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गीता सार- गीता को कैसे समझें- 2

गीता सार-  गीता को कैसे समझें- 2 - The Bhagavad Gita
- अनिल विद्यालंकार 
 

 
गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है और किसी विशेष धर्म की पुस्तक तो वह कदापि नहीं है। भारतीय परंपरा में धर्म, दर्शन और मनोविज्ञान को सदा ही समन्वित रूप में देखा और विचारा गया है, क्योंकि इन सभी विषयों का वास्तविक केंद्रबिंदु मनुष्य का मन और उसके द्वारा रचा गया संसार है।
 
गीता में यह समन्वित दृष्टिकोण पूरी तरह मिलता है। इसमें जहां धर्म के क्षेत्र के आत्मा, परमात्मा, भक्ति, कृपा, दान, तपस्या, नैतिकता, त्याग, पाप और पुण्य आदि पारंपरिक विषयों को लिया गया है, वहीं इस विश्व की रचना और उसमें मनुष्य की स्थिति से सबंधित गंभीर दार्शनिक प्रश्न भी उठाए गए हैं।
 
लेकिन गीता जिस विषय पर सबसे अधिक प्रकाश डालती है, वह है मनुष्य के मन का आंतरिक संसार और उसके विविध आयाम। हम क्या हैं? हमारे आंतरिक जीवन की संरचना किस प्रकार की है? हमारा मन कैसे काम करता है? कौन-सी शक्तियां हमारे जीवन को नियंत्रित करती हैं? हमारा कर्तव्य क्या है? हम अपना वैयक्तिक और सामाजिक जीवन कैसे बिताएं? हमारे दु:ख कैसे दूर हो सकते हैं? हमें स्थायी शांति और सुख कैसे मिल सकता है? हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है? और हम उस लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकते हैं?
 
इस प्रकार के गंभीर प्रश्नों का गीता बहुत स्पष्ट और सारगर्भित विवेचन करती है। और क्योंकि ये प्रश्न सभी मनुष्यों के लिए समान हैं इसलिए गीता का संदेश किसी विशेष समुदाय के लिए न होकर संपूर्ण मनुष्य जाति के लिए है। एल्डस हक्सले के शब्दों में- 'गीता शाश्वत दर्शन का अब तक प्रस्तुत एक सबसे स्पष्ट और सर्वांगीण सार है इसलिए न केवल भारतीयों के लिए, अपितु पूरी मानव जाति के लिए इसका स्थायी महत्व है।'
 
गीता को समझने के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि गीता पढ़ते हुए हम अपने आपको समझने का प्रयास करें। वास्तव में हम गीता को समझ ही तब सकते हैं, जब हम साथ-साथ अपने जीवन को भी सबसे गहरे स्तर पर समझने का प्रयत्न करें। 
 
 


अपनी पुस्तक The Human Situation में एल्डस हक्सले ने लिखा है कि पूर्व का दर्शन सदा ही पारगामी क्रियात्मकता (transcendental operationalism) लिए रहता है। यहां कोई व्यक्ति आत्मा के संबंध में पहले कुछ करता है और तब अपने अनुभव के आधार पर उस अनुभव की व्याख्या के लिए अनुमान करता है और सिद्धांत बनाता है। इसके विपरीत अधिकतर पाश्चात्य दर्शन, विशेषकर आधुनिक पाश्चात्य दर्शन, केवल आनुमानिक कल्पना है, जो सैद्धांतिक ज्ञान पर आधारित है और जिसका अंत सैद्धांतिक निष्कर्षों में ही होता है।
 
भारत में आध्यात्मिक ज्ञान पूरी तरह एक व्यावहारिक विज्ञान रहा है। जैसे कि विज्ञान में होता है, यहां भी प्रत्येक बात दुहराई जा सकती है और प्रयोग द्वारा पुष्ट की जा सकती है। अंतर केवल यह है कि यहां हमें प्रयोग स्वयं अपने ऊपर करने होते हैं।
 
प्रायोगिक विज्ञान में हम पहले सिद्धांत पढ़ते हैं और तब प्रयोगशाला में प्रयोग करके उस सिद्धांत को पुष्ट करके देखते हैं, इसी प्रकार हम जो कुछ गीता में पढ़ते हैं उसे अपने जीवन में घटते हुए देखने का प्रयास हमें करना चाहिए। किसी भी बात को इसलिए ही स्वीकार नहीं करना चाहिए कि वह गीता में लिखी है। यह बात गीता की ही भावना के प्रतिकूल होगी।
 
