते थे लेकिन एक सज्जन ने जिनका काम गोली चलाना नहीं था, माउजर चला दी, जो एक यात्री को लगी। क्रांतिकारियों ने रुपयों को चादर में बांधा और आ गए। रास्ते में किसी ने भी रोका-टोका नहीं, लेकिन इस घटना से चारों तरफ सनसनी फैल गई।
 
खुफिया पुलिस यह समझ गई कि यह काम साधारण डाकुओं का नहीं हो सकता, क्योंकि वे तो प्राय: असहाय यात्रियों का ही धन लूटते हैं। इस घटना के दूसरे दिन 10 अगस्त को समाचार-पत्रों में इस भीषण ट्रेन डकैती का जब रोमांचकारी विवरण छपा तभी से पुलिस की निगाह में क्रांतिकारी चढ़ गए और शाहजहांपुर में मुखबिरी होने लगी। विशेष दस्ते के प्रभारी हार्ट्रन नियुक्त हुए।
 


10 अगस्त को खुफिया विभाग वालों ने बिस्मिल का पता लगाया तो यह मालूम हुआ कि वे बाहर हैं। गिरफ्तारियां शुरू हुईं और 26 सितंबर को नवदुर्गा के दिन सुबह दातुन करते बिस्मिल गिरफ्तार कर लिए गए।
 
काकोरी षड्यंत्र में कुल 36 लोग गिरफ्तार हुए। 28 नौजवानों पर मजिस्ट्रेट के यहां चार्जशीट आई। 2 पर से मुकदमा हटा दिया गया। सरकारी गवाह बनाकर माफी दी गई। 24 को मजिस्ट्रेट एनेउद्दीन ने सेशन सुपुर्द किया।
 
6 अप्रैल 1927 को सेशन जज मि. हैमिल्टन ने अपने 115 पेज के फैसले में पं. बिस्मिल को 'निर्दयी और हत्यारा' संबोधित कर यह लिखा कि पं. रामप्रसाद बिस्मिल को तब तक फांसी पर लटकाया जाए, जब तक कि प्राण न निकल जाए।
 
उन्होंने 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ न्यायालय में सजा कम करने और पुनः विचारार्थ याचिका दाखिल की। चीफ कोर्ट के जजों ने याचिका अस्वीकार कर दी। बिस्मिल ने फांसी से 3 दिन पूर्व यानी 16 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जिला जेल में आत्मकथा लिखी है और उसमें अपने कार्यों का जिक्र किया है।
 
बिस्मिल जिला जेल की कोठरी नं. 8 में रहते हुए लिखते हैं कि मुझे इस कोठरी में बड़ा आनंद आ रहा है। वहां से अपनी मां को लिखे एक पत्र में बिस्मिल ने कहा कि तुम्हें मेरी मौत की दर्दनाक खबर सुनाई जाएगी। मां मुझे यकीन है कि तुम सहन कर लोगी, क्योंकि तुम्हारा बेटा माताओं की माता 'भारतमाता' की सेवा में आखिरी जिंदगी को कुर्बान कर रहा है। उसने तुम्हारे परिवार पर कोई आंच नहीं आने दी बल्कि उसका रुतबा बुलंद किया।
 
19 दिसंबर 1927 को प्रात: दैनिक क्रिया-कलाप, स्नान आदि से निवृत्त होकर प्रात:काल 6.30 बजे 'वंदेमातरम्' और 'भारतमाता की जय' बोलते हुए पं. रामप्रसाद बिस्मिल फांसी पर झूल गए। फांसी पर झूलते समय उन्होंने 'ॐ' का ऐसा उच्चारण किया, जो कि काफी देर तक आकाश में गूंजता रहा। (वार्ता)