हनुमान-विभीषण के भक्ति संबंध अद्भुत
कर्त्तव्य को निभाना सबसे बड़ा धर्म
श्रीमद् वाल्मिकी रामायण में हनुमान एवं विभीषण के बीच स्थापित भक्ति के संबंध अद्भुत हैं। इस प्रसंग को पढ़ने से भक्त और भक्ति के बीच का भेद ही मिट जाता है। क्या कभी मनुष्य इस बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करता है कि उसने संसार में जिस-जिस वस्तु को, पद को, धन को, संपत्ति को, संबंध को पकड़ा है वे स्थायी रूप से पकड़े रह जाएँगे? नहीं! एक न एक दिन उनको छोड़ना पड़ेगा तो फिर मोह कैसा? इसलिए इसका सीधा तात्पर्य है हमेशा यह ज्ञान बना रहे कि न हम रहेंगे और न आगे आने वाले ही रहेंगे। हम को जाना है, जगत को नहीं जाना है यह ज्ञान बना रहे। किंतु हम आए हैं, तो कर्म नहीं छोड़ सकते। जो व्यक्ति यह कहता है कि घर बार छोड़ दूँगा, संन्यासी बन जाऊँगा, वन में चला जाऊँगा, तपस्या करूँगा तो ऐसा व्यक्ति अपने कर्त्तव्य से आँख चुराने की बात करता है। इसलिए यह ध्यान रहे कि जगत के कर्त्तव्य कभी भी न छूटें, भगवान की आस्था भी न छूटे, भगवान का भजन भी न छूटे और ज्ञान में सतत् यह ध्यान बना रहे यह सब हमारा नहीं है। रामायण के सुंदरकांड का मूल तत्व यही है। जिस क्षण से जीवन भगवान के भजन से विमुख हो जाता है, भगवन्नाम स्मरण से विमुख हो जाता है, उसी क्षण से इस जीव को विपत्ति की प्राप्ति होने लगती है। सूत्र यह है कि ईश्वर की विस्मृति ही विपत्ति है। सांसारिक जीवन भौतिक संसाधनों के छिन जाने से दुखी होता है और भौतिक संपत्ति मिल जाने से सुखी रहता है। परंतु भक्त तो भगवान के भजन एवं गुणगान से सुखी होता है। मनुष्य के पास सुख रूपी संपत्ति का खजाना भरा हुआ है लेकिन वह प्राप्त कैसे होगा? वह प्राप्त होगा भजन से। मनुष्य समझता है शायद संपत्ति का आना, सुख एवं संपत्ति का जाना, दुःख संपत्ति पर निर्भर नहीं अपितु भजन पर निर्भर है। यही विभीषण और हनुमान जी के व्यक्तित्व में तुलना कर देखेंगे तो पाते हैं- संसार में कुछ लोग भजन भी देखा करने लगते हैं किंतु वह अधिक समय तक निभता नहीं क्योंकि संसार खींचता है, साधन खींचते हैं। (संत कृष्ण विद्यार्थी के प्रवचनों से)