भारतीय धर्म मानने का धर्म न होकर जानने का धर्म है। यह संभव है कि प्रारंभ में हमें गीता की कई बातें समझ में न आएं (ऐसा विज्ञान में भी होता है) लेकिन सच्चाई, धैर्य और परिश्रम से प्रयास करने पर हम धीमे-धीमे सभी चीजों को वैसे ही स्पष्टता से समझने लगेंगे, जैसे कि विज्ञान में होता है। अंतर केवल यही है कि गीता की बातों का संबंध आंतरिक जीवन से होने के कारण उन्हें शब्दों में पूरी तरह व्यक्त नहीं किया जा सकता।
 
गीता के दर्शन को समझने के लिए हमें एक विशेष अंतरदृष्टि की आवश्यकता है। आइए, इस दिशा में प्रयास करें।
 
हम अपने आपको एक ऐसे संसार में पाते हैं जिसे हमने नहीं बनाया और अवश्य ही हमने अपने आपको भी नहीं बनाया। हम सोचते हैं कि यह संसार हमारे लिए बनाया गया है और हमारे भोगने के लिए है। हम इसके लिए प्रयत्न भी करते हैं, पर हम में से कुछ लोग इस संसार को और अपने आपको समझना भी चाहते हैं। हम कौन हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसने सभी संस्कृतियों और सभी कालों में बहुत-से मनुष्यों के मन को आंदोलित किया है।
 
बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक भी संसार के रहस्य की गुत्थी को सुलझाने में असमर्थ हैं। फिर जो लोग इस संसार को केवल भोगना चाहते हैं, वे भी पाते हैं कि उनके रास्ते में बहुत-सी रुकावटें हैं। मनुष्य के पास कितना ही धन और ताकत क्यों न हो, वह उनके द्वारा स्थायी शांति और सुख कभी नहीं पा सकता। इस तरह हर मनुष्य के जीवन में कोई-न-कोई छोटा-बड़ा द्वंद्व लगा ही रहता है।
 
इस द्वंद्व से छुटकारा पाने का उपाय क्या है? हम मार्गदर्शन के लिए धर्मग्रंथों की शरण में जा सकते हैं, पर गीता का स्पष्ट रूप से कहना है कि धर्मग्रंथों से हमारी उलझन बढ़ेगी ही, सुलझेगी नहीं। दैनंदिन समस्याओं के बारे में गीता 'झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो' आदि का उपदेश नहीं देती, जो कि प्राय: धार्मिक पुस्तकों और उपदेशकों द्वारा दिए जाते हैं।
 
ये शिक्षाएं अच्छी हैं, पर प्रश्न यह है कि मनुष्य उन पर आचरण क्यों नहीं कर पाता? मनुष्य के स्वभाव को बदलने की आशा हम तभी कर सकते हैं, जब हम गहरे से गहरे स्तर पर उन शक्तियों को समझ लें, जो उसके जीवन का संचालन कर रही हैं। विज्ञान के क्षेत्र में भी कुछ ऐसी ही स्थिति का सामना हम लोग कर रहे हैं।
 
एक चुम्बक के कार्य को समझने के लिए हमें इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन आदि के बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर जाना होता है। जो दिख रहा है, विज्ञान उसकी व्याख्या उसके आधार पर करता है, जो दृष्टि के परे है। कुछ ऐसी ही बात हमारे आंतरिक जीवन पर भी लागू होती है। अपने आपको समझने के लिए हमें उन सूक्ष्म स्तरों पर जाना होगा, जो हमारे अंदर छिपे हुए हैं।
 
प्रकृति और जीवन दोनों में ही दृश्य की व्याख्या अदृश्य के आधार पर ही की जा सकती है। विज्ञान में गणित वह सामान्य सीढ़ी है जिसके सहारे दृश्य जगत की गहराइयों में व्यवस्थित ढंग से उतरा जा सकता है। आंतरिक अध्यात्म के क्षेत्र में हमारा प्रत्यक्ष अनुभव ही वह एकमात्र साधन है, जो हमारी खोज के लिए निश्चित आधार दे सकता है। 
 
(जारी